मोदी मॉडलः पड़ोसी दूर, सत्ता पास
संदीप कुमार
| 01 Aug 2025 |
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को ऊपर से नीचे तक बदलने का वादा किया था। लेकिन उनके पहले कार्यकाल के अंत में उनके रिकॉर्ड को कठोरता से आंका गया। द इकोनॉमिस्ट के अनुसार, 2019 में वे अपनी कई सुधारों में विफल रहे। पांच और साल बीते और हिंदू राष्ट्रवादी मोदी, जो अब तीसरे कार्यकाल के लिए फिर से निर्वाचित हो चुके हैं, अब 2030 तक भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और 2047 तक - भारत की स्वतंत्रता की शताब्दी - एक विकसित देश बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। सत्ता में 11 साल बाद, उनका रिकॉर्ड एक अर्थव्यवस्था को अभी भी निर्माणाधीन और एक नाजुक लोकतंत्र को दर्शाता है।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार, 2022 तक भारत ब्रिटेन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया था। 2025 में भारत चौथे स्थान पर पहुंच चुका है, और अब विश्व बैंक, आईएमएफ और एस एंड पी जैसे संस्थानों का अनुमान है कि 2027 तक भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। वित्त वर्ष 2023–24 में भारत की वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 7.8% रही। यह वृद्धि मुख्यतः सार्वजनिक निवेश, सेवा क्षेत्र, बुनियादी ढांचा, और पेट्रोलियम-खनन गतिविधियों से संचालित है।
हालांकि, यह तेज़ विकास दर हर साल आने वाले लगभग 1 करोड़ नए श्रम बल के लिए पर्याप्त रोजगार नहीं सृजित कर पा रही है। एक अविकसित औद्योगिक आधार के कारण, भारत गंभीर रोजगार संकट का सामना कर रहा है, विशेषकर युवाओं में — 2024 तक 42% युवा स्नातक बेरोजगार हैं।
प्रति व्यक्ति जीडीपी आज भी भारत की असमानता को उजागर करती है। लगभग $2,730 (₹2.3 लाख) प्रति वर्ष, यह आंकड़ा भारत को विश्व रैंकिंग में लगभग 127वें स्थान पर रखता है। मोदी के अधिकतर आर्थिक सुधार — डिजिटल इंडिया, कर सुधार, जीएसटी — पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नीतिगत ढांचे से प्रेरित रहे हैं। हालांकि मोदी ने उन्हें लागू काफी निर्णायक और कभी-कभी कठोर तरीकों से किया, जैसे 2017 में जीएसटी लागू करना, जो 2000 के दशक में कल्पित हुआ था और जिसे पूर्ण रूप लेने में 17 साल लग गए।
बुनियादी ढांचे और डिजिटल भुगतान का विस्तार
डिजिटलीकरण संभवतः मोदी शासन की सबसे प्रमुख उपलब्धि है। यूपीआई (यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस) के माध्यम से, 2023 में भारत ने 100 बिलियन से अधिक लेन-देन दर्ज किए, जिनका कुल मूल्य ₹180 लाख करोड़ (€2,000 बिलियन से अधिक) रहा। भारत अब दुनिया का सबसे बड़ा डिजिटल भुगतान बाजार बन चुका है।
इसी तरह, बुनियादी ढांचे का विकास भी मोदी की विकास रणनीति की रीढ़ रहा है। सड़कों, पुलों, जल परियोजनाओं और सौर ऊर्जा संयंत्रों के निर्माण ने सेवा क्षेत्रों को प्रोत्साहित किया है। 2014 में भारत में 74 परिचालित हवाई अड्डे थे, जो अब बढ़कर 148 से अधिक हो चुके हैं। तेज़ और आधुनिक वंदे भारत ट्रेनों का जाल भी शुरू हो चुका है, हालांकि सामान्य ट्रेनें अब भी भीड़भरी और सुस्त हैं।
परंतु इस विकास की कीमत भी है: आईएमएफ के अनुसार, भारत का सार्वजनिक ऋण अब जीडीपी का 81.9% है (2024)। दूसरी ओर, नई दिल्ली जैसे महानगरों में अब भी पीने के पानी की गंभीर कमी है। कचरा प्रबंधन अब भी अराजक है और बिजली ग्रिड मांग के अनुसार आपूर्ति नहीं कर पाते।
क्रोनी कैपिटलिज्म और आर्थिक असमानता
आज के भारत में क्रोनी कैपिटलिज्म दो नामों से जुड़ गया है: गौतम अडानी और मुकेश अंबानी। एक कारोबारी साम्राज्य के उत्तराधिकारी और दूसरा स्व-निर्मित अरबपति, दोनों ने मोदी युग में अभूतपूर्व आर्थिक शक्ति अर्जित की है। वे अकेले नहीं हैं—टाटा, बिड़ला, और जेएसडब्ल्यू जैसे औद्योगिक समूह भी तेज़ी से ताकतवर बने हैं।
2024 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 20 सबसे बड़े कॉरपोरेट समूह अब देश के कॉरपोरेट मुनाफे का 81% से अधिक हिस्सा उत्पन्न करते हैं, जो 2014 की तुलना में लगभग दोगुना है।
पर्यावरण, इस आर्थिक चढ़ाई का सबसे बड़ा 'अदृश्य नुकसान' रहा है। 2070 तक नेट-ज़ीरो कार्बन लक्ष्य तय किया गया है, लेकिन वायु गुणवत्ता और तापमान की दृष्टि से भारत पहले ही 'जलवायु जोखिम क्षेत्र' में प्रवेश कर चुका है।
भारत की वैश्विक छवि और राजनयिक दुविधाएं
मोदी युग में भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज की है। चंद्रयान-3 की सफलता, जी20 की मेज़बानी, और क्वाड तथा ब्रिक्स में भारत की भागीदारी — यह दर्शाते हैं कि भारत अब 'गिने जाने लायक शक्ति' बन चुका है।
हालांकि, विदेश नीति के दो काले धब्बे हैं:
• हिमालयी सीमाओं पर चीन की लगातार घुसपैठ (डोकलाम, गलवान और तवांग), जिसमें भारत की चुप्पी आलोचना का कारण बनी।
• और जून 2023 में कनाडा में एक सिख कार्यकर्ता की हत्या, जिसके पीछे भारतीय खुफिया एजेंसियों पर संदेह जताया गया। अमेरिका ने भी इस मामले में चिंता व्यक्त की है।
हिंदूकरण और लोकतंत्र का क्षरण
यदि मोदी युग को एक प्रतीक में समेटा जाए, तो वह होगा: केसरिया रंग — हिंदू पहचान का प्रतीक और बीजेपी की वैचारिक छाया। मोदी के 11 वर्षों में, भारत का धर्मनिरपेक्ष चरित्र क्षीण हुआ है और मुस्लिमों की स्थिति निचले दर्जे की नागरिकता जैसी हो चुकी है। अयोध्या में राम मंदिर, जिसे 2024 में भव्यता से उद्घाटित किया गया, भारत के धार्मिक पुनर्गठन का स्पष्ट प्रतीक बन गया है।
लोकतंत्र, यद्यपि नाम मात्र का बचा है। चुनाव तो होते हैं, पर मीडिया, न्यायपालिका, चुनाव आयोग और विरोधी दलों पर नियंत्रण अब आम बात हो गई है।
व्यक्तित्व पूजा और विचारहीनता
भारत की राष्ट्रीय राजनीति अब विचार नहीं, व्यक्तित्व आधारित बन गई है। जैसे द टेलीग्राफ में इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं- 'पिछले एक दशक में, पूरी पार्टी मशीनरी — और सरकारी संस्थानों का बड़ा हिस्सा — मोदी को एक महान, अलौकिक और अर्ध-दैवीय पुरुष के रूप में गढ़ने में व्यस्त रहा है। उनसे सवाल नहीं पूछे जा सकते, उन्हें केवल पूजा जाना चाहिए।'
विदेश नीतिः बहु-संरेखण की रणनीति
मोदी युग की विदेश नीति को 'बहु-संरेखण' की रणनीति के तहत संचालित किया गया है, जिसमें भारत ने रूस के साथ पारंपरिक संबंध, पश्चिमी साझेदारों के साथ रणनीतिक गठबंधन, और एशियाई पड़ोसियों के साथ भू-राजनीतिक संतुलन साधने की कोशिश की है। इस नीति के कुछ पहलू सफल रहे, लेकिन दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते लगातार चुनौतीपूर्ण बने रहे हैं।
बांग्लादेश: सामरिक सहयोग, लेकिन भरोसे की दरारें
मोदी सरकार के शुरुआती वर्षों में भारत-बांग्लादेश संबंधों में महत्वपूर्ण सुधार हुआ। भूमि सीमा समझौता को लागू करना एक ऐतिहासिक उपलब्धि था। दोनों देशों ने सुरक्षा, ऊर्जा और व्यापार के क्षेत्र में भागीदारी बढ़ाई।
हालांकि, एनआरसी और सीएए जैसे कदमों ने ढाका की चिंताओं को बढ़ाया। बांग्लादेश को आशंका है कि भारत में रहने वाले बंगाली मुस्लिमों को नागरिकता से वंचित कर, उनके देश की ओर धकेला जा सकता है। शेख हसीना सरकार, सार्वजनिक रूप से भारत का समर्थन करती रही है, लेकिन अब सामाजिक स्तर पर असंतोष बढ़ा है।
नेपाल: हिंदुत्व और संप्रभुता के बीच तनाव
नेपाल के साथ रिश्ते 2015 में भारत-नेपाल सीमा नाकेबंदी के बाद से तनावपूर्ण बने रहे। मोदी सरकार द्वारा नेपाल के संविधान में मधेसी समुदाय के प्रति भेदभाव की आलोचना और नाकेबंदी ने एंटी-इंडिया भावनाएं भड़काईं।
नेपाल ने इसके जवाब में चीन से करीबी बढ़ाई। कालापानी और लिपुलेख जैसे विवादित क्षेत्रों को नेपाल ने अपने नक्शे में शामिल किया, जिसे भारत ने खारिज किया। मोदी की 'राम सेतु डिप्लोमेसी' (जनकपुर और अयोध्या कनेक्शन) सांस्कृतिक सद्भाव की कोशिश रही, लेकिन राजनीतिक अविश्वास बना हुआ है।
भूटान: स्थिर लेकिन असंतुलन के संकेत
भूटान, भारत का सबसे करीबी पड़ोसी रहा है, और डोकलाम विवाद (2017) में भारत ने सीधे सैन्य हस्तक्षेप कर चीन को रोकने की कोशिश की। इससे भूटान को तत्काल सुरक्षा तो मिली, लेकिन भारत की सैन्य उपस्थिति और निर्णयों में दखल ने वहां के कुछ वर्गों में असहजता बढ़ाई है।
भूटान अब चीन से संवाद शुरू कर चुका है, और यदि वह राजनयिक संबंध स्थापित करता है, तो यह भारत के लिए एक रणनीतिक झटका होगा।
मालदीव: बदलते रिश्ते
मोदी के पहले कार्यकाल में मालदीव में चीन समर्थक अब्दुल्ला यामीन की सरकार के कारण रिश्ते बिगड़े। लेकिन 2018 में इब्राहिम सोलिह के सत्ता में आने के बाद भारत-मालदीव संबंध फिर सुधरे। भारत ने ढेरों विकास परियोजनाएं शुरू कीं।
हालांकि 2023 में यामीन समर्थक मोहम्मद मुज्जू के सत्ता में आने और 'India Out' अभियान को बढ़ावा देने से फिर रिश्तों में तनाव बढ़ गया है। भारत को सैन्य उपस्थिति हटानी पड़ी, जो कूटनीतिक हार मानी गई लेकिन फिर मोदी सरकार की कुटनीति यहां काम आई, रिश्ते पनः पूर्वत होने लगे और जुलाई के अंत में जब नरेंद्र मोदी मालदीव की यात्रा पर गये तो उन्हें वहां भी शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया।
श्रीलंका: आर्थिक संकट में तारणहार भारत
2022 के श्रीलंकाई आर्थिक संकट में भारत ने $4 बिलियन से अधिक की सहायता दी — ईंधन, खाद्य और दवाओं में। लेकिन चीनी ऋण जाल और हंबनटोटा पोर्ट जैसी परियोजनाएं श्रीलंका को चीन के प्रभाव में बनाए रखती हैं।
हालांकि, रानिल विक्रमसिंघे के नेतृत्व में भारत को रणनीतिक सहयोग मिला है, परंतु दीर्घकालीन रूप से श्रीलंका की आर्थिक और राजनयिक स्थिरता भारत के लिए अनिश्चित बनी हुई है।
अफगानिस्तान: तालिबान युग और भारत की उलझन
अमेरिका की वापसी और तालिबान की सत्ता में वापसी (2021) ने भारत को कूटनीतिक संकट में डाल दिया। भारत ने शुरू में तालिबान को मान्यता नहीं दी, लेकिन बाद में मानवीय सहायता के बहाने संपर्क बनाए।
भारत की अफगान नीति अस्पष्ट बनी हुई है। ईरान और रूस जैसे साझेदारों के साथ भारत का समन्वय सीमित है, और चीन अब अफगान भू-राजनीति में भारत से अधिक सक्रिय हैं।
पाकिस्तान: टकराव और ‘ऑपरेशन सिंदूर’
भारत और पाकिस्तान के रिश्ते 2016 के उरी हमले और 2019 के पुलवामा हमले के बाद लगातार तनावपूर्ण बने रहे हैं। बालाकोट एयर स्ट्राइक, आर्टिकल 370 हटाने और क्रॉस-बॉर्डर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कार्रवाइयों ने संबंधों को स्थाई रूप से जटिल बना दिया है।
इस वर्ष पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में 'ऑपरेशन सिंदूर' के बाद पाकिस्तान से कूटनीतिक संवाद लगभग स्थगित है और व्यापार, वीज़ा, सांस्कृतिक आदान-प्रदान — सब ठप हैं।
निष्कर्ष: सफलताएं और सीमाएं
मोदी सरकार की विदेश नीति ने भारत को वैश्विक मंच पर उभरती शक्ति के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है — QUAD, G20, I2U2, और ISA जैसे मंचों पर सक्रिय भूमिका इसका प्रमाण है। जयशंकर की आक्रामक और स्पष्टवाणी रणनीति कुछ वर्गों में सराही गई है।
लेकिन पड़ोसी देशों के संदर्भ में, भारत की नीति अधिकतर प्रतिक्रियाशील रही है, रणनीतिक नहीं। जहां भारत की सॉफ़्ट पावर और विकास सहायता ने कुछ लाभ दिलाए, वहीं अत्यधिक सैन्यकरण, असमर्थ संवाद और राष्ट्रवाद आधारित कूटनीति ने विश्वास को क्षीण किया है।
मोदी की विदेश नीति को 'इवेंट-ड्रिवन डिप्लोमेसी' के रूप में देखा जा रहा है — मंच, भव्यता, कैमरे के लिए तैयार विदेश दौरे — लेकिन दीर्घकालीन रणनीति, खासकर पड़ोसियों के साथ, अभी भी अधूरी है।