देश मांगे जस्टिस (आवरण कथा)

संतु दास

 |  01 May 2025 |   45
Culttoday

22 अप्रैल की दोपहर, जब बैसरान के हरे-भरे मैदान के किनारे बसे जंगलों से आतंक के सौदागर निकल पड़े, कश्मीर की शांत वादियां एक बार फिर खून से लाल हो गईं। वादियों में सन्नाटा चीख उठा, मासूमियत का गला घोंटा गया। ये आतंकी पुरुष पर्यटकों से उनका धर्म पूछते, मानवता को शर्मसार करते हुए, सिर्फ धार्मिक पहचान के आधार पर निर्दयता से मौत का फरमान सुनाते, और फिर… गोलियां बरसतीं।
जंगल की भयावहता में गूंजती महिलाओं की चीखें, अपने प्रियजनों की रक्षा के लिए की गई व्यर्थ पुकारें, देर तक घाटी की ठंडी हवाओं में तैरती रहीं – मानो हर पत्ती, हर कंकड़ उस क्रूरता का गवाह बन गया हो। हत्यारे जंगलों में गायब हो गए थे, लेकिन उस क्षण ने न जाने कितने दिलों को जीवनभर के लिए शोक में डुबो दिया था। आतंक के साए में भागते लोगों को भारतीय सैनिकों ने अपने सुरक्षित हाथों में लिया, उन्हें ढांढस बंधाते हुए – मानो मानवता की अंतिम मशाल थामे हुए।
कश्मीर घाटी, जो अक्सर भारत से अलगाव की ललक और सामान्य जीवन की चाह के द्वंद के बीच झूलती रही है, उस दिन पूरी तरह सिहर उठी। उस शाम जब पहलगाम में शव पहुंचे, तो शोक की एक ठंडी चादर ने पूरे शहर को ढँक लिया। कुछ घंटे पहले जो परिवार खुशी-खुशी बैसरान की ओर निकले थे, अब वे असहाय होकर अपने टूटे हुए संसार के मलबे पर विलाप कर रहे थे। महिलाओं और बच्चों के चेहरों पर अव्यक्त पीड़ा स्थायी हो गई थी – मानो हर आंसू भी अब छोटा पड़ गया हो, हर सिसकी उस दर्द को बयान करने में असमर्थ हो।
हिंसा की वह बर्बरता इतनी चौंकाने वाली थी कि उस क्षण पहचान और राज्य के दर्जे पर होने वाली तमाम बहसें गौण हो गईं। कश्मीर के प्रमुख अखबारों में छपी खबरें इस अमानवीयता के खिलाफ मूक चीख बन गईं। होटल और लॉज खाली हो चले, पर्यटन का रंगीन सपना एक ही झटके में बिखर गया। घाटी, जो स्वर्ग का टुकड़ा कहलाती थी, एक बार फिर खून के धब्बों से दागदार हो गई।
जैसे-जैसे विवरण सामने आए, दिल दहला देने वाली सच्चाई स्पष्ट होती गई – आतंकियों ने गैर-मुस्लिम पुरुषों को निशाना बनाया और महिलाओं को छोड़ दिया। इस नृशंसता के पीछे निहित संदेश साफ था - नियंत्रण रेखा से मात्र कुछ किलोमीटर दूर, पहलगाम जैसे पर्यटन स्थल को निशाना बनाकर आतंकियों ने दुनिया को यह दिखाने की कोशिश की कि उनकी शक्ति अब भी जिंदा है, और उनकी नफरत अब भी गहरी है।
एक पूर्व सैन्य अधिकारी ने ठीक ही कहा – यह हमला केवल हिंसा नहीं था, बल्कि एक राजनीतिक ऐलान था। पाकिस्तान ने अब भी कश्मीर को लेकर अपना रवैया नहीं छोड़ा है और वह इस कटु सच्चाई को अंतरराष्ट्रीय मंच पर याद दिलाना चाहता है कि कश्मीर की त्रासदी अभी समाप्त नहीं हुई। भारत द्वारा पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों को सीमित करने के बावजूद, पाकिस्तान ने अपना इरादा नहीं बदला।
इस दुखांतिका में, इंसानियत कराह उठी – और कश्मीर, जिसने सदा से फूलों और फिरदौस की भूमि कहलाने का सपना देखा था, एक बार फिर अपने ही खून के आँसुओं में भीग गया। वादियों में दर्द था, हवाओं में चीखें, और दिलों में अनगिनत सवाल।
पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल असीम मुनीर के भड़काऊ भाषण के कुछ दिन बाद – जिसमें उन्होंने यह कहा था कि हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते, मुसलमानों के रहन-सहन, संस्कृति, उद्देश्य सब अलग है, इसीलिए दो कौमी नजरिया के तहत पाकिस्तान बना और कश्मीर को पाकिस्तान की 'जीवन रेखा' बताते हुए पुराना नारा दोहराया था – कश्मीर में हुआ यह आतंकी हमला एक संयोग नहीं, बल्कि एक सोची-समझी साजिश का हिस्सा था। योजना भले ही पहले से बनाई जा रही हो, लेकिन हमले का समय ऐसा चुना गया था कि वह अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस की भारत यात्रा के साथ मेल खा सके। मानो, आतंक के साए में दुनिया को एक संदेश देना था।
जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद पर नियंत्रण पाकिस्तान की सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथ में ही है। इस हमले का मकसद साफ था – दुनिया को यह दिखाना कि भारतीय सरकार का यह दावा गलत है कि आतंकवाद लगभग खत्म हो चुका है और राज्य में लौटती सामान्य स्थिति, खासकर फलता-फूलता पर्यटन, अब भी असुरक्षित है।
लेकिन, भारत ने इस चुनौती का जवाब भी उतनी ही स्पष्टता और दृढ़ता के साथ दिया। 24 अप्रैल को बिहार के मधुबनी में एक जनसभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंग्रेजी में बोलने का विकल्प चुना – ताकि दुनिया भर तक उनका संदेश साफ-साफ पहुंचे। उनकी आवाज में दर्द था, लेकिन संकल्प की एक चट्टान भी थी। उन्होंने कहा, 'बिहार की इस धरती से मैं पूरी दुनिया से कहना चाहता हूं – भारत हर आतंकवादी और उनके समर्थकों को ढूंढेगा, उन्हें सजा देगा, चाहे वे धरती के किसी भी कोने में छिपे हों। भारत की भावना आतंकवाद से कभी नहीं टूटेगी। हम सुनिश्चित करेंगे कि न्याय हो। आज पूरा देश इस संकल्प में एकजुट है। जो भी मानवता में विश्वास रखते हैं, वे हमारे साथ खड़े हैं। मैं उन देशों और उनके नेताओं का आभार व्यक्त करता हूं जो इस कठिन समय में भारत के साथ हैं।'
अब गेंद फेंकी जा चुकी थी। सवाल अब अगर का नहीं था, बस कब का था – और भारत की प्रतिक्रिया गंभीर लेकिन ठोस होने वाली थी। न्याय की घड़ी टिक-टिक कर रही थी।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सऊदी अरब यात्रा को बीच में ही छोड़ दिया। उधर, गृह मंत्री अमित शाह 23 अप्रैल को श्रीनगर रवाना हो गए। उसी शाम सुरक्षा मामलों पर कैबिनेट कमेटी की बैठक हुई, जिसमें पाकिस्तान के खिलाफ तुरंत कुछ सख्त फैसले लिए गए। फैसले सिर्फ कागजों पर नहीं लिखे गए थे, बल्कि भारत के इरादे की गवाही दे रहे थे।
बैठक में तय किया गया कि 1960 की सिंधु जल संधि को अस्थायी रूप से निलंबित किया जाएगा। अटारी में स्थित एकीकृत चेक पोस्ट को बंद करने का निर्णय हुआ। इसके अलावा, पाकिस्तानी नागरिकों को अब सार्क वीज़ा छूट योजना के तहत भारत आने की अनुमति नहीं दी जाएगी और जिन लोगों को पहले से वीजा मिला था, वे भी अब रद्द माने जाएंगे। दरवाजे बंद हो रहे थे, रिश्ते ठंडे पड़ रहे थे, लेकिन भारत अपने संकल्प पर अडिग था।
इतना ही नहीं – नई दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग में रक्षा, नौसेना और वायु सेना के सलाहकारों को भारत छोड़ने के लिए एक सप्ताह का समय दिया गया है। भारत भी इस्लामाबाद से अपने उच्चायोग के सैन्य सलाहकारों को वापस बुलाएगा। दोनों देशों के उच्चायोगों में मौजूद अधिकारियों की संख्या 1 मई तक घटाकर 55 से 30 कर दी जाएगी।
साफ था कि भारत अब अपने शब्दों के साथ-साथ कार्यों से भी यह दिखाना चाहता है कि आतंकवाद को अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा – चाहे इसके लिए कूटनीतिक मोर्चे पर कितनी भी बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। वादियों में पसरा सन्नाटा एक तूफान से पहले की शांति जैसा था। भारत चुप था, लेकिन अंदर ही अंदर एक ज्वाला धधक रही थी - न्याय की ज्वाला, बदला लेने की ज्वाला, और सबसे बढ़कर, इंसानियत को बचाने की ज्वाला।
कश्मीर के रुदन भारत के आक्रोश को भड़का दिया है।
हालाँकि विश्व बैंक द्वारा मध्यस्थता और विवाद निपटारे के लिए 'तटस्थ' विशेषज्ञों की व्यवस्था के बावजूद, सिंधु जल संधि मूल रूप से एक द्विपक्षीय समझौता है। अब तक यह भारत के संयम के कारण ही प्रभावी रही है, यहाँ तक कि युद्ध और तनाव के दौर में भी। यह संयम, एक मौन प्रतिज्ञा की तरह था, कि मानवता पहले है। लेकिन अब, पहलगाम के रक्त रंजित मैदानों से उठी चीखों के बाद, भारत ने अपनी रणनीति बदल दी है।
भारत अब छोटे बांधों के निर्माण, रण-ऑफ-रिवर परियोजनाओं, नहरों के विस्तार और मालवाहक जलमार्गों जैसी गतिविधियों के लिए स्वतंत्र है। यह कोई कागजी कार्रवाई नहीं, बल्कि एक ठोस निर्णय है, जो पाकिस्तान को बड़ी मुश्किलों का सामना कराएगा, जो पहले से ही पानी और बिजली की गंभीर कमी से जूझ रहा है। कराची जैसे बड़े शहर भीषण गर्मी और जल संकट से परेशान हैं, जिसे प्रशासनिक अव्यवस्था ने और गहरा दिया है। हर बूंद कीमती है, और अब भारत तय करेगा कि किसे कितनी मिलेगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट कर दिया है कि दोषियों को किसी भी हाल में बख्शा नहीं जाएगा। यह कोई खोखला वादा नहीं, बल्कि एक संकल्प है, जिसे गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी पूरी मजबूती से दोहराया। भारत के सैन्य विकल्पों पर गहन विचार हो रहा है, क्योंकि जल्दबाजी में लिया गया कदम अपेक्षित नतीजे नहीं ला सकता।
पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के ऊपर अचानक बढ़ी सैन्य गतिविधियों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत अपनी रणनीति पर गंभीरता से काम कर रहा है। यह कोई दिखावा नहीं, बल्कि एक तैयारी है, एक चेतावनी है उन ताकतों को जो भारत की शांति को भंग करना चाहते हैं। पुलवामा हमले के बाद भारत का अनुभव बताता है कि दुश्मन गतिविधि बढ़ाकर भारत के विकल्पों को सीमित करना चाहता है। हर चाल का जवाब देने के लिए भारत तैयार है।

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फिलहाल, लक्षित सैन्य कार्रवाई – जैसे विशेष आतंकवादी ठिकानों या लश्कर-ए-तैयबा के अड्डों पर हवाई हमले – एक व्यवहारिक विकल्प के तौर पर सामने आ रहे हैं। राफेल लड़ाकू विमानों की मौजूदगी ने भारत को एलओसी या अंतरराष्ट्रीय सीमा पार किए बिना ही सटीक हमलों की क्षमता दी है। यह कोई धमकी नहीं, बल्कि सच्चाई है, कि भारत अब अपने दुश्मनों को उनके घर में घुसकर मारने की क्षमता रखता है। अब यह तय माना जा रहा है कि भारत की प्रतिक्रिया न केवल तीखी होगी, बल्कि समय चाहे जो हो, उसका असर गहरा होगा।
यह हमला ऐसे समय हुआ जब अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस अपने परिवार के साथ भारत दौरे पर थे, और इसकी याद दिलाता है 2001 के चित्तीसिंहपुरा नरसंहार की, जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के दौरे से ठीक पहले 35 सिखों की हत्या कर दी गई थी। यह कोई इत्तेफाक नहीं, बल्कि एक पैटर्न है, कि आतंकवादी हमले अक्सर उच्च-स्तरीय यात्राओं के समय ही क्यों होते हैं? उस समय वाजपेयी सरकार को बदनाम करने की कोशिश नाकाम रही थी।
क्लिंटन ने इस्लामाबाद में केवल कुछ घंटे बिताए थे, जबकि भारत में संसद को संबोधित किया और कारगिल युद्ध के समय पाकिस्तान को एलओसी से पीछे हटने के लिए मनाने में अपनी भूमिका का जिक्र किया था। यह कोई भूलने वाली बात नहीं, बल्कि एक इतिहास का पाठ है, कि भारत ने हमेशा शांति का रास्ता चुना है, लेकिन जब बात सुरक्षा की आती है तो वह किसी भी हद तक जा सकता है।
इस बार भी, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बिना देर किए प्रधानमंत्री मोदी से बात कर भारत को पूरा समर्थन देने की घोषणा की। उन्होंने कहा, 'प्रधानमंत्री मोदी और भारत के लोगों के साथ हमारा पूरा समर्थन और संवेदना है।' यह कोई कूटनीतिक बयान नहीं, बल्कि एक दोस्ती का वादा है, कि दुनिया भर के लोकतंत्र भारत के साथ खड़े हैं।
23 अप्रैल को अमित शाह ने मृतकों को श्रद्धांजलि दी, शोक संतप्त परिवारों से मिले और बैसरान मैदान का हवाई निरीक्षण किया। यह दौरा न केवल हमले के स्थल का जायजा लेने के लिए था, बल्कि यह भी दिखाने के लिए था कि सरकार आतंकवाद के खिलाफ मजबूती से खड़ी है। चेहरे पर दुःख था, लेकिन आंखों में दृढ़ता, कि भारत किसी भी हाल में नहीं झुकेगा।
प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपनी तत्काल यात्राओं को स्थगित कर दिया और एक्स (पूर्व ट्विटर) पर संवेदना जताते हुए कहा: 'इस जघन्य कृत्य के अपराधियों को सजा जरूर मिलेगी। उनका बुरा इरादा कभी सफल नहीं होगा। आतंकवाद से लड़ने का हमारा संकल्प अटूट है और और भी दृढ़ होगा।' यह कोई राजनीतिक भाषण नहीं, बल्कि एक प्रण है, कि भारत अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए जान की बाजी लगा देगा। शाह घाटी और जम्मू क्षेत्र में सुरक्षा समीक्षा कर और आतंकियों के खिलाफ बड़े स्तर पर अभियान की रणनीति बनाकर दिल्ली लौटे हैं।
हमले में शामिल आतंकियों में से तीन के रेखाचित्र जारी किए गए हैं, जिनमें से दो स्थानीय बताए जा रहे हैं। यह तथ्य विशेष चिंता का कारण है, क्योंकि यह दर्शाता है कि भले ही आतंकी संगठनों में भर्ती दर कम हुई हो, लेकिन अलगाववादी भावना अभी भी कुछ हिस्सों में सुलग रही है। ये आग कब भड़क उठे, कोई नहीं जानता। इस हमले के बाद सुरक्षा बलों ने व्यापक तलाशी अभियान शुरू कर दिया है। ऐसा संदेह है कि कुछ आतंकवादी अब भी जंगलों में छिपे हो सकते हैं और सुरक्षा बलों पर नजर बनाए हुए हैं। हर कदम पर खतरा है, और भारत को हर पल सतर्क रहना होगा।
हालांकि महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) जैसे दलों ने हमलों के खिलाफ बंद का समर्थन किया है, लेकिन उनकी शिकायत आधारित राजनीति ने अलगाव और असंतोष की भावना को बल ही दिया है। यह कोई रहस्य नहीं, बल्कि एक कड़वी सच्चाई है, कि कुछ राजनेता अपने राजनीतिक लाभ के लिए घाटी में अशांति का माहौल बनाए रखना चाहते हैं। वर्षों से चली आ रही यह नीति अब घाटी में आतंकवादी नेटवर्क के लिए एक संवेदनशील जमीन तैयार करने में योगदान दे रही है।
हुर्रियत नेताओं और हवाला फंडिंग नेटवर्क पर कार्रवाई के बाद, पाकिस्तान की सैन्य और खुफिया प्रतिष्ठान नई रणनीतियों की तलाश में हैं। पहलगाम जैसे हमलों के जरिये वह कश्मीर घाटी में उग्रवाद को फिर से जीवित करना चाहता है। यह कोई खेल नहीं, बल्कि एक साजिश है, कि पाकिस्तान कश्मीर को कभी भी चैन से नहीं रहने देगा। भले ही पाकिस्तान की नागरिक सरकार ने हमले में किसी भी तरह की संलिप्तता से इनकार किया हो, लेकिन यह सर्वविदित है कि सैन्य प्रतिष्ठान और आईएसआई अपने एजेंडे पर स्वतंत्र रूप से काम करते हैं, जिनकी जानकारी अक्सर नागरिक नेतृत्व को भी नहीं होती। यह कोई नई बात नहीं है, पाकिस्तान की राजनीति में सेना का दखल हमेशा से रहा है।
भारत ने अतीत में भी आतंकवादी हमलों के जवाब में सैन्य विकल्पों पर विचार किया था, परंतु तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने संयम दिखाया। 2001 संसद हमले के बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ऑपरेशन पराक्रम के तहत सीमाओं पर सैन्य जमावड़ा किया, लेकिन खुला युद्ध नहीं हुआ। 2008 के मुंबई हमलों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सैन्य विकल्पों पर विचार तो हुआ, परंतु अंततः कार्रवाई नहीं की गई। कारण कुछ भी रहे हों, लेकिन संयम का संदेश स्पष्ट था।
हालाँकि मोदी सरकार के आने के बाद, जवाबी नीति में निर्णायक बदलाव आया। 2015 म्यांमार ऑपरेशन में एनएससीएन-के विद्रोहियों के खिलाफ सफल सीमा पार हमले किए गए। 2016 में उरी हमला के बाद पहली बार सार्वजनिक रूप से सर्जिकल स्ट्राइक कर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकी लॉन्च पैड तबाह किए गए। 2019 के पुलवामा हमला के जवाब में बालाकोट एयरस्ट्राइक ने पाकिस्तान को बड़ा रणनीतिक संदेश दिया कि भारत अब आतंकवादी गतिविधियों को बिना प्रतिक्रिया के नहीं छोड़ेगा। यह कोई बदलाव नहीं, बल्कि एक क्रांति है, कि भारत ने अब चुप रहने की नीति त्याग दी है।
पहलगाम के घाव गहरे हैं, लेकिन भारत का संकल्प चट्टान की तरह अटल है। अब यह देखना होगा कि भारत अपनी इस प्रतिबद्धता को कैसे निभाता है।
पाकिस्तान भले ही इन हमलों से किसी नुकसान से इनकार करता रहा, पर ज़मीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। बालाकोट क्षेत्र को डेढ़ महीने तक बंद रखना, जैसे झूठ को छुपाने के लिए किसी लाश को दफनाने की कोशिश हो। पर सच तो आखिर सच ही होता है, वो छिपता नहीं है, चीखता है।
अब वो दौर नहीं रहा जब भारत सिर्फ निंदा करता था, हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता था। आज, भारत के पास सीमित संघर्ष और विशेष अभियानों के कई परिष्कृत विकल्प हैं – जैसे किसी कुशल शल्य चिकित्सक के पास मौजूद आधुनिक उपकरण। राफेल जैसे लड़ाकू विमानों ने तो मानो भारत के हौसले को पंख लगा दिए हैं। अब लंबी दूरी से भी अचूक वार करना मुमकिन है, दुश्मन की नींद हराम करना मुमकिन है।
पहलगाम के उस लहू-लुहान मंजर के बाद, भारत की प्राथमिकता है – उन आतंकवादियों के ज़हरीले नेटवर्क को जड़ से उखाड़ फेंकना, उन अलगाववादी भावनाओं को शांत करना जो ज़मीन के अंदर सुलग रही हैं, और दुनिया को पाकिस्तान के असली चेहरे से रूबरू कराना।
भारत अब उस दौर से बहुत आगे निकल चुका है, जब वह सिर्फ कूटनीतिक विरोध या प्रतीकात्मक प्रतिक्रिया तक सीमित रहता था। आज की भारतीय नीति में धैर्य भी है, दृढ़ता भी है और एक साफ-सुथरी सोच भी। ये सोच कहती है – 'बर्दाश्त की भी एक हद होती है'। पहलगाम जैसे हमलों का जवाब भी इसी सोच का हिस्सा होगा। आतंक के आकाओं को ऐसा सबक सिखाना है, कि उनकी आने वाली नस्लें भी खौफ से कांप उठें। हर विकल्प खुला है, हर रास्ते पर चलने को भारत तैयार है।
पाकिस्तानी 'डीप स्टेट' – यानी सेना और खुफिया एजेंसियों का वो मकड़जाल, जो दशकों से इस इलाके में अपना ज़हर घोल रहा है। वो सिर्फ क्षेत्रीय समीकरणों को ही नहीं बिगाड़ रहा, बल्कि दुनिया भर के ताक़तवरों को अपनी धौंस दिखाता है। वो बार-बार ये याद दिलाता है कि उसे नज़रअंदाज़ करना कितना भारी पड़ सकता है। पहलगाम में हुए खूनी खेल को भी इसी साज़िश का एक हिस्सा मानना होगा। वो भारत की चमक को फीका करना चाहता है, मोदी जी की मज़बूत छवि को मिटाना चाहता है। पर क्या वो ये समझता है कि आग से खेलने वाले अपने ही हाथ जला बैठते हैं?
पाकिस्तान ये जताना चाहता है कि वो आज भी इस इलाके में आग लगाने की ताकत रखता है। वो अमेरिका जैसे ताक़तवर देशों को भी ये संदेश देना चाहता है कि भले ही उसका दबदबा थोड़ा कम हो गया हो, पर उसके पुराने दोस्त और उसके नीतिगत तौर-तरीके अभी भी दुनिया की चाल को बदल सकते हैं। पर क्या वो ये नहीं जानता कि झूठ के पांव नहीं होते?
पर हाल के सालों में, पाकिस्तान की चालबाज़ियाँ ज्यादा काम नहीं आईं। अफ़गानिस्तान में तालिबान के आने से उसे लगा कि उसे 'रणनीतिक गहराई' मिल गई, पर जल्द ही उसे पता चल गया कि तालिबान उसकी कठपुतली बनने को तैयार नहीं है। उलटा, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने खुद पाकिस्तान के अंदर धमाके करने शुरू कर दिए, बलूच लड़ाकों ने सेना को सबके सामने बेइज़्ज़त किया, और सरहदों पर जंग छिड़ गई। क्या ये किसी बुरे सपने से कम था?
रावलपिंडी के जनरलों की गलतियाँ बार-बार सामने आ रही हैं। वो शायद ये सोचते हैं कि भारत में दहशत फैलाकर वो बाज़ी पलट सकते हैं, पर उन्हें ये नहीं पता कि उनकी ये सोच कितनी खोखली है। वो शायद ये भी मानते हैं कि भारत में वक्फ बोर्ड जैसे मामलों पर जो तकरार चल रही है, या फिर अनुच्छेद 370 को लेकर जो गुस्सा है, वो उन्हें मौका देगा कि वो शांत पानी में भी हलचल मचा सकें। पर वो ये भूल जाते हैं कि भारत अब जाग चुका है, और वो उनकी हर चाल को नाकाम करने के लिए तैयार है।
पर भारत की बदली हुई सोच ने उनके सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया। सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट एयरस्ट्राइक ने बता दिया कि भारत अब डरने वाला नहीं है, अब झुकने वाला नहीं है। अब भारत सिर्फ विरोध नहीं करता, अब वो वार करता है, वो भी ऐसा कि दुश्मन सात पीढ़ी तक याद रखे।
पहलगाम हमला एक चेतावनी है, एक कड़वी हकीकत है कि सुरक्षा में अब भी कुछ कमियाँ हैं। हमें अपने तौर-तरीकों पर फिर से विचार करना होगा। राष्ट्रीय राइफल्स जैसी अनुभवी टुकड़ियों को और ताक़त देनी होगी, क्योंकि वो उस इलाके को अच्छी तरह से जानती हैं, वहाँ के लोगों को समझती हैं। हमें अपने पुराने 'जासूसों' को फिर से ज़िंदा करना होगा, क्योंकि वही ज़मीन पर होने वाली हर गतिविधि की खबर ला सकते हैं। हमें ये भी देखना होगा कि हमारी खास फ़ोर्स, जम्मू-कश्मीर पुलिस, एनएसजी, और सेना की टुकड़ियाँ आपस में मिलकर कैसे काम करती हैं।
सबसे ज़रूरी है कि हम ये पता करें कि पहलगाम में क्या गलती हुई थी, ताकि हम भविष्य में ऐसे हमलों को रोक सकें। ग़लती करने वाला कितना भी ताक़तवर हो, उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए, ताकि कोई दूसरा ऐसी हिमाकत करने की सोचे भी ना।
अच्छी बात ये है कि इस बार पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तान को दुनिया में कोई दोस्त नहीं मिला। वक्फ बोर्ड जैसे मुद्दों पर हमारे देश में भले ही थोड़ी बहस हुई हो, लेकिन कहीं से भी कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं आई, ना ही मुस्लिम देशों ने हमारा विरोध किया।
ये भी एक सच्चाई है कि आज किसी को ये भी याद नहीं कि पाकिस्तान का राजदूत भारत में कौन है। एक वक़्त था जब दिल्ली में उनके दफ़्तर की बड़ी चर्चा होती थी, मीडिया में उनकी खूब वाह-वाही होती थी। पर अब हालात बदल गए हैं। अब अगर पाकिस्तान दोस्ती का हाथ भी बढ़ाता है, या क्रिकेट खेलने का प्रस्ताव भी देता है, तो हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तान को फिर से हमारी बातचीत के एजेंडे में शामिल होने का मौका मिल गया है, पर अब हालात वैसे नहीं हैं जैसे जनरल मुनीर ने सोचे थे। भारत अब जाग चुका है, वो सिर्फ सरहदों की रक्षा नहीं कर रहा, बल्कि अपनी आत्मा की रक्षा कर रहा है। अब वो समझ गया है कि उसे कब शांत रहना है, और कब दहाड़ना है।
पाकिस्तान की 'डीप स्टेट' अब भी अपनी पुरानी चालें चल रही है, पर भारत ने एक नई सोच अपना ली है। वो अब पहले से ज्यादा मज़बूत है, ज्यादा समझदार है, और ज्यादा आक्रामक है। और यही नया भारत, भविष्य में हर साज़िश को नाकाम करने के लिए तैयार है। लहू से सनी वादियों से उठा ये संकल्प, अब कभी कमज़ोर नहीं पड़ेगा।

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