अंकों का खेल नहीं है राजनीति
जलज वर्मा
| 27 Jan 2017 |
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समाजवादी पार्टी पर कब्जा करने के बाद अखिलेश उत्साह से लबरेज हैं. चाचा शिवपाल को धूल चटाने के बाद वे विजयी मुद्रा में हैं. अपनी पसंदीदा उम्मीदवारों को टिकट देकर व शिवपाल के चहेतों का पत्ता साफ कर उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वे अब समाजवादी पार्टी के नये सुल्तान हैं. दूसरी बार सत्ता में आने को आतुर अखिलेश अन्य दलों पर मानसिक बढ़त हासिल करने के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतर गये हैं. यह गठबंधन सपा व कांग्रेस दोनों की मजबूरी है. इधर, अखिलेश की इज्जत दांव पर लगी थी तो दूसरी तरफ कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर की हवा यूपी में निकलने वाली थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत के सफल रणनीतिकार के रूप में चर्चित होने के बाद उनके खाते में बिहार में नीतीश कुमार की जीत की सफल रणनीति बनाने की कलगी लगी थी. हालांकि यूपी में उनकी सारी रणनीति विफल साबित हो रही थी. राहुल गांधी की किसान यात्रा जो खटिया लूट के लिए ज्यादा चर्चित हुई उससे भी कांग्रेस को कोई लाभ मिलता नहीं दिखा. इसके बाद चुनावी हवा बनाने के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को आयातीत कर यूपी में कांग्रेस का चेहरा बनाने की कवायद हुई लेकिन यह भी चूं चूं का मुरब्बा ही साबित हुआ. उधर, पिता व चाचा से बगावत कर पार्टी पर कब्जा करने के बाद यदि अखिलेश को हार का सामना करना पड़ता तो उनका राजनीतिक कैरियर ही समाप्त हो जाने का भय था. कुल मिलाकर गठबंधन दोनों की मजबूरी थी. इससे हो सकता है कि दोनों की नाक बच जाये. वैसे अखिलेश एकाधिक बार पहले भी कह चुके हैं कि कांग्रेस से गठबंधन होने पर वे तीन सौ से अधिक सीटों पर जीत दर्ज करेंगे. मगर क्या सपा-कांग्रेस का गठबंधन यूपी चुनाव में जीत की गारंटी मानी जा सकती है. पहले यह समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के बीच महागठबंधन होने वाला था लेकिन अजित सिंह से बात नहीं बन पाई और यह महागठबंधन सिरे नहीं चढ़ पाया. बहरहाल, कांग्रेस व सपा के बीच हुए गठबंधन से दोनों दलों के कार्यकर्ताओं में उत्साह का माहौल है. अखिलेश को दोबारा यूपी का सुल्तान बनाने के लिए राहुल गांधी व अखिलेश चौदह साझा रैलियों को एक साथ संबोधित करेंगे. खैर, अखिलेश की तीन सौ सीटों की जीत का दावा पिछले चुनावों में मिले वोट प्रतिशत के आधार पर है. हालांकि राजनीति अंकों का खेल नहीं है. जहां दो और दो चार ही होते हैं. राजनीति में दो और दो पांच भी हो सकते हैं और शून्य भी. बहरहाल, बात पिछले चुनावों में मिले कांग्रेस व समाजवादी पार्टी के वोट प्रतिशत पर हो रही थी. इस चुनाव में समाजवादी पार्टी को 29 प्रतिशत से कुछ अधिक और कांग्रेस को लगभग 11 प्रतिशत के करीब मिला था. इस तरह से देखा जाय तो दोनों के वोट प्रतिशत को मिला दिया जाय तो यह लगभग 40 प्रतिशत से भी कुछ ज्यादा ही होता है जबकि किसी भी पार्टी को सरकार बनाने के लिए बहुमत तीस-बत्तीस प्रतिशत पर ही मिल जाता है. अखिलेश की दूसरी बार की जीत का फार्मूला इसी अंकगशित पर आधारित है. अब ऐसे में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चालीस प्रतिशत वोटों की आस लगाए अगर अखिलेश दूसरी बार यूपी में सरकार बनाने का ख्वाब देख रहे हैं तो इसमें गलत तो कुछ भी नहीं है लेकिन उन्हें यह ख्याल रखना होगा कि सियासत की तिकड़म व गणित के सूत्र में जमीन आसमान का अंतर है. पिछले चुनाव से लेकर इस चुनाव तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है. यहां यह भी याद रखना चाहिए कि कांग्रेस के कई कद्दावर नेता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं. और हरेक का अपना एक समर्थक वर्ग होता है. इस लिहाज से देखें तो उन नेताओं के पार्टी छोड़कर चले जाने से उनका समर्थक वर्ग भी उनके साथ चला गया होगा. मसलन, यूपी कांग्रेस अध्यक्ष रहीं रीता बहुगुणा जोशी भाजपा में शामिल हो चुकी हैं. इसके अतिरिक्त कई और कद्दावर कांग्रेसी नेता पार्टी को बाय बाय बोल चुके हैं. ऐसे में मौजूदा समय में कांग्रेस के पास कितना वोट आधार बचा है यह सोचने वाली बात है. इसी तरह से समाजवादी परिवार में मचे कलह व विद्रोह का असर उनके वोट प्रतिशत पर नहीं पड़ेगा यह भी कोई नहीं कह सकता. क्या चाचा शिवपाल अपने अपमान का घूंट यूं ही पी जाएंगे. कुल मिलाकर मामला बेहद दिलचस्प है. देखना है कि यूपी की जनता कांग्रेस व सपा की सियासी गुणा भाग को सही करार दे अपनी किस्मत की बागडोर उन्हें सौंपती है या किसी और को. बहरहाल, इसके लिए 11 मार्च तक का इंतजार करना होगा.
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