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भारत विश्व के सबसे ज्यादा वन क्षेत्र वाले 10 देशों में से एक है. भारत के कुल क्षेत्रफल के लगभग 21.23% क्षेत्र पर वन स्थित हैं. देश के कई राज्यों में जैसे कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उड़ीसा ,झारखंड, उत्तराखंड ,हिमाचल प्रदेश ,महाराष्ट्र तथा पूर्वोत्तर की राज्यों में में जहां आज भी पर्याप्त वन क्षेत्र है, जैसे कि छत्तीसगढ़ में तो लगभग 44% हिस्सा वन क्षेत्र हैं और भारत के समूचे 1 क्षेत्रों का 7.7% वन छत्तीसगढ़ में ही है. इन वन क्षेत्रों में बहुसंख्यक जनजातीय समुदाय निवास करता है और इन क्षेत्रों की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या जंगलों से वनोपज एकत्र कर होने वाली आय से ही अपना जीवन यापन करती है. छत्तीसगढ़ में तो 425 ऐसे वन राजस्व ग्राम भी है जिनकी आजीविका का साधन केवल मुख्य रूप से जंगल ही है. छत्तीसगढ़ में इस कार्य को सुचारू संचालन हेतु 901 प्राथमिक लघु वनोपज सहकारी समितियां है कार्य कर रही है जो पूरी तरह से वनोपज संग्रहण तथा विपणन पर ही निर्भर है.
भारत में कमोबेश इसी तर्ज पर लगभग 250 से अधिक प्रकार की वनोपज संग्रहण किया जाता है, इन सारे वनोपजों में से लगभग 70% प्रमुख वनोपज इन्हीं दिनों मार्च-अप्रैल में एकत्र की जाती हैं और यह वनोपज इन दिनों अगर एकत्र नहीं की गई तो या तो यह इन दिनों वनों में प्राय: हर वर्ष लगने वाली आग से जलकर नष्ट हो जाती है, या फिर मई-जून की गरमी में यह सूख कर अनुपयोगी जाती है, और इन सबसे भी अगर बची भी तो आगे आने वाली मानसून पूर्व की बारिश की बौछारों में तो पूरी तरह से बर्बाद हो ही जाती है.
अतः डॉ राजाराम त्रिपाठी अखिल भारतीय किसान महासंघ (आइफा) द्वारा सरकार को समर्थन तथ्यों, आंकड़ों के साथ सुझाव देते हुए 4 अप्रैल को प्रधानमंत्री कार्यालय विस्तार से वस्तुस्थिति की जानकारी देते हुए मांग की गई थी कि देश में तत्काल लॉकडाउन के दरम्यान बचाव के साधनों तथा सुरक्षा के साथ वनोपजो के संग्रहण और उनकी शत् प्रतिशत खरीदी सुनिश्चित की जाए तथा संग्राहक परिवारों को इन वनोपजों का 'उचित मूल्य' दिलाया जाए.
उक्त पत्र को प्रधानमंत्री कार्यालय के द्वारा आदिवासी मामलों के मंत्रालय को आगे कार्यवाही हेतु तत्काल 4अप्रैल को हीअग्रेषित कर दिया गया. तत्पश्चात संबंधित राज्यों में 5-6 अप्रैल से वनोपज संग्रहण का कार्य सुचारू रूप से प्रारंभ हुआ, और दो मई को केंद्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा 49 वनोपज के जिसे माइनर फॉरेस्ट प्रोड्यूस (एमएफपी) कहते हैं, उसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा की गई है, जो कि भले ही देर से उठाया गया, पर निश्चित रूप से अच्छा कदम है. लेकिन उपरोक्त सभी मामलों में सरकार ने जिन व्यक्ति या संगठनों के सुझाव को आधार पर उपरोक्त निर्णय लिये, उनका जिक्र तक नहीं किया है. यहां तक कि धन्यवाद ज्ञापन का एक मुफ्त ईमेल तक भेजने में सरकार कंजूसी बरतती है.
यहां उपरोक्त महत्वपूर्ण सुझाव देने वाले डॉक्टर त्रिपाठी के बारे में भी हम अति संक्षेप में बताना जरूरी होगा कि, हरित योद्धा के नाम से अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त, सैकड़ों अंतरराष्ट्रीय,राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ राजाराम त्रिपाठी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त जमीनी कृषि विशेषज्ञ तथा कृषि अर्थशास्त्री हैं, तथा वे कृषि संबंधी मामलों में समय-समय पर सरकारों को अपनी निशुल्क विशेषज्ञ सलाह देते रहे हैं, जिनसे सरकारें लाभान्वित भी हुई हैं. हालिया लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा के चुनावीघोषणा पत्र बनाते समय जिन कृषि विशेषज्ञों से सलाह ली गई थी उनमें डॉक्टर त्रिपाठी भी एक थे. उल्लेखनीय है कि, वर्तमान में किसानों के मदद हेतु संचालित ,"कृषक पेंशन निधि" तथा "किसान सम्मान निधि' जैसी केन्द्र सरकार की स्टार योजनाओं की आवश्यकता तथा उसके संभावित स्वरूप के बारे में अपनी परिकल्पना कोई स्पष्ट करते हुए इन्हें भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल करने के बारे में डॉक्टर त्रिपाठी ने ही सलाह दिया था , इन सुझावों को भाजपा की समूची चुनाव घोषणा पत्र समिति ने सराहा भी था और इन्हें अपने घोषणापत्र में शामिल भी किया था, और इस चुनाव में किसानों के वोटों से अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की. यह दीगर बात है की इन योजनाओं के निर्माण, क्रियान्वयन तथा संचालन में इतनी खामियां रह गई हैं, कि इन महात्वाकांक्षी योजनाओं का मूल उद्देश्य कहीं खो गया.
सवाल
सोचने की बात यह है कि, एक ओर तो सरकार यह कहते नहीं थकती है कि, वह हर नागरिक की सहभागिता शासन में चाहती है, ऐसे में कोई विशेषज्ञ अगर मेहनत करके कोई सार्थक सुझाव सरकार को भेजता हैं तो उन्हें कोई श्रेय देना तो दूर उसकी अभिस्वीकृति तक नहीं करती है...ऐसे में ‘सबका साथ- सबका विकास’ क्या सिर्फ थोथा नारा साबित नहीं हो रहा.?