श्रेय देना नहीं, सिर्फ लेना जानती है मोदी सरकार

जलज वर्मा

 |  04 May 2020 |   33
Culttoday

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का नारा है – ‘सबका साथ, सबका विश्वास’. यह साथ और विश्वास तो सबका चाहती है लेकिन श्रेय देना नहीं, बल्कि श्रेय लेना भी स्वयं ही चाहती है. प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा तमाम तरह के सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर यह सुविधाएं दी गई है कि देशवासी देश के निर्माण में अपना योगदान देने के लिए सीधे प्रधानमंत्री ने जुड़ कर सलाह-सुझाव दे सकते हैं. यह किसी भी देशवासी के लिए अच्छी बात होती है कि उसकी सलाह उसके प्रधानमंत्री द्वारा सुनी जाती है. लेकिन बदले में देशवासी यह भी चाहता है कि प्रधानमंत्री अगर उसकी सलाह पर कोई पहल करते हैं तो उसका श्रेय भी उसे दें, ताकि वह और उसके जैसे लोग उत्साहित हो कर राष्ट्रनिर्माण के कार्य में और बढ़-चढ़ कर आगे आएं. आम नागरिक की सक्रिय सहभागिता सफल परिपक्व लोकतंत्र का अहम लक्षण है. यहां इसी संदर्भ में नीचे कुछ उदाहरण हैं.

एक

जब वैश्विक महामारी कोविड 19 की वजह से दुनिया के साथ-साथ भारत भी इसकी चपेट में आया और प्रधानमंत्री ने 24 मार्च को राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की तो पूरे राष्ट्र ने उनका समर्थन किया और सब लोग घरों में कैद हो गये. यह अभूतपूर्व अनुशासन था देशवासियों का. लेकिन घरों में रहने के बावजूद लोगों को खाद्य पदार्थों की आवश्यकता तो पड़ेगी. इसलिए कुछ आपात सेवाएं जारी रखी गई. उनमें से एक कार्य ऐसा था कि इसे भी जारी रखना आवश्यक था और वह कार्य था – खेती किसानी का. जब खेतों से फल-सब्जियों का उत्पादन नियमित होगा तभी सप्लाई चेन द्वारा लोगों के घरों तक आपूर्ति हो पाएगी. इसी बात को ध्यान में रख कर 25 मार्च को अखिल भारतीय किसान महासंघ (आइफा) के राष्ट्रीय संयोजक डॉ राजाराम त्रिपाठी ने प्रधानमंत्री कार्यालय को टैग करते हुए सुझाव दिया कि खेती के कार्य को लॉकडाउन से मुक्त रखा जाएं. न केवल फल-सब्जियों के लिए बल्कि यह समय रबी की फसल का है और यह फसल समय से खलिहान से गोदाम तक या किसानों के घर तक नहीं पहुंचे तो मंडियां विरान हो जाएंगी. डॉ त्रिपाठी की सलाह प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा तुरंत अमल में लाया गया औऱ 27 मार्च को गृह मंत्रालय के द्वारा संशोधित आदेश के जारी कर खेती के ज्यादातर कार्यों को लॉकडाउन से मुक्त कर दिया गया. हालांकि अलग-अलग राज्यों ने केंद्र सरकार के उन आदेशों की अपनी समझ और सुविधा के अनुसार अलग-अलग व्याख्या करते हुए उनका क्रियान्वयन समुचित ढंग से नहीं किया जिससे किसानों को अपूरणीय क्षति तथा अभूतपूर्व परेशानियां हुई, और अभी भी हो रही है, स्थानीय प्रशासन ने भी कोरोना को रोकने तथा कृषि कार्य को रोकने का अंतर समझने की कोशिश नहीं की और सुदूरवर्ती इलाकों में पुलिस अपना पराक्रम निरीह किसानों पर दिखाती रही.

दो

इसके पश्चात, केंद्र सरकार द्वारा गरीबों औऱ असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए तथा अन्य वर्गों के लिए जब विभिन्न प्रकार के राहत की घोषणाएं की गई तब देखा गया कि इन घोषणाओं में कृषि और कृषकों के लिए कोई बहुत सार्थक पैकेज नहीं है, जिससे लॉकडाउन से खेती को हुए नुकसान की भरपायी करते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके. इसे ध्यान में रखते हुए, 25 अप्रैल, 2020 को डॉ. त्रिपाठी द्वारा 52 किसान संगठनों से सलाह-मशविरा कर 25 सूत्री मार्गदर्शी सुझाव व मांग पत्र प्रधानमंत्री को सौंपा गया. इसके बाद भारत सरकार ने देश की खेती तथा किसानी के महत्व को समझते हुए, आने वाले भविष्य में देश की अर्थव्यवस्था को स्थिरता देने के दृष्टिकोण से, गांव में खेती तथा किसानी के कार्य को सुचारू रूप से जारी रखने के लिए, सभी जरूरी सुरक्षा बचावों के निर्देशों के साथ , किसानों को कृषि कार्य संपादित करने हेतु जरूरी दिशा- निर्देश जारी किए हैं. यद्यपि शहरी तथा अर्ध शहरी क्षेत्रों का सरकारी अमला अभी भी शासन की इस मंशा को भलीभांति नहीं समझ पाया है, अभी भी जिला एवं तहसील स्तर पर कई जगहों पर अफरा-तफरी का माहौल बना हुआ है. अभी भी किसानों को रोक रहे हैं. फिर भी मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि शासन की इस निर्देश से जिससे धीरे-धीरे देश के कई हिस्सों में गांवों में अब कृषि कार्य पटरी पर लौटने लगी है.

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तीन

भारत विश्व के सबसे ज्यादा वन क्षेत्र वाले 10 देशों में से एक है. भारत के कुल क्षेत्रफल के लगभग 21.23% क्षेत्र पर वन स्थित हैं. देश के कई राज्यों में जैसे कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उड़ीसा ,झारखंड, उत्तराखंड ,हिमाचल प्रदेश ,महाराष्ट्र तथा पूर्वोत्तर की राज्यों में में जहां आज भी पर्याप्त वन क्षेत्र है, जैसे कि छत्तीसगढ़ में तो लगभग 44% हिस्सा वन क्षेत्र हैं और भारत के समूचे 1 क्षेत्रों का 7.7% वन छत्तीसगढ़ में ही है. इन वन क्षेत्रों में बहुसंख्यक जनजातीय समुदाय निवास करता है और इन क्षेत्रों की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या जंगलों से वनोपज एकत्र कर होने वाली आय से ही अपना जीवन यापन करती है. छत्तीसगढ़ में तो 425 ऐसे वन राजस्व ग्राम भी है जिनकी आजीविका का साधन केवल मुख्य रूप से जंगल ही है. छत्तीसगढ़ में इस कार्य को सुचारू संचालन हेतु 901 प्राथमिक लघु वनोपज सहकारी समितियां है कार्य कर रही है जो पूरी तरह से वनोपज संग्रहण तथा विपणन पर ही निर्भर है.

भारत में कमोबेश इसी तर्ज पर लगभग 250 से अधिक प्रकार की वनोपज संग्रहण किया जाता है, इन सारे वनोपजों में से लगभग 70% प्रमुख वनोपज इन्हीं दिनों मार्च-अप्रैल में एकत्र की जाती हैं और यह वनोपज इन दिनों अगर एकत्र नहीं की गई तो या तो यह इन दिनों वनों में प्राय: हर वर्ष लगने वाली आग से जलकर नष्ट हो जाती है, या फिर मई-जून की गरमी में यह सूख कर अनुपयोगी जाती है, और इन सबसे भी अगर बची भी तो आगे आने वाली मानसून पूर्व की बारिश की बौछारों में तो पूरी तरह से बर्बाद हो ही जाती है.

अतः डॉ राजाराम त्रिपाठी अखिल भारतीय किसान महासंघ (आइफा) द्वारा सरकार को समर्थन तथ्यों, आंकड़ों के साथ सुझाव देते हुए 4 अप्रैल को प्रधानमंत्री कार्यालय विस्तार से वस्तुस्थिति की जानकारी देते हुए मांग की गई थी कि देश में तत्काल लॉकडाउन के दरम्यान बचाव के साधनों तथा सुरक्षा के साथ वनोपजो के संग्रहण और उनकी शत् प्रतिशत खरीदी सुनिश्चित की जाए तथा संग्राहक परिवारों को इन वनोपजों का 'उचित मूल्य' दिलाया जाए.

उक्त पत्र को प्रधानमंत्री कार्यालय के द्वारा आदिवासी मामलों के मंत्रालय को आगे कार्यवाही हेतु तत्काल 4अप्रैल को हीअग्रेषित कर दिया गया. तत्पश्चात संबंधित राज्यों में 5-6 अप्रैल से वनोपज संग्रहण का कार्य सुचारू रूप से प्रारंभ हुआ, और दो मई को केंद्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा 49 वनोपज के जिसे माइनर फॉरेस्ट प्रोड्यूस (एमएफपी) कहते हैं, उसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा की गई है, जो कि भले ही देर से उठाया गया, पर निश्चित रूप से अच्छा कदम है. लेकिन उपरोक्त सभी मामलों में सरकार ने जिन व्यक्ति या संगठनों के सुझाव को आधार पर उपरोक्त निर्णय लिये, उनका जिक्र तक नहीं किया है. यहां तक कि धन्यवाद ज्ञापन का एक मुफ्त ईमेल तक भेजने में सरकार कंजूसी बरतती है.

यहां उपरोक्त महत्वपूर्ण सुझाव देने वाले डॉक्टर त्रिपाठी के बारे में भी हम अति संक्षेप में बताना जरूरी होगा कि, हरित योद्धा के नाम से अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त, सैकड़ों अंतरराष्ट्रीय,राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ राजाराम त्रिपाठी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त जमीनी कृषि विशेषज्ञ तथा कृषि अर्थशास्त्री हैं, तथा वे कृषि संबंधी मामलों में समय-समय पर सरकारों को अपनी निशुल्क विशेषज्ञ सलाह देते रहे हैं, जिनसे सरकारें लाभान्वित भी हुई हैं. हालिया लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा के चुनावीघोषणा पत्र बनाते समय जिन कृषि विशेषज्ञों से सलाह ली गई थी उनमें डॉक्टर त्रिपाठी भी एक थे. उल्लेखनीय है कि, वर्तमान में किसानों के मदद हेतु संचालित ,"कृषक पेंशन निधि" तथा "किसान सम्मान निधि' जैसी केन्द्र सरकार की स्टार योजनाओं की आवश्यकता तथा उसके संभावित स्वरूप के बारे में अपनी परिकल्पना कोई स्पष्ट करते हुए इन्हें भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल करने के बारे में डॉक्टर त्रिपाठी ने ही सलाह दिया था , इन सुझावों को भाजपा की समूची चुनाव घोषणा पत्र समिति ने सराहा भी था और इन्हें अपने घोषणापत्र में शामिल भी किया था, और इस चुनाव में किसानों के वोटों से अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की. यह दीगर बात है की इन योजनाओं के निर्माण, क्रियान्वयन तथा संचालन में इतनी खामियां रह गई हैं, कि इन महात्वाकांक्षी योजनाओं का मूल उद्देश्य कहीं खो गया.

सवाल

सोचने की बात यह है कि, एक ओर तो सरकार यह कहते नहीं थकती है कि, वह हर नागरिक की सहभागिता शासन में चाहती है, ऐसे में कोई विशेषज्ञ अगर मेहनत करके कोई सार्थक सुझाव सरकार को भेजता हैं तो उन्हें कोई श्रेय देना तो दूर उसकी अभिस्वीकृति तक नहीं करती है...ऐसे में ‘सबका साथ- सबका विकास’ क्या सिर्फ थोथा नारा साबित नहीं हो रहा.?

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