इसी हिंसा को न्यायोचित ठहराने के लिए मुसलमानों के हिंसक होने का विमर्श संघ को अमेरिकी साम्राज्यवाद के करीब ला खड़ा करता है. तेल की लड़ाई में पूरे अरब जगत को तबाह करने की साज़िश सबके सामने हैं. इस्लाम को वहाबी फिरके से ठीक उसी तरह ढक दिया गया जैसे हिंदु धर्म को उग्र हिंसक हिदुत्व में राजनीतिक लाभ के लिए बदला जा रहा है. फर्क सिर्फ धर्म का है. दोनों तरफ धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल है. इसीलिए मुस्लिम कलाकार भी हमेशा से संघी सोच के लोगों के निशाने पर रहे है.
मुस्लिम कलाकारों के निशाने पर होने के पीछे सिर्फ मुसलमानों के प्रति घृणा भर नहीं है. संघ की बॉलीवुड से नाराज़गी की वजह –गंगा-जमुनी तहजीब के प्रचार से है. उसे हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई का संदेश नहीं चाहिए, उसे हर मुसलमान आतंकी चाहिए, य़ा फिर दलितों की तरह शरणागत चाहिए.
हैरानी की बात ये है कि बॉलीवुड में हिंदू आतंकी को लेकर कोई सिनेमा ना बना है, ना बन सकेगा, मजाल है कि कोई…
लेकिन ऐसा क्यों है..क्योंकि सिनेमा दुनिया भर में समाज का आईना होता है, तो सिनेमा समाज को बदलने का काम भी करता है.
वहीं प्यार और भाईचारे की बात से समाज में धर्म पर आधारित बंटवारा करना मुश्किल है
आजादी के पहले से वामपंथी विचारों से प्रेरित नाट्य संस्था इप्टा ने मानवीय मूल्य, गरीबी और दमित समाज के दर्द को नाटकों और सिल्वर स्क्रीन पर लाने की कोशिश की. बहुत से उदार बुद्विजीवियों ने भी पहल की, लेखन, निर्देशन के माध्यम से आजाद भारत के सपने और आदर्शवाद को अपनी फिल्मों की विषयवस्तु बनाया. लेकिन गांधी हत्या के कुछ साल तक बिलों में दुबका घृणा के सर्प ने सिर उठाना शरू कर दिया. समाजसेवा का मुखौटा लगाया गया. मकौपरस्त राजनीतिज्ञों ने कट्टर हिंदू वोटों के लालच में कुछ कांग्रेसिय़ों और समाजवादियों ने संघ की मिजाजपुरसी शुरू भी कर दी. संघ ने अपनी छवि बदलने में इनका इस्तेमाल किया तो अपने कनफुसिया प्रचार से हिंदू-मुस्लिम से जुड़े मामलों पर धर्मनिरपेक्षता को मुस्लिमपरस्ती के दूसरे नाम के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया.
ऐसे में संघ इप्टा से प्रेरणा ले कर अपने विचार के अनुरूप सिनेमा तो चाहता ही है, साथ ही वो भाईचारे के सिनेमा को बंद भी करना चाहता है. संघ एक साथ दो मोर्चों पर काम करता है. ऐसे में बॉलीवुड से जुड़े मुस्लिम कलाकार, निर्देशक, संगीतकार, गीतकार,और सबसे ज्यादा सुरपस्टार उसके निशाने पर रहे. संघ को ये स्वीकार करने में कभी कोई गुरेज नहीं रहा कि वो किस तरह का सिनेमा चाहते हैं. जाहिर है कि उन्हें तथाकथित भारतीय परंपराओं, विश्वासों, रीति-रिवाजों के अनुरूप सिनेमा चाहिए, जो भारतीय मूल्यों में आस्था और श्रद्धा को चोट ना पहुंचाए. कौन से होंगे वो मूल्य, ये समय समय पर उनके अपने राजनीतिक हितों से तय होता रहेगा. कभी पद्मावत पर करणी सेना खड़ी हो जाएगी, तो कभी कभी जानबूझ कर भी विवाद खड़ा कर व्यावसायिक लाभ लिया जाता रहा है.
यहां एक और मार्के की बात है- मोदी के नेतृत्व में गुजरात प्रधान राजनीति अपने एजेंडे पर गुपचुप काम पर जुटी है.देश के ज्यादातर बड़े ठेके, प्राइवेट-पब्लिक-पार्टनरशिप वगैरह-वगैरह गुजराती व्यवसायियों को दिया जा रहा है. कहा जा रहा है कि देश की आर्थिक राजधानी को मुंबई से अहमदाबाद ले जाने के लिए बुलेट ट्रेन लाई जा रही है. वहीं बॉलीवुड को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगीजी हिंदवुड में बदलने में जुट गए हैं.
2014 से फिल्म जगत में दक्षिणपंथी दखल आते ही आज पूरा बॉलीवुड दो फांक में बंटा नज़र आ रहा है. हालांकि संजय गांधी ने भी बॉलीवुड में दखल बनाने की कोशिश की थी, लेकिन वो नाकाम रहे थे. लेकिन अब भाई-भतीजावाद के नाम पर सुशांत सिंह राजपूत के मामले को इसी मकसद से उठाया गया. रातोंरात एनसीबी को बॉलीवुड में नशा विरोधी अभियान चलाने के लिए एनआईए की तरह महत्त्वपूर्ण बना दिया गया. महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार को निशाने पर लिया गया तो उधर चुनाव से पहले बिहार में विशेष तौर पर अपर कास्ट और वैसे पूरे बिहार की सहानुभूति और वोटों के लिए खूब उछाला गया. इसमें दक्षिणपंथी मीडिया ने पूरी सक्रियता के साथ कार्यकर्ता की भूमिका निभाई. कंगना रानावत, विवेक रंजन अग्निहोत्री, परेश रावल, अनुपम खैर खुल कर अपने धार्मिक-राजनैतिक विचारों को लेकर सामने आ गए और धीरे-धीरे जमात बढ़ती गई.
तकलीफ की बात ये है कि इस जमात के कुछ लोग बार-बार दौड़ कर अपने आकाओं के पास पहुंच जाते हैं. फिर बुर्का पहन कर केंद्र सरकार को कंगना का साथ देना पड़ रहा है तो कभी अर्नब को हौसला देना पड़ रहा है. ऐसे में देखिए बिहार चुनाव को लेकर बीजेपी को तैयारी करने का मौका ही नहीं मिला.तेजस्वी महफिल लूट ले गये. बिहार की राजनीति में किसी को अनपढ़-अशिक्षित बताने से बहुत फर्क नहीं पड़ता. अब तो कोरोना की मुफ्त वैक्सीन का लालच भी काम नहीं कर रहा. क्योंकि बीजेपी नेता, राजीव प्रताप रूढ़ी, शाहनवाज और उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी खुद कोरोना पॉजीटिव हो गए हैं. नीतीश के साथ-साथ लोग अब बीजेपी के भी खारिज होने की नौबत आ गई है.
खैर, आखिर फिल्मी दुनिया में भी बंटवारे का काम पूरा हो गया..भाई-भतीजावाद के नाम पर ये देश को बताने की कोशिश की जा रही है कि बॉलीवुड पर मुसलमानों का कब्ज़ा है. और इनके पीछे दुबई से दाऊद इब्राहीम है. दाऊद का हौवा दिखा कर बताया जा रहा है कि कोई हिंदू सुपरस्टार क्यों नहीं बन पाता. उस वक्त आपके दिमाग में अक्षय कुमार, अजय देवगन जैसे कामयाब अभिनेताओं का नाम नहीं आता. धीरे धीरे आपको बोला जाने वाला हर झूठ सच से बड़ा होने लगता है.
ये सच्चाई है कि टीआरपी के लिए न्यूज़ चैनल बॉलीवुड के ग्लैमर से जुड़ी स्टोरी तलाशते हैं. और अगर इसमें क्राइम की छौंक लग जाए तो सोने में सुहागा. लेकिन ये मुहिम किन्हीं न्यूज़ चैनलों की अपनी पसंद-नापसंद का मामला भर नहीं है.. ये भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सोची समझी सियासत का एक हिस्सा है-
सोशल मीडिया के जरिए देश को दो भागों में बांट दिया गया- व्हॉट्सएप के जरिए कांग्रेस, नेहरू, महात्मा गांधी, आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं को बदनाम करने की मुहिम छेड़ी गई, नेहरू बनाम पटेल, गांधी बनाम सुभाष चंद्र बोस की झूठी-सच्ची मिसालें प्रचारित की जा रही हैं. भगत सिंह,चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल की आड़ में उदारवादी और अहिंसक स्वाधीनता आंदोलन को छोटा दिखाया गया. एक बात जो किसी के समझ नहीं आई, वो थी कि आजादी की लड़ाई में संघ की भूमिका को लेकर की सवाल ना पूछे. बल्कि यूं कहा जाए तो ज्यादा उपयुक्त रहेगा कि आजादी के परवानों पर कालिख पोत कर अपने चेहरे गोरे साबित करने की साजिश में जुटा हुआ है संघ. अमित शाह ने बीजेपी कार्यकर्ताओं से कहा था कि अगर उनके बाप-दादे ने आजादी के लड़ाई में हिस्सा लिया हो तो वे सबूत लाऐं, हम उन्हें प्रचारित करेंगे, लेकिन कुछ हुआ क्या ? हिंदू-बनाम मुसलमान में हमें उलझा दिया गया. सावरकर-हेडगेवार-श्यामा प्रसाद मुखर्जी-दीनदयाल को लेकर जागरूकता तब बढ़ाई जाएगी जब लोग स्थापित आदर्शपुरुषों को महत्व देना भूल जाएंगे.