मोदीयाना (आवरण कथा)

संदीप कुमार

 |  01 Aug 2025 |   19
Culttoday

वह 1970-80 का दौर था। देश की आजादी के अरमान के अधूरेपन की वजह से जनता में गुस्सा भरता जा रहा था। भारत के नवनिर्माण के प्रण में लगे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद सत्ता स्थानांतरित होते हुए बेटी इंदिरा गांधी के हाथों में आई और इंदिरा ने देश पर आपातकाल थोप दिया। आक्रोशित जनता के मन में अब व्यवस्था के प्रति नाराजगी काफी बढ़ गई थी। जेपी के संपूर्ण क्रांति के आह्वान में वह नाराजगी तो दिख रही थी, लेकिन लोगों के मन के आक्रोश को रुपहले पर्दे पर एक नौजवान अपनी अदाकारी से प्रतिबिंबित कर रहा था। देखते ही देखते उस अदाकार ने सिल्वर स्क्रीन से निकल कर भारतीय जनमानस के दिल में अपनी जगह बना ली और सुपर स्टार अमिताभ बच्चन का अवतरण हो गया।
कुछ ऐसी ही परिस्थितियां पिछले दो दशक की राजनीति में भी देखी गईं। समाज के भीतर से एक चेहरे को गढ़ा जा रहा था। इस चेहरे को गढ़ने वाली जोड़ी सलीम जावेद की नहीं थी, बल्कि इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ था और जिस नायक को लोगों के दिलों में उतारना था - वह नरेन्द्र मोदी थे। इस नायक और सिल्वर स्क्रीन के नायक अमिताभ बच्चन में एक अंतर था। अमिताभ बच्चन को केवल अदाकारी करनी थी, लेकिन इस नायक अर्थात नरेंद्र मोदी को अदाकारी ही नहीं, बल्कि समाज में एक करिश्माई नेता की मौजूदगी, सभी सामाजिक समस्याओं का राजनीति समाधान प्रदाता की छवि और अपने विरोधियों के खिलाफ का एक वातावरण भी सृजित करना था। और साथ ही अपनी अदाकारी से यह संदेश भी देना था कि इस डरावने वातावरण से केवल वही छुटकारा दिला सकते हैं। इस पूरी पटकथा के पीछे संघ परिवार नियोजित ढंग से अपनी भूमिका निभा रहा था। नरेंद्र मोदी के लिए लिखी गई भूमिका में यह साफ था कि उन्हें अपनी अदाकारी इस कदर दिखानी है कि लगे पूरी राज-व्यवस्था पंगु हो गई है और हर तंत्र को उबारने के लिए बतौर नायक वही एक विकल्प हैं।
इस नायक की छवि गढ़ने के लिए संघ परिवार ने हर स्तर पर प्रयास किया और खास कर युवा मतदाताओं के बीच एक बोल्ड नेता के रूप में उन्हें स्थापित करने के लिए तकनीक का जमकर उपयोग भी किया। वर्ष 2012 के बाद से संघ परिवार ने 2014 के आम चुनाव को ध्यान में रख कर राजनीतिक पटकथा लिखनी शुरू कर दी और उसके नायक के तौर पर नरेंद्र मोदी को पेश किया। देखते ही देखते यह नायक यूपीए-2 के कार्यकाल की सारी विफलताओं को अपने हक में सफलता की कुंजी बना चुका था और सवा सौ करोड़ भारतीयों की हताशा-निराशा के बीच के माहौल में वह उम्मीद की किरण बन कर उभर चुका था। पूरा देश 2014 के आम चुनाव में एकजुट होकर पूर्ण बहुमत वाली एक सरकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बना डाली।
और यहीं से मोदी युग का आरंभ हुआ। बीजेपी के संघर्ष के पुराने नायक लाल कृष्ण आडवाणी अकेले अंधेरे में कैद कर दिये गये।।।।  मुरली मनोहर जोशी खामोशी की तरंगों में खो गये। यशंवत सिन्हा सुनसान सड़क पर हंगामा खड़ा करने के मकसद को लगातार टटोल रहे थे। शत्रुघ्न सिन्हा की खलनायकी खुल कर सामने लाने के लिए मजबूर कर दिया गया। कांग्रेसी या क्षत्रपों में इतनी ताकत नहीं रह गयी कि सत्ता गंवाने के बाद सत्ता पाने के लिए ढंग से संघर्ष करते हुए दिखायी देने के अलावा, कुछ कर सकें। संवैधानिक संस्थाएं धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार की केंद्रीकृत शासन व्यवस्था के जकड़न में जकड़ गयीं। हालात कैसे बदले इसका तब पता चला, जब सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों को अपनी बात कहने के लिए सड़क पर उतरना पड़ा। मीडिया राग दरबारी की भूमिका में चला गया। प्रधानमंत्री मोदी, जो स्वयं को प्रधानसेवक, देश का चौकीदार और देश ही उनका परिवार कहते हैं और महात्मा गांधी के अनुयायी बताते हैं, उन्होंने महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज को ग्राम सुराज का नाम तो दिया, लेकिन सत्ता के विकेंद्रीकरण के मंसूबे को सात तालों के भीतर बंद कर दिया। मोदी सत्ता के दौरान हालात ऐसे हो गये कि मंत्री और मंत्रालय दिखते तो जरूर थे, लेकिन सत्ता केंद्रीकृत हो कर पीएमओ तक सिमट कर रह गई। ऐसा होने के पीछे के कारणों को टटोलने की जरूरत आ पड़ी है। 
देश ने 2019 के चुनाव में फिर से नरेंद्र मोदी को पहले के मुकाबले और अधिक मजबूती से सत्ता पर बिठाया। क्योंकि उनके समानांतर कोई अन्य फलक पर नहीं दिख रहा था। फिर 2024 के चुनाव में मोदी के नेतृत्व में भाजपा अपना वह करिश्मा ना दोहरा सकी और बहुमत के आकड़े से नीचे लुढक कर 240 पर अटक गई लेकिन एनडीए के समर्थक दलों के साथ बहुमत की सरकार फिर बन गई। 
इस तीसरे कार्यकाल में अब आवश्यक है कि यह आकलन किया जाए कि लोकतांत्रिक तरीकों से, चुनावों के जरिये भाजपा या सीधे शब्दों में कहें तो मोदी को हराना क्या अब असंभव सा हो गया है? विपक्ष में राहुल गांधी को छोड़ कर कोई भी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान वाला नेता नहीं है, तिस पर राहुल राष्ट्रीय स्तर पर कुछ उल्लेखनीय कर गुजरें संभव हो भी जाए तो कांग्रेस ऐसा करती नहीं दिखती। सो विपक्ष और उसके प्रमुख चेहरे जो प्रधानमंत्री बन सकें नदारद हैं। लेकिन मोदी के बाद कौन? यह सवाल किंचित समय पूर्व कही जा सकती हैं पर कठिन कार्य समय पूर्व आरंभ करना ही श्रेयस्कर होता है। इस आवरण कथा के कई शेड है, जिसमें हम अजेय मोदी, अनवरत मोदी की चर्चा तो करेंगे ही। साथ ही वर्तमान की देश की राजनीति के बरअक्श भविष्य की राजनीति का आकलन और वैश्विक स्तर पर मोदी के नेतृत्व में भारत विश्वगुरु की अपनी संकल्पना की ओर किस गति से बढ़ रहा है, उसका भी आकलन करेंगे। 
अभी हाल ही में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने 75 वर्ष की उम्र के बाद लोगों को शाल ओढ लेने की सलाह दी थी। तब इस बयान को नरेंद्र मोदी के अगले महीने अर्थात 17 सितंबर, 2025 को 75 वर्ष की आयु पूरी करने के बाद राजनीति से सन्यास लेने के दबाव के रूप में देखा गया, हालांकि भागवत ने अपने बयान पर स्पष्टीकरण दे दिया था कि उनका यह बयान मोदी के संबंध में जो कयास लगाये जा रहे है, उससे जोड़ कर न देखा जाए।  हालांकि राजनीति में कयासो, संकेतों और कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना की तर्ज पर बयान दिये या कृत्य किये जाते हैं और उसका सौ फीसदी निहितार्थ राजनीति ही होता है। अभी संसद के मानसून सत्र के पहले ही दिन जिस नाटकीय ढंग से उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने पद से इस्तीफा दिया, उसे भी उसी चश्मे से किंचित देखा जा रहा है क्योंकि उन्होंने भी इसी वर्ष 75 वर्ष की आयु पूरी की है और उन्होंने इस्तीफे का हवाला भी स्वास्थ्य कारणों का दिया है। खैर, इन सबके बाद यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि यह 75 वर्ष वाला मामलों सिर्फ राजनीतिक सुर्खियों और बयानों तक रह गया है लेकिन यह किंचित समय पूर्व कही जाने वाली बात ज़रूर है, पर कठिन कार्य समय पूर्व आरंभ करना ही श्रेयस्कर होता है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा तब तक चुनाव जीतती रहेगी और केंद्र समेत अधिकांश राज्यों में सरकार बनाती रहेगी जब तक वह स्वयं ऐसा चाहें। दरअसल आज की भारतीय राजनीति में, लोकतांत्रिक तरीके से—चुनावों के ज़रिए—भाजपा को हराना लगभग असंभव हो चला है। विपक्ष में राहुल गांधी को छोड़कर कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री पद का वास्तविक दावेदार बन सके। और राहुल भी यदि कुछ उल्लेखनीय कर गुजरने की क्षमता रखते हों, तो कांग्रेस की निष्क्रियता उन्हें वह अवसर प्रदान करती प्रतीत नहीं होती।
तो सवाल सिर्फ यह नहीं कि भाजपा को कौन हराएगा—बल्कि यह भी है कि क्या उसे हराया भी जा सकता है? क्या चुनाव आयोग, मीडिया, न्यायपालिका, और तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर भाजपा की पकड़ इतनी मज़बूत हो चुकी है कि जनादेश अब एक स्वाभाविक लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति नहीं बल्कि एक 'प्रायोजित और प्रबंधित' इवेंट बन चुका है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति किसी स्थायी आदर्श पर नहीं टिकी, बल्कि यह सतत बदलती हुई भावनाओं की सवारी करती है—कभी 'चाय वाला', कभी 'चौकीदार', कभी 'विश्वगुरु', तो कभी 'विकास पुरुष'। और इस परिवर्तनशील व्यक्तित्व के पीछे जो सबसे सधा हुआ तंत्र खड़ा है, वह है उनकी विदेशी नीति। सबसे बड़ी बात यह है कि राजनीति के इतर इनका व्यक्तित्व एक हिंदू राष्ट्रवादी नेता की है, जिसे बड़ी शिद्दत के साथ आरएसएस ने अपनी प्रयोगशाला में गढ़ा है, कई वरिष्ठ राजनीति विश्लेषकों की माने तो संघ के वैचारिकी में पका कर हेडगेवार और गुरु गोलवलकर से ख्वाबों के आदर्श राजनीति चेहरा नरेंद्र मोदी है और शायद यह संघ परिवार की वैचारिक यात्रा के 100 नहीं तो कम से कम 90 वर्षों की साधना का प्रतिफल है। उल्लेखनीय है इसी वर्ष संघ अपनी स्थापना का 100 वां वर्ष अर्थात शताब्दी वर्ष मनायेगा।    
मोदी सरकार की विदेश नीति का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उसने कूटनीति को टेलीविज़न-फ्रेंडली बना दिया। अब विदेश नीति, बंद दरवाजों के पीछे चलने वाली संवाद प्रक्रिया नहीं, बल्कि लाइव-स्ट्रीमिंग योग्य इवेंट बन चुकी है। मोदी का हर विदेशी दौरा जैसे किसी नायक का विजय अभियान होता है— साबरमती रिवरफ़्रंट पर हाथ में हाथ डाले शी जिनपिंग के साथ टहलते नरेंद्र मोदी, झूले पर झूला झूलते बराक ओबामा, ट्रंप के साथ मोटेरा में नमस्ते ट्रंप, अबू धाबी में मंदिर उद्घाटन—सब कुछ इतने भव्य तरीके से पेश किया गया कि देश में बैठा आम नागरिक विदेश नीति को भी 'इवेंट' की तरह देखने लगा।
लेकिन इस चमक-दमक के पीछे क्या सच में भारत का कूटनीतिक कद बढ़ा? चीन के साथ सीमा विवाद से लेकर पाकिस्तान से संवादहीनता, रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत की अस्पष्टता, या खाड़ी देशों के साथ रिश्तों की अस्थिरता—सभी मोर्चों पर मोदी सरकार की विदेश नीति को गंभीर प्रश्नों का सामना करना पड़ा है। ब्रिक्स, जी20, या क्वाड में भारत की भागीदारी तो रही है, लेकिन क्या इन मंचों पर भारत की बात निर्णायक रूप से सुनी गई? या फिर हम सिर्फ मंच की शोभा बनकर रह गए?
मोदी सरकार की विदेश नीति एक खास किस्म की आत्म-मुग्धता से ग्रस्त प्रतीत होती है। यह एकतरफा संवाद का रूप ले चुकी है जिसमें यह मान लिया गया है कि जो भारत कह रहा है, वही अंतिम है। यूक्रेन युद्ध पर भारत की 'मौन नीति' इसका ज्वलंत उदाहरण है। पश्चिम से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए रूस को न खुले तौर पर समर्थन मिला, न विरोध—और परिणामस्वरूप भारत को दोनों ओर से संदेह की दृष्टि से देखा गया।
चीन ने भारत की कूटनीतिक छवि पर सबसे अधिक आघात किया। डोकलाम से लेकर गलवान तक, और फिर अरुणाचल के क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे का विस्तार—हर बार चीन ने भारत को एक रणनीतिक दबाव में डाला, और मोदी सरकार या तो चुप रही या बेहद सतर्क भाषा में प्रतिक्रिया देती रही। प्रधानमंत्री मोदी का यह बयान कि 'न कोई घुसा है, न कोई घुसा हुआ है' इतिहास के पन्नों में एक कूटनीतिक आत्मवंचना के उदाहरण के रूप में दर्ज हो चुका है।
'नेबरहुड फर्स्ट' की नीति के अंतर्गत जो प्रयास हुए, वे अधिकतर दिखावे तक सीमित रहे। श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश जैसे देशों के साथ भारत के संबंध या तो तनावपूर्ण रहे या अविश्वासपूर्ण। नेपाल के संविधान निर्माण के समय भारत की दखलंदाज़ी, श्रीलंका में तमिल मुद्दे पर चुप्पी, और बांग्लादेश के साथ एनआरसी जैसे मुद्दों पर नकारात्मक प्रभाव—इन सबने यह दिखाया कि 'नेबरहुड फर्स्ट' केवल उद्घोषणा थी, नीति नहीं।
नरेंद्र मोदी की विदेश नीति संस्थानों की भागीदारी से अधिक एक व्यक्ति केंद्रित हो चुकी है। विदेश मंत्रालय की भूमिका सीमित कर दी गई है और अधिकांश निर्णय सीधे पीएमओ से होते हैं। भारतीय विदेश सेवा जैसी विशेषज्ञ संस्था एक 'लॉजिस्टिक टीम' के रूप में सीमित हो चुकी है, जिसका काम दौरे के लिए मंच सजाना और झंडे सजाना रह गया है।
जब हम मोदी के विकल्प की बात करते हैं, तो यह समझना होगा कि क्या मोदी का विकल्प सिर्फ व्यक्ति के तौर पर देखा जाए, या शैली, संरचना और विचारधारा के रूप में भी? इस बात में कोई दो राय नहीं कि नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा में कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नहीं दिखता। अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, जय शाह, खट्टर, नड्डा जैसे नाम हवा में हैं, पर उनमें से कोई भी वह सर्वग्राह्यता नहीं पा सका है जो मोदी को मिली।
और शायद यही मोदी की सबसे बड़ी ताकत भी है—वह अपने भीतर किसी भी उत्तराधिकारी की संभावना को पूर्णतः शून्य कर देते हैं।
पर क्या यह अजेयता स्थायी है?  नहीं। इतिहास सिखाता है कि हर अजेय नेतृत्व के भीतर विघटन का बीज होता है। मोदी 75 के होंगे। भले दो कार्यकाल और रहें, पर उसके बाद पद छोड़ना तय है—स्वेच्छा से या विवशता से। तब क्या भाजपा अपने भीतर से किसी को सामने लाएगी या कोई 'मोदी का मुखौटा' ही पेश किया जाएगा जो उन्हीं की तरह बोले, मुस्कराए, और कैमरे की ओर नज़र डाल कर वही कहे जो 'मंत्रालय' नहीं बल्कि 'नायक' चाहता है?
एक समय था जब भाजपा का नेतृत्व संघ के आशीर्वाद से तय होता था। पर अब संघ का राजनीतिक दबदबा शून्य हो चुका है। वह सिर्फ प्रतीकात्मक बयानों तक सीमित है। उसके पास न नैतिक बल बचा है, न संगठनात्मक पकड़। ऐसे में मोदी के उत्तराधिकारी के चयन में संघ की निर्णायक भूमिका होगी—ऐसा मानना आज की स्थिति में हास्यास्पद लगता है।
यदि यह चयन मोदी की शैली में होगा, तो एक सुबह पार्टी को पता चलेगा कि उनका नया नेता खट्टर या नरोत्तम मिश्रा है। लेकिन यदि यह एक सुविचारित प्रक्रिया से होगा, तो कुछ संभावित नाम उभरेंगे—जैसे योगी आदित्यनाथ, अमित शाह, धर्मेंद्र प्रधान, मनोज सिन्हा या किसी और उभरते चेहरे को तराशा जाएगा।
पर सवाल यह है कि पार्टी किसे पसंद करेगी—जो फंड जुटाने में तेज हो, जो संगठन के प्रति आज्ञाकारी हो, जो जनता को भावनात्मक रूप से बाँध सके, या जो सिर्फ मोदी के प्रति निष्ठावान हो? इस समय पार्टी के पास 'मोदी के बाद मोदी, उसके बाद कौन?' का उत्तर शायद नहीं है, पर यह तलाश अब ज़रूरी है।
आज भाजपा एक पार्टी नहीं, एक 'सिस्टम' बन चुकी है—जिसका एक चेहरा है, एक आवाज़ है, और एक भय भी। यह भय किसी बाहरी शक्ति का नहीं, बल्कि आंतरिक मौन का है। पार्टी में कोई दूसरा आवाज़ उठाने का साहस नहीं करता। और जब ऐसा होता है, तब 'लोकतंत्र' केवल चुनावी मशीनरी में सीमित रह जाता है, और देश एक लंबी राजनीतिक थकान में प्रवेश करता है।
राजनीति में कोई स्थिति स्थायी नहीं होती। विकल्पों की गैरमौजूदगी विकल्प नहीं है। राजनीतिक चेतना हमेशा विकल्प गढ़ती है। विपक्ष की असफलता स्थायी नहीं है—यदि जनता थकेगी, टूटेगी और सत्ता के एकछत्र स्वरूप से ऊबेगी, तो विकल्प पैदा होंगे। पर यह तभी होगा जब जनता सूचना की भीड़ में सच और प्रचार का फर्क समझ सके।
मोदी सरकार की विदेश नीति, आंतरिक शासन शैली, और उत्तराधिकार की तैयारी को लेकर बहुत से सवाल हैं—और इनका उत्तर भी सत्ता के भीतर से कम और जनता के भीतर से ज्यादा निकलना है। यदि एक राष्ट्र अपने लोकतंत्र की रक्षा करना चाहता है, तो उसे व्यक्तिवाद से बाहर निकल कर संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर भरोसा करना होगा। वरना सवाल फिर यही रह जाएगा: 'क्या हम नायक चुन रहे हैं, या केवल नया मुखौटा? 


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