आखिर क्यों है दक्षिणपंथ के निशाने पर बॉलीवुड ...

जलज वर्मा

 |   24 Oct 2020 |   98
Culttoday

और आखिरकार बॉलीवुड ने अदालत के दरवाज़े खटखटा दिए.  बॉलीवुड के चार संगठनों और 34 हस्तियों ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर बॉलीवुड को लेकर मीडिया में चल रहे दुष्प्रचार को रोकने की मांग की है. इन्होंने देश के दो बड़े राष्ट्रवादी न्यूज़ चैनलों और उसके संपादकीय कर्ता-धर्ताओं के नाम लेते हुए बॉलीवुड के खिलाफ चलाए जा रहे उनके कुप्रचार अभियान पर रोक लगाने की मांग की है. आखिर बॉलीवुड को क्यों लगता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार उनके खिलाफ है. और मोदी सरकार को क्यों लग रहा है कि बॉलीवुड उनके खिलाफ है

         ये मामला आज का नहीं, पुराना है…पहले देखें कि बॉलीवुड की दिक्कत क्या है.बॉलीवुड में कलाकार से लेकर टेक्नीशियन्स तक बगैर किसी मज़हबी भेदभाव के आपस में मिल कर काम करते रहते हैं. इंडस्ट्री के लिए ज़रूरी भी है कि वो ऐसी फिल्म बनाए जिसे हर धर्म,लिंग, जाति, आयु वर्ग के लोग एक साथ बैठ कर फिल्म देखें औऱ बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी मिल सके. इसीलिए रहमान चाचा या कोई एक मुसलमान चरित्र अभिनेता की तरह कहानियों में फिल्मों की शुरुआत से देखा जाता रहा है. फिल्म काबुलीवाला से लेकर हाल की फिल्मों तक कहानियों में मिलीजुली संस्कृति और गंगा-जमुनी तहज़ीब को तवज्जो दी जाती रही है. लेकिन जब देश की राजनीति और समाज दो ध्रुव में बंटा जा रहा हो तो कौमी एकता और भाईचारे की बात वैसी विवादास्पद हो जाती है जैसे टाटा के तनिष्क ब्रांड के विज्ञापन को लेकर विवाद खड़ा हो गया है. 

सांप्रदायिक सद्भाव की बात बॉलीवुड की व्यवसायिक मजबूरी भी है क्योंकि धर्म के आधार पर बंटवारे से दर्शकों की तादाद में कमी आती है. इसीलिए बॉलीवुड की शुरुआत से ही इंडस्ट्री में मेलजोल की संस्कृति विकसित हुई. इप्टा के प्रभाव ने बरसों तक बॉलीवुड में दरार नहीं आने दी. यहां तक कि निशान-ए-पाकिस्तान पाने के बावजूद दिलीप कुमार से शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की निकटता बनी रही.  हिदुत्व की बात करने वाली शिवसेना ने भी बॉलीवुड को इस सोच से अलग रख कर देखा. बल्कि बाल ठाकरे की दिलीप कुमार से दोस्ती खासी मशहूर रही.

लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच शिवसेना से अलग है. संघ अपने वैचारिक धरातल के विस्तार के लिए मीडिया पर कब्जे को ज़रूरी समझता है. अगर धर्म के आधार पर बंटवारा नहीं तो उनके वोटबैंक का विस्तार भी संभव नहीं है. संघ की प्रचारतंत्र को लेकर समझ बहुत विकसित रही है. क्योंकि उसके पास देश और  स्वाधीनता के लिए त्याग-तपस्या और योगदान की कोई खास विरासत नहीं है. बल्कि  संघ के खिलाफ आजादी की लड़ाई में आंदोलनरत अखिल भारतीय कांग्रेस के विरुद्ध और अंग्रेज सरकार के पक्ष में खड़े होने की तमाम मिसाल दी जाती रही हैं. महात्मा की हत्या के बाद से संघ को अपने वजूद के लिए जरूरी था कि वो विरोधी राजनीतिक विचारधारा और उसके समर्थकों की कमियों-खामियों को उजागर कर अपनी महत्ता स्थापित करे. पिछले करीब सौ सालों से नकारात्मक प्रचार ही संघ की विशेषता रही है. 

मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री हमेशा दक्षिणपंथियों की आखों में खटकती रही है. माफिया डॉन दाऊद इब्राहीम के ब़ॉलीवुड पर वर्चस्व को लेकर पूरे बॉलीवुड को निशाने पर लिया जाता रहा है. दुबई में माफिया डॉन की पार्टियों में अभिनेताओं, निर्माता-निर्देशकों की शिरकत को ले कर खूब सुर्खियां बनती रही है. इसके साथ ही हिंदू-मुसलमान और अपराध जगत से जुड़े नेरेटिव शुरुआत से गढ़े गए- खान ही क्यों होते हैं सुपरस्टार, इनकी कामयाबी के पीछे  है दाऊद..दुबई से दाऊद का साम्राज्य ही चलाता है बॉलीवुड- इसीलिए कोई हिंदू सुपरस्टार नहीं बन पाता वगैरह-वगैरह. लेकिन  ऐसा कहने वाले अमिताभ, धर्मेद्र, राजेश खन्ना, से लेकर अक्षय कुमार, अजय देवगन तक की कामयाबी भूल जाते हैं.

हालांकि धीरे-धीरे बॉलीवुड की हर हरकत के पीछे दुबई और दाऊद के हाथ की कयासबाज़ी और खबरें कम होती गईं. लेकिन बहुत से नाकाम निर्देशक, निर्माता, अभिनेता-अभिनेत्री, संगीतज्ञ और गायकों ने इस नेरेटिव को ज़िंदा रखा और अपनी नाकामी का ठीकरा इसी नेक्सस पर फोड़ा. इसे संघ ने अपने मुस्लिमों के खिलाफ घृणा प्रचार के लिए एक विमर्श में तब्दील कर दिया. बल्कि सच्चाई ये है कि संघ के इस विमर्श को नकारा-नाकाम लोगों ने अपनी कमिया छिपाने के लिए ओढ़ लिया.

हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि समाज के हर वर्ग की तरह बॉलीवुड में भी कड़ी व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के बावजूद सबकी अपनी राजनीतिक सोच रही है. लिहाज़ा बॉलीवुड सेलिब्रिटीज़ अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टिय़ों के लिए प्रचार करते रहे हैं. राजनीतिक दल भी भीड़ जुटाने के लिए इनकी मोहताज़ रही हैं. और कमज़ोर सीट पर हीरो-हिरोइन को चुनाव में उतारने का भी खेल इसीलिए होता रहा. लेकिन सिर्फ ये वजह नहीं है. इप्टा ने रंगमंच और बॉलीवुड को देश में बदलाव के माध्यम के रूप में देखा. बहुत से रंगधर्मी-कलाधर्मी इसी मकसद से बॉलीवुड में आए. साथ ही समानांतर सिनेमा की शुरुआत हुई. दक्षिणपंथ को भी सिनेमा का महत्व महसूस हुआ. हालांकि धार्मिक फिल्में देश में धर्म के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने का काम करती रहीं. लेकिन राजनीतिक उद्देश्य से फिल्म बनाने और बनवाने की दिशा में अब जा कर संघ और बीजेपी ने सक्रिय रूप से कदम बढ़ाए हैं. 

नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल से ही फिल्मी सेलिब्रिटीज़ को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. अमिताभ बच्चन गुजरात सरकार के विज्ञापनों के साथ देश के शासकीय विज्ञापनों में सरकार के एंबेस्डर के रूप में दिखाई दिए. विवेक ओबेरॉय, अनुपम खैर, कंगना रानावत,विवेक अग्निहोत्री, परेश रावल समेत बहुत से नामचीन कलाकार प्रधानमंत्री मोदी से सीधे जुड़ने लगे. करीब बॉलीवुड से जुड़े करीब 900 लोगों ने एक मुहिम छेड़ कर मजबूर सरकार के बजाय मजबूत सरकार की अपील की. तो दूसरी तरफ करीब 600 हस्तियों ने धर्म निरपेक्ष पार्टी को वोट देने की अपील कर डाली. संघ और बीजेपी ने बॉलीवुड में ध्रुवीकरण के बीज डाल दिए. संघ और बीजेपी ने दक्षिणपंथी विचार को मजबूत करने के लिए खास तरीके की राजनीतिक फिल्में बनवाना भी शुरू कर दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बनी फिल्म इस अक्टूबर में दोबारा रिलीज़ करने की योजना बनाई गई है. तो राजनीतिक उद्देश्य से उरी: सर्जिकल स्ट्राइक,ताशकंद फाइल्स, एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर, टॉयलेट: एक प्रेम कथा जैसी फिल्में. 

 ये सब एक दिन की बात नहीं, सत्तर साल दिन-रात योजाबद्ध तरीके से भारत के लोकतंत्र को हाईजैक करने की तैयारी संघ समर्थित संस्थाओं ने की है. इन संस्थाओं ने चिंतक, प्रशासक और रणनीतिकार भी तैयार किए और उन्हें देश में हर महत्वपूर्ण जगहों में स्थापित होने में मदद की. कांग्रेस या दूसरी पार्टियों के सेकुलरिज्म पर संदेह करने वाले, लेकिन संघ को नापसंद करने वाले पत्रकारों, बुद्धिजीवियों को भी आमंत्रित कर उनमें सत्कार से संघ के प्रति स्वीकार भाव पैदा किया जाता है. जो वैचारिक धरातल पर विरोध करते हैं उनका गौरी लंकेश, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी जैसा हश्र होता है. सवाल पूछा जा रहा है कि उद्धव ठाकरे वाली महाराष्ट्र सरकार ने ऐलान के बावजूद जांच से हाथ पीछे क्यों खींच लिए. यहां ये बताना ज़रूरी नहीं कि इन अपराधों को संस्थागत तरीके से अंजाम दिया गया हो, लेकिन वैचारिक प्रचार से उत्तेजित और हिंसक बन जाने वाले नाथूराम गोडसे जैसे लोग हिंसक कदम उठा कर किस विचारधारा को फायदा पहुंचाते हैं, ये तो किसी से छिपा नहीं है. इसीलिए आज के दौर में अहिंसा को कायरता के रूप में प्रदर्शित किया जाता है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भीड़ की हिंसा के मामले बहुत तेज़ी से बढ़े. हो सकता है कि इस तरह के मामले पहले भी होते रहे हों लेकिन उद्देश्यपूर्ण तरीका 2014 के बाद की घटनाओं से जगजाहिर हैं. दरअसल, अपने पहले कार्यकाल में मोदी सरकार ने बहुत सोचे समझे तरीके से देश का माहौल बदला. गो रक्षकों को खुल कर आतंक फैलाने की आजादी मिल गई. लव जिहाद रोकने के नाम पर पुलिस और धर्मरक्षकों को मनमानी की आजादी, गोमांस के नाम पर घर में घुसने, दुकानें और गाड़ियों पर हमले की आजादी, लगातार ऐसे उदाहरण सामने आए, मोदीजी को कहना पड़ा-दलित को मत मारो, मारना है तो मुझे मारो. यानि हिंसा से परहेज नहीं है, लेकिन पीएम मिन्नत कर रहा है कि मुझे मार लो, इन्हें नहीं. संदेश साफ था- वैदिकी हिंसा, हिंसा ना भवति.

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इसी हिंसा को न्यायोचित ठहराने के लिए मुसलमानों के हिंसक होने का विमर्श संघ को अमेरिकी साम्राज्यवाद के करीब ला खड़ा करता है. तेल की लड़ाई में पूरे अरब जगत को तबाह करने की साज़िश सबके सामने हैं. इस्लाम को वहाबी फिरके से ठीक उसी तरह ढक दिया गया जैसे हिंदु धर्म को उग्र हिंसक हिदुत्व में राजनीतिक लाभ के लिए बदला जा रहा है. फर्क सिर्फ धर्म का है. दोनों तरफ धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल है. इसीलिए मुस्लिम कलाकार भी हमेशा से संघी सोच के लोगों के निशाने पर रहे है.

मुस्लिम कलाकारों के निशाने पर होने के पीछे सिर्फ मुसलमानों के प्रति घृणा भर नहीं है. संघ की बॉलीवुड से नाराज़गी की वजह –गंगा-जमुनी तहजीब के प्रचार से है. उसे हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई का संदेश नहीं चाहिए, उसे हर मुसलमान आतंकी चाहिए, य़ा फिर दलितों की तरह शरणागत चाहिए.

हैरानी की बात ये है कि बॉलीवुड में हिंदू आतंकी को लेकर कोई सिनेमा ना बना है, ना बन सकेगा, मजाल है कि कोई…

लेकिन ऐसा क्यों है..क्योंकि सिनेमा दुनिया भर में समाज का आईना होता है, तो सिनेमा समाज को बदलने का काम भी करता है.

वहीं प्यार और भाईचारे की बात से समाज में धर्म पर आधारित बंटवारा करना मुश्किल है

आजादी के पहले से वामपंथी विचारों से प्रेरित नाट्य संस्था इप्टा ने मानवीय मूल्य, गरीबी और दमित समाज के दर्द को नाटकों और सिल्वर स्क्रीन पर लाने की कोशिश की. बहुत से उदार बुद्विजीवियों ने भी पहल की, लेखन, निर्देशन के माध्यम से आजाद भारत के सपने और आदर्शवाद को अपनी फिल्मों की विषयवस्तु बनाया. लेकिन गांधी हत्या के कुछ साल तक बिलों में दुबका घृणा के सर्प ने सिर उठाना शरू कर दिया. समाजसेवा का मुखौटा लगाया गया. मकौपरस्त राजनीतिज्ञों ने कट्टर हिंदू वोटों के लालच में कुछ कांग्रेसिय़ों और समाजवादियों ने संघ की मिजाजपुरसी शुरू भी कर दी. संघ ने अपनी छवि बदलने में इनका इस्तेमाल किया तो अपने कनफुसिया प्रचार से हिंदू-मुस्लिम से जुड़े मामलों पर धर्मनिरपेक्षता को मुस्लिमपरस्ती के दूसरे नाम के रूप  में प्रचारित करना शुरू कर दिया. 

ऐसे में संघ इप्टा से प्रेरणा ले कर अपने विचार के अनुरूप सिनेमा तो चाहता ही है, साथ ही वो भाईचारे के सिनेमा को बंद भी करना चाहता है. संघ एक साथ दो मोर्चों पर काम करता है. ऐसे में बॉलीवुड से जुड़े मुस्लिम कलाकार, निर्देशक, संगीतकार, गीतकार,और सबसे ज्यादा सुरपस्टार उसके निशाने पर रहे. संघ को ये स्वीकार करने में कभी कोई गुरेज नहीं रहा कि वो किस तरह का सिनेमा चाहते हैं. जाहिर है कि उन्हें तथाकथित भारतीय परंपराओं, विश्वासों, रीति-रिवाजों के अनुरूप सिनेमा चाहिए, जो भारतीय मूल्यों में आस्था और श्रद्धा को चोट ना पहुंचाए. कौन से होंगे वो मूल्य, ये समय समय पर उनके अपने राजनीतिक हितों से तय होता रहेगा. कभी पद्मावत पर करणी सेना खड़ी हो जाएगी, तो कभी कभी जानबूझ कर भी विवाद खड़ा कर व्यावसायिक लाभ लिया जाता रहा है.

यहां एक और मार्के की बात है- मोदी के नेतृत्व में गुजरात प्रधान राजनीति अपने एजेंडे पर गुपचुप काम पर जुटी है.देश के ज्यादातर बड़े ठेके, प्राइवेट-पब्लिक-पार्टनरशिप वगैरह-वगैरह गुजराती व्यवसायियों को दिया जा रहा है. कहा जा रहा है कि  देश की आर्थिक राजधानी को मुंबई से अहमदाबाद ले जाने के लिए बुलेट ट्रेन लाई जा रही है. वहीं बॉलीवुड को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगीजी हिंदवुड में बदलने में जुट गए हैं.

2014 से फिल्म जगत में दक्षिणपंथी दखल आते ही आज पूरा बॉलीवुड दो फांक में बंटा नज़र आ रहा है. हालांकि संजय गांधी ने भी बॉलीवुड में दखल बनाने की कोशिश की थी, लेकिन वो नाकाम रहे थे. लेकिन अब भाई-भतीजावाद के नाम पर सुशांत सिंह राजपूत के मामले को इसी मकसद से उठाया गया. रातोंरात एनसीबी को बॉलीवुड में नशा विरोधी अभियान चलाने के लिए एनआईए की तरह महत्त्वपूर्ण बना दिया गया. महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार को निशाने पर लिया गया तो उधर चुनाव से पहले बिहार में विशेष तौर पर अपर कास्ट और वैसे पूरे बिहार की सहानुभूति और वोटों के लिए खूब उछाला गया. इसमें दक्षिणपंथी मीडिया ने पूरी सक्रियता के साथ कार्यकर्ता की भूमिका निभाई. कंगना रानावत, विवेक रंजन अग्निहोत्री, परेश रावल, अनुपम खैर खुल कर अपने धार्मिक-राजनैतिक विचारों को लेकर सामने आ गए और धीरे-धीरे जमात बढ़ती गई.

तकलीफ की बात ये है कि इस जमात के कुछ लोग बार-बार दौड़ कर अपने आकाओं के पास पहुंच जाते हैं. फिर बुर्का पहन कर केंद्र सरकार को कंगना का साथ देना पड़ रहा है तो कभी अर्नब को हौसला देना पड़ रहा है. ऐसे में देखिए बिहार चुनाव को लेकर बीजेपी को तैयारी करने का मौका ही नहीं मिला.तेजस्वी महफिल लूट ले गये. बिहार की राजनीति में किसी को अनपढ़-अशिक्षित बताने से बहुत फर्क नहीं पड़ता. अब तो कोरोना की मुफ्त वैक्सीन का लालच भी काम नहीं कर रहा. क्योंकि बीजेपी नेता, राजीव प्रताप रूढ़ी, शाहनवाज और उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी खुद कोरोना पॉजीटिव हो गए हैं. नीतीश के साथ-साथ लोग अब बीजेपी के भी खारिज होने की नौबत आ गई है.

 खैर, आखिर फिल्मी दुनिया में भी बंटवारे का काम पूरा हो गया..भाई-भतीजावाद के नाम पर ये देश को बताने की कोशिश की जा रही है कि बॉलीवुड पर मुसलमानों का कब्ज़ा है. और इनके पीछे दुबई से दाऊद इब्राहीम है. दाऊद का हौवा दिखा कर बताया जा रहा है कि कोई हिंदू सुपरस्टार क्यों नहीं बन पाता. उस वक्त आपके दिमाग में अक्षय कुमार, अजय देवगन जैसे कामयाब अभिनेताओं का नाम नहीं आता. धीरे धीरे आपको बोला जाने वाला हर झूठ सच से बड़ा होने लगता है. 

ये सच्चाई है कि टीआरपी के लिए न्यूज़ चैनल बॉलीवुड के ग्लैमर से जुड़ी स्टोरी तलाशते हैं. और अगर इसमें क्राइम की छौंक लग जाए तो सोने में सुहागा. लेकिन ये मुहिम किन्हीं न्यूज़ चैनलों की अपनी पसंद-नापसंद का मामला भर नहीं है.. ये भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सोची समझी सियासत का एक हिस्सा है-

सोशल मीडिया के जरिए देश को दो भागों में बांट दिया गया- व्हॉट्सएप के जरिए कांग्रेस, नेहरू, महात्मा गांधी, आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं को बदनाम करने की मुहिम छेड़ी गई, नेहरू बनाम पटेल, गांधी बनाम सुभाष चंद्र बोस की झूठी-सच्ची मिसालें प्रचारित की जा रही हैं. भगत सिंह,चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल की आड़ में उदारवादी और अहिंसक स्वाधीनता आंदोलन को छोटा दिखाया गया. एक बात जो किसी के समझ नहीं आई, वो थी कि आजादी की लड़ाई में संघ की भूमिका को लेकर की सवाल ना पूछे. बल्कि यूं कहा जाए तो ज्यादा उपयुक्त रहेगा कि आजादी के परवानों पर कालिख पोत कर अपने चेहरे गोरे साबित करने की साजिश में जुटा हुआ है संघ. अमित शाह ने बीजेपी कार्यकर्ताओं से कहा था कि अगर उनके बाप-दादे ने आजादी के लड़ाई में हिस्सा लिया हो तो वे सबूत लाऐं, हम उन्हें प्रचारित करेंगे, लेकिन कुछ हुआ क्या ? हिंदू-बनाम मुसलमान में हमें उलझा दिया गया. सावरकर-हेडगेवार-श्यामा प्रसाद मुखर्जी-दीनदयाल को लेकर जागरूकता तब बढ़ाई जाएगी जब लोग स्थापित आदर्शपुरुषों को महत्व देना भूल जाएंगे.

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