अमेरिकी टैरिफ़ः 'विरोध' नहीं, 'विवेक'
संदीप कुमार
| 01 Aug 2025 |
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जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 'अमेरिका को पुनः महान' बनाने की हुंकार भरते हैं, तो उनके वाक्यों के पीछे केवल नारा नहीं, एक दो-धारी टैरिफ नीति की तलवार भी छुपी होती है। 1 अगस्त, 2025 को जब उन्होंने भारत से आयातित स्टील, एल्यूमिनियम और अन्य उत्पादों पर 25% टैरिफ लगाने की घोषणा की, तो यह महज़ एक आर्थिक नीति नहीं थी—बल्कि यह भूराजनैतिक दबाव की उद्घोषणा थी। और भारत ने उस उद्घोषणा के समक्ष, न नीति छोड़ी, न नति झुकाई।
यह एक असामान्य व्यापारिक गतिरोध नहीं, बल्कि भविष्य के वैश्विक आर्थिक समीकरणों की नींव रखता हुआ एक निर्णायक मोड़ है। प्रश्न यह नहीं है कि भारत-अमेरिका के बीच व्यापार समझौता क्यों नहीं हुआ, बल्कि कई और प्रश्न उठ खड़े होते है कि आखिर यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? क्या भारत ने अमेरिका के साथ टकराव का रास्ता चुना है, या यह एक परिपक्व और दूरदर्शी कूटनीतिक कदम है? राष्ट्रीय हित और दीर्घकालिक रणनीति के परिप्रेक्ष्य में इसका क्या अर्थ है? 2024 के उत्तरार्ध से भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक संवाद के कई दौर चले। अमेरिका चाहता था कि भारत— डिजिटल डेटा स्थानीयकरण की नीति में ढील दे, दुग्ध एवं कृषि उत्पादों के बाज़ार को पूर्णतः खोल दे, पेटेंट और बायोमेडिकल इनोवेशन पर अमेरिकी वर्चस्व स्वीकार करे और ई-कॉमर्स क्षेत्र में विदेशी स्वामित्व संबंधी नियंत्रणों को शिथिल करे।
बदले में, अमेरिका 'जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रेफरेंसेज (जीएसपी)' जैसी पुरानी रियायतों की वापसी का संकेत दे रहा था—जो एक समय उसने खुद ही बंद की थी।
परंतु भारत ने हर वार्ता में यह दोहराया कि— डिजिटल संप्रभुता, केवल तकनीकी नीति नहीं, राष्ट्रीय आत्मा की रक्षा है। दुग्ध एवं खाद्य क्षेत्र, केवल आर्थिक क्षेत्र नहीं, करोड़ों ग्रामीण परिवारों की आजीविका हैं।
1 अगस्त से लागू हुआ अमेरिकी टैरिफ—स्टील, एल्यूमिनियम, फार्मास्यूटिकल्स और ऑटो-पार्ट्स पर 25% तक की दर—प्रत्यक्षतः लगभग $8.2 बिलियन के व्यापार को प्रभावित करेगा। लेकिन भारत ने न प्रतिशोध लिया, न आपा खोया। यह मौन था, पर नपातुला, संतुलित और रणनीतिक।
ट्रंप प्रशासन की यह 'टैरिफ-वार' चीन, वियतनाम, ब्राजील सहित कई देशों पर पहले भी चली है, परंतु भारत ने इसे विकासशील राष्ट्रों के ऊपर विकसित देशों की नीति साम्राज्यवादिता के रूप में देखा।
भारत का इनकार टकराव नहीं, बल्कि संप्रभु नीति-निर्माण की घोषणा था। इसके पीछे चार सुदृढ़ रणनीतिक आधार हैं: पहला, विकल्पों का निर्माण: भारत ने यूरोपीय संघ, यूएई, अफ्रीका और आसियान के साथ वैकल्पिक मुक्त व्यापार समझौतों की दिशा में तेज़ी से कदम बढ़ाए। जुलाई 2025 में भारत-ईयू के बीच एफटीए पर हस्ताक्षर किये गये, जबकि यूएई और अफ्रीकी देशों के साथ 'स्ट्रैटेजिक कमोडिटी कॉरिडोर' पर काम आरंभ हो चुका है। दूसरा, आत्मनिर्भरता को नया आयाम: फार्मा, स्टील, इलेक्ट्रॉनिक्स और एग्रो-प्रोसेसिंग जैसे क्षेत्रों में भारत ने निर्यात-निर्भरता कम कर घरेलू उत्पादन एवं क्षेत्रीय बाज़ारों को केंद्र बनाया। पीएलआई योजनाओं में ₹"38,000 करोड़ से अधिक की नयी निधि दी गई। तीसरा, अमेरिकी घरेलू लॉबी को संदेश: भारत यह जानता है कि ट्रम्प प्रशासन की टैरिफ नीति अमेरिकी फार्मा, ऑटो, और टेक लॉबी के भी हित में नहीं है। भारत इस मुद्दे को डब्ल्यूटीओ में 'गैर-पारदर्शी टैरिफ नीति' के रूप में चुनौती देने की तैयारी में है। और चौथा, नीति निर्माण की स्वायत्तता की रक्षा: भारत मानता है कि डिजिटल डेटा, कृषि नीति और पेटेंट क्षेत्र में झुकाव, दीर्घकालिक आत्मनिर्भरता के विलोपन जैसा होगा। यह झुकना नहीं, नीति आत्मसमर्पण होता।
भारत ने अभी तक किसी प्रतिकारात्मक टैरिफ की घोषणा नहीं की—यह कोई कमज़ोरी नहीं, बल्कि रणनीतिक शांति है। विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि 'राष्ट्रहित को लेकर भारत की नीति स्थायी और असंवेदनशील नहीं है—परंतु झुकेगी नहीं।'
इस क्रम में भारत ने आसियान, लातिन अमेरिका, और अफ्रीकी संघ के साथ नये बाजारों के लिए बातचीत तेज़ कर दी है। भारत का लक्ष्य अब केवल अमेरिका से व्यापार करना नहीं, बल्कि अमेरिका पर निर्भरता को कम करना है।
संक्षेप में, भारत ने अमेरिका के टैरिफ-प्रहार को एक तात्कालिक आर्थिक आघात मानकर नहीं, बल्कि रणनीतिक कसौटी के रूप में देखा। भारत का यह संकल्प स्पष्ट है—'राष्ट्रीय हित की कीमत पर कोई व्यापार संभव नहीं'।
डिजिटल डेटा नीति, किसानों की सुरक्षा, और नीति निर्माण की स्वतंत्रता—इन सब पर समझौता करके भारत अल्पकालिक लाभ अर्जित कर सकता था। परंतु उस स्थिति में भारत की वैश्विक छवि एक सामर्थ्यहीन, समर्पित राष्ट्र की होती। भारत ने यह निर्णय लेकर यह स्थापित किया है कि— 'राष्ट्र की नीति आत्मनिर्भरता से बनती है, न कि वैश्विक दबाव से।'
भारत का यह नीतिगत धैर्य और दबाव के विरुद्ध संयम अब वैश्विक व्यापार-राजनीति में एक वैकल्पिक मॉडल का निर्माण कर सकता है। यह केवल एक व्यापारिक घटना नहीं, बल्कि यह 21वीं सदी के भारत के नीति-सिद्धांतों की उद्घोषणा है।
व्यापार समझौतों से राष्ट्र समृद्ध होते हैं, आत्मसमर्पण से नहीं। भारत ने यह भलीभांति समझ लिया है।