पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, जिन्हें उनके बचपन के दोस्त प्यार से 'मोहना' बुलाते थे, ने 92 वर्ष की आयु में 26 दिसंबर की रात अपनी अंतिम सांस ली। लेकिन उनकी साँसों में हमेशा अपनी जड़ों की महक थी—वो महक जो बचपन की मिट्टी, गलियों की खिलखिलाहटों, और पेड़ों की छाँव में बसी हुई थी। उनकी ज़िंदगी की कहानी केवल उपलब्धियों की नहीं, बल्कि संघर्ष और रिश्तों की भी थी, जिसने ‘मोहना’ के व्यक्तित्व को आकार दिया। उनके बचपन के दोस्त आज भी उन्हें ‘मोहना’ कहकर याद करते हैं, और इस प्यारे नाम का ज़िक्र मनमोहन सिंह ने कई बार खुद भी किया था।
इस दास्तान का आगाज़ होता है पाकिस्तान के चकवाल जिले के एक छोटे से गाँव 'गाह' से, जहाँ ‘मोहना’ ने अपने जीवन का पहला सबक सीखा। मिट्टी की सोंधी खुशबू, गिल्ली-डंडा, कबड्डी और कंचों की रंगीन दुनिया में खोए ‘मोहना’ के सपने उतने ही मासूम थे, जितने किसी भी आम बच्चे के होते हैं। शाह वली, राजा मोहम्मद अली और गुलाम मोहम्मद जैसे बचपन के दोस्तों के साथ बिताए गए पल अंतिम समय तक भी उनके दिलों में ताज़ा था। इन यादों में गूँजती है मोहना की खिलखिलाहट और उनकी मासूमियत।
गाँव की संकरी गलियों में खेलते हुए, ‘मोहना’ ने जीवन की सच्चाइयों को खेल के ज़रिए ही समझा। शाह वली ने एक बार कहा था, 'वह हमेशा अपने खेल में ईमानदार था और पढ़ाई में भी उतना ही तेज़। अगर कभी खेल में कोई मुश्किल आती, तो मोहना ही हमें समझाता।' शायद वही सादगी और समझदारी आगे चलकर उनकी शख्सियत का हिस्सा बन गई। गाह का वह छोटा सा दो कमरों का स्कूल, जहाँ दौलत राम और अब्दुल करीम जैसे शिक्षक थे, मनमोहन सिंह के लिए शिक्षा के रास्ते का पहला कदम साबित हुआ।
मनमोहन का जीवन एक बेइंतिहा लंबी यात्रा रहा, जिसमें दोस्ती, प्रेम, और संघर्ष के साथ-साथ अपनी जड़ों से गहरा लगाव छिपा है। 1947 में विभाजन ने न केवल दो देशों को, बल्कि मोहना और उनके दोस्तों को भी हमेशा के लिए अलग कर दिया। लेकिन दिलों की दूरी भला सीमाओं से तय होती है? शाह वली और राजा मोहम्मद अली ने वर्षों तक उम्मीद की थी कि एक दिन मोहना वापस आएगा और फिर से वह खेलों का मैदान जीवंत हो उठेगा।
वर्षों बाद, 2008 में, जब मोहना ने अपने पुराने दोस्त राजा मोहम्मद अली को भारत बुलाया, तो वह मुलाकात वर्षों की जुदाई को पाटने वाली थी। राजा साहब अपने दोस्त के लिए चकवाली जूती, शॉल और गाँव की मिट्टी का तोहफ़ा लेकर आए थे। यह केवल उपहार नहीं थे, बल्कि बचपन की उन यादों की एक ज़िंदा कड़ी थी, जो कभी टूट नहीं सकती। बदले में, मोहना ने उन्हें एक पगड़ी और कढ़ाई वाली शॉल भेंट की। यह आदान-प्रदान न सिर्फ भौतिक वस्तुओं का था, बल्कि उन यादों और भावनाओं का भी, जिनमें उनका बचपन बसा हुआ था।
प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मनमोहन सिंह का दिल अपने गाँव गाह से कभी दूर नहीं हुआ। उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन शासक परवेज़ मुशर्रफ को लिखा कि ‘गाह’ की तरक्की के लिए कुछ किया जाए। जब उन्होंने यह बात कही, तब वह सिर्फ एक राजनेता नहीं थे, बल्कि गाँव का वही छोटा सा बच्चा ‘मोहना’ था, जो अपने गाँव की मिट्टी से हमेशा के लिए जुड़ा रहा।
उनकी शिक्षा की यात्रा भी अनोखी और प्रेरणादायक रही। गाह के साधारण से स्कूल से लेकर ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज तक का सफर उनकी मेहनत और जुनून का प्रतीक था। 1991 में जब वह भारत के वित्त मंत्री बने, तब देश एक आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़ा था। लेकिन मोहना की दूरदर्शिता और ज्ञान ने उस खाई को पाट दिया, और 2007 तक भारत ने अपनी जीडीपी की सर्वोच्च दर हासिल कर ली।
लेकिन इस सफलता की यात्रा में भी मोहना का दिल हमेशा अपने पुराने दोस्तों और गाँव के साथ जुड़ा रहा। शाह वली और गुलाम मोहम्मद जैसे दोस्त भी गाह में बैठकर उस दिन का इंतज़ार करते रहे, जब मोहना अपने गाँव लौटेगा। पर राजनीति की पेचीदगियाँ, द्विपक्षीय तनाव, और अनकही उम्मीदें इस मिलन को हमेशा के लिए स्थगित करती रहीं। मोहना का दिल अपने गाँव और दोस्तों के लिए धड़कता रहा।
2019 में जब करतारपुर साहिब कॉरिडोर के उद्घाटन के लिए मोहना पाकिस्तान गए, तो वह सिर्फ एक राजनेता के तौर पर नहीं गए, बल्कि उस बच्चे के रूप में गए, जिसने हमेशा अपने गाँव की गलियों में वापस लौटने का सपना देखा था। उनका दिल तब भी यह उम्मीद पाले बैठा था कि शायद इस यात्रा से भारत और पाकिस्तान के बीच के विवाद सुलझ जाएंगे।
लेकिन मोहना का यह सपना, कि वह एक दिन फिर से गाह की गलियों में चले, कभी पूरा नहीं हो पाया। विभाजन की गहरी दरारें उनके और उनके बचपन के बीच एक दीवार बनकर खड़ी रहीं। शाह वली और राजा मोहम्मद अली जैसे दोस्त केवल यादों में ही ‘मोहना’ को देख पाते रहे।
मनमोहन सिंह का जीवन केवल राजनीति की कहानियों से नहीं भरा था, बल्कि उनके जीवन की सबसे गहरी कहानियाँ उनके दिल के उन कोनों से निकलीं, जहाँ गाह की मिट्टी, बचपन के खेल, और दोस्तों के साथ बिताए गए पल हमेशा बसे रहे।
आज जब हम मनमोहन सिंह को याद करते हैं, तो हमें केवल उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल पर ध्यान नहीं देना चाहिए, बल्कि उनके अंदर के उस ‘मोहना’ को देखना चाहिए, जो अपने दोस्तों के साथ गिल्ली-डंडा खेलता था, और जिसने जीवन की चुनौतियों को हमेशा मुस्कान और धैर्य के साथ सामना किया।
मोहना का न होना सिर्फ एक युग का अंत नहीं है, यह उन यादों का भी अंत है, जिन्हें उनके दोस्त शाह वली और राजा मोहम्मद अली ने अपने दिलों में संजो कर रखा था। लेकिन उनकी यादें, उनकी भावनाएँ और उनके संघर्ष गाह की उस मिट्टी में हमेशा के लिए बसे रहेंगे, और ‘मोहना’ की कहानी वहाँ के हर ज़र्रे में सदियों तक जिंदा रहेगी।