आवरणकथा- तरुणाघातः पड़ोस में उबाल, भारत में सवाल
संदीप कुमार
| 30 Sep 2025 |
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दक्षिण एशिया की राजनीति एक अप्रत्याशित मोड़ पर खड़ी है। बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों में 'जेन-ज़ेड' ने पारंपरिक सत्ता को चुनौती दी और उसे हिला कर रख दिया। यह विद्रोह केवल आर्थिक निराशा या भ्रष्टाचार के खिलाफ़ नहीं, बल्कि एक ऐसे राजनीतिक कुलीन वर्ग के प्रति गहरा मोहभंग है, जिसने उनकी आकांक्षाओं को लगातार नज़रअंदाज़ किया। इस क्षेत्रीय उथल-पुथल ने भारत को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या यह लहर उसके तटों तक भी पहुँच सकती है, और भारत की अपनी सामाजिक-राजनीतिक संरचना ऐसे आंदोलनों को किस हद तक प्रभावित कर सकती है।
बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल जैसे भारत के पड़ोसी देशों में, एक नई पीढ़ी – 'जेन-ज़ेड' – ने अपने देशों की नियति को सीधे चुनौती दी है। सड़कों पर उतरे इन युवाओं ने न केवल स्थापित सत्ता को हिला दिया, बल्कि कई मामलों में उन्हें उखाड़ फेंका। यह आर्थिक निराशा, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और एक ऐसे राजनीतिक कुलीन वर्ग के प्रति गहरा मोहभंग है, जिसने उनकी आकांक्षाओं को लगातार अनदेखा किया है। इन आंदोलनों ने भारत को एक तरह से शामिल पर्यवेक्षक की भूमिका में ला खड़ा किया है; दिल्ली में नीति-निर्माता और आम नागरिक दोनों ही इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या यह क्षेत्रीय लहर भारत के तटों तक भी पहुँच सकती है? भारत की बहुलतावादी संस्कृति, मज़बूत संस्थागत ढाँचा और युवाओं के साथ सत्ताधारी दलों का जटिल संबंध, ऐसे आंदोलनों की संभावनाओं को किस हद तक प्रभावित करता है, यह समझना आज की भू-राजनीतिक वास्तविकता के लिए अपरिहार्य है।
पड़ोसी देशों में आक्रोश की गूँज का भारत पर प्रभाव
नेपाल का धधकता 'जेन-ज़ेड विद्रोह', श्रीलंका का 'अरगलय' और बांग्लादेश का 'द्वितीय मुक्ति' – ये सिर्फ़ कुछ देशों की स्थानीय समस्याएँ नहीं हैं, बल्कि यह एक व्यापक क्षेत्रीय असंतोष का प्रतिबिंब है, जहाँ युवा पीढ़ी ने निष्क्रिय और भ्रष्ट शासन के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की है। इन आंदोलनों में तात्कालिक ट्रिगर अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन इनकी जड़ें आर्थिक कुप्रबंधन, अवसरों की कमी और एक ऐसे राजनीतिक तंत्र में गहरी थीं, जिसने जनता के विश्वास को पूरी तरह से खोखला कर दिया था।
पड़ोसी देशों में राजनीतिक उथल-पुथल का भारत पर बहुआयामी और गहरा प्रभाव पड़ता है, जो सिर्फ़ सीमा सुरक्षा तक सीमित नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था और आंतरिक राजनीतिक विमर्श तक फैला हुआ है।
सबसे पहले, सीमा सुरक्षा और अप्रवासी प्रवाह एक बड़ी चिंता का विषय है। नेपाल में विरोध प्रदर्शनों के दौरान बड़े पैमाने पर जेल ब्रेक और कैदियों के भागने की खबरें आई हैं। 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' ने बताया कि नेपाल के विरोधों के दौरान लगभग 13,500 कैदी जेलों से भागे, जिनमें से कई भारत में वांछित अपराधी भी हो सकते हैं। भारत की खुली सीमाएँ ऐसी स्थितियों में अवैध अप्रवास, तस्करी और सीमा पार अपराधों के लिए एक आसान मार्ग बन जाती हैं, जिससे आंतरिक सुरक्षा तंत्र पर भारी दबाव पड़ता है। यह भारत के लिए अपनी सीमा प्रबंधन रणनीतियों पर गंभीरता से पुनर्विचार करने का समय है।
दूसरे, आर्थिक और व्यापारिक व्यवधान भी एक महत्वपूर्ण पहलू है। भारतीय कंपनियों को नेपाल में व्यापारिक व्यवधानों का सामना करना पड़ा है। हिंदुस्तान यूनिलीवर, ब्रिटानिया, डाबर, मैरिको और बीकाजी जैसी बड़ी भारतीय एफएमसीजी कंपनियों ने नेपाल में अपने संचालन में बाधाएँ महसूस कीं। ब्रिटानिया को अपने सिमारा प्लांट में काम रोकना पड़ा, और डाबर को कर्मचारियों के लिए 'घर से काम' के आदेश जारी करने पड़े। बीकाजी की चौधरी समूह के साथ संयुक्त उद्यम परियोजना भी विलंबित हो गई। हालाँकि ये कंपनियाँ दावा करती हैं कि नेपाल उनके कुल राजस्व का एक छोटा हिस्सा है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि रक्सौल-बिरगंज और सोनाली-भैरहवा जैसे प्रमुख व्यापारिक बिंदुओं पर अस्थिरता से माल की आवाजाही में भारी देरी होती है। इसके अलावा, भारत द्वारा पड़ोसी देशों में नियोजित ऊर्जा और अवसंरचना परियोजनाओं में भी अनिश्चितता के कारण देरी या रद्द होने का जोखिम बढ़ जाता है, जिससे क्षेत्रीय कनेक्टिविटी और भारत के आर्थिक प्रभाव दोनों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
तीसरे, राजनीतिक मॉडल और प्रेरणा का प्रसार एक सूक्ष्म, लेकिन शक्तिशाली प्रभाव है। पड़ोसी देशों में 'जेन-ज़ेड' द्वारा इस्तेमाल की गई रणनीतियाँ, जैसे डिस्कॉर्ड जैसे नए प्लेटफॉर्म का उपयोग करके विकेन्द्रीकृत संगठन, 'नेपोकिड्स' जैसे अभियान और सरकार विरोधी भावनाओं को सोशल मीडिया पर संगठित करना, भारतीय युवाओं के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बन सकती हैं। यदि भारतीय युवा संगठन भी ऐसी रणनीतियाँ अपनाते हैं, तो राजनीतिक संवाद का तरीका बदल सकता है और विरोध प्रदर्शनों की दृश्यता में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है, जिससे पारंपरिक राजनीतिक दलों पर दबाव बढ़ेगा।
चौथे, मीडिया और नैरेटिव युद्ध भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का एक अहम हिस्सा बन गया है। जब पड़ोसी देशों में आंदोलनों को भारतीय मीडिया और राजनीतिक दल 'बाहरी शक्ति हस्तक्षेप', 'राजशाही वापसी' या 'ग्राम्य अस्थिरता' जैसे सुविधाजनक फ्रेम में प्रस्तुत करते हैं, तो ये नैरेटिव भारतीय जनमानस, विशेषकर युवाओं की मनोवृत्तियों को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय मीडिया ने नेपाल के जेन-ज़ेड विरोध प्रदर्शनों को मुख्य रूप से 'राजशाही बहाली' के रूप में गलत तरीके से प्रस्तुत किया, जबकि प्रदर्शनकारियों के मुख्य मुद्दे भ्रष्टाचार और असमानता थे। इस तरह की रिपोर्टिंग अक्सर असली मुद्दों को गौण कर देती है और राष्ट्रवादी या धार्मिक एजेंडे को बढ़ावा देती है, जिससे एक गलत धारणा बनती है और भारत की विदेश नीति के प्रति क्षेत्रीय देशों में अविश्वास पैदा हो सकता है। 'कठमांडू पोस्ट' के पूर्व संपादक दिनेश काफले जैसे विश्लेषक मानते हैं कि भारतीय मीडिया, ख़ासकर सत्ताधारी दल के करीब के आउटलेट्स, विदेश मंत्रालय के लेंस से पड़ोसी देशों को देखते हैं, जो कहानी को अक्सर 'सरकार को खुश करने' के लिए फ्रेम करते हैं।
भारत में जेन-ज़ेड क्रांति क्यों नहीं: एक अभेद्य दीवार?
हालाँकि भारत में बड़े पैमाने पर एकीकृत 'जेन-ज़ेड क्रांति' का स्वरूप अभी नहीं दिखता, लेकिन लद्दाख में सोनम वांगचुक के नेतृत्व में चला आंदोलन यह संकेत देता है कि स्थानीय स्तर पर असंतोष किस तरह राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बन सकता है। यहाँ युवाओं और नागरिक समाज ने पर्यावरण संरक्षण, छठी अनुसूची की माँग और पारिस्थितिक सुरक्षा को लेकर विरोध दर्ज किया। यह इस बात का उदाहरण है कि भारत की विविधता और विकेंद्रीकरण, जो बड़े आंदोलन को रोकते हैं, वही छोटे-छोटे क्षेत्रीय आंदोलनों को जन्म देते हैं। लद्दाख का यह विद्रोह बताता है कि भारत में असंतोष सतह के नीचे लगातार सुलग रहा है, और अगर ऐसे आंदोलनों को नजरअंदाज किया गया तो यह 'मॉडल केस' बनकर अन्य हिस्सों में भी गूँज सकता है।
पड़ोसी देशों में क्रांति का सैलाब उमड़ने के बावजूद, भारत अभी तक एक व्यापक, सत्ता-उखाड़ने वाले 'जेन-ज़ेड' आंदोलन से अछूता रहा है। यह भारत की विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक संरचना में निहित है, जो ऐसे आंदोलनों की संभावनाओं को संतुलित करती है या उन्हें दबाती है।
बहुलतावादी समाज और असंतोष का विकेंद्रीकरण: भारत की सामाजिक संरचना अत्यधिक विविध है, जिसमें भाषा, संस्कृति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर गहरी विविधताएँ हैं। जब युवाओं में असंतोष पैदा होता है, तो वह अक्सर एक विशेष क्षेत्र, समुदाय या सामाजिक समूह के स्तर पर संगठित होता है, जिससे पूरे देश में एक सुसंगठित और एक समान युवा आंदोलन का बनना बेहद मुश्किल हो जाता है। यह विविधता विरोध की ऊर्जा को विकेंद्रीकृत कर देती है, जिससे वह एक राष्ट्रीय शक्ति में तब्दील नहीं हो पाती।
स्थानीय राजनीतिक दलों की गहरी जड़ें और ऊर्जा का आत्मसात होना: भारत में राजनीतिक पार्टियाँ, जिनमें क्षेत्रीय दल भी शामिल हैं, लगभग हर राज्य स्तर पर गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। युवा कार्यकर्ता और छात्र संगठन अक्सर इन पार्टी संरचनाओं के भीतर काम करते हैं, जिससे उनकी आवाज़ को पार्टी के माध्यम से व्यक्त करने का एक चैनल मिलता है। इस वजह से, विरोध प्रदर्शन अधिकतर 'स्थानीय मुद्दों' पर केंद्रित रहते हैं और राष्ट्रीय स्तर के युवा विद्रोह की प्रचंड लहर बनने में देरी होती है, क्योंकि पार्टी तंत्र विरोध की ऊर्जा को आत्मसात कर उसे 'नियंत्रित' कर लेता है।
राजनीतिक अभिव्यक्ति के कई सुरक्षित विकल्प: भारत में चुनाव, विधानसभाएँ, पंचायतें, मीडिया और न्यायालय जैसे मज़बूत संस्थागत माध्यम हैं जहाँ युवा अपनी अपेक्षाएँ व्यक्त कर सकते हैं। प्रेस की स्वतंत्रता, कुछ सीमाओं के बावजूद, अभिव्यक्ति के कई प्लेटफॉर्म प्रदान करती है। छात्र आंदोलन भी नियमित रूप से होते रहते हैं। ये विकल्प युवाओं की 'सड़क पर उतरने की प्रेरणा' को कुछ हद तक संतुष्ट कर देते हैं और उन्हें व्यापक अराजकता फैलाने वाले विरोध प्रदर्शनों से दूर रखते हैं, क्योंकि उनके पास शिकायत दर्ज करने और बदलाव की माँग करने के कई 'सुरक्षित' चैनल मौजूद हैं।
सत्ताधारी दल की 'स्मार्ट' रणनीति और युवा संबंध: वर्तमान भारतीय सत्ताधारी दल, विशेषकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), ने युवा-मतदाता वर्ग और डिजिटल मीडिया पर काफी काम किया है। युवा-उन्मुख योजनाएँ, डिजिटल पहुँच, और सांस्कृतिक प्रतीकों का प्रभावी इस्तेमाल करके युवाओं की अपेक्षाओं को प्रबंधित करने की कोशिश की गई है। इसके साथ ही, सोशल मीडिया पर 'ट्रोल आर्मी' और नैरेटिव कंट्रोल के माध्यम से सरकार विरोधी आवाज़ों को दबाने का प्रयास भी होता है, जिससे यह धारणा कि केवल विरोध ही एकमात्र विकल्प है, कुछ हद तक कम हुई है।
सांस्कृतिक सहिष्णुता और सामाजिक नियंत्रण के अंतर्निहित तंत्र: भारत में सामाजिक नियंत्रण के कई निहित तंत्र हैं — परिवार, जाति, क्षेत्रीय नेतृत्व, मीडिया का प्रभाव और प्रशासनिक तनाव। युवा अक्सर इन निहित तंत्रों की सीमाओं में रहते हैं। जब विरोध होता है, तो वह अक्सर स्थानीय सीमाओं में नियंत्रित रहता है क्योंकि 'अराजकता' या 'विपरीत सामाजिक प्रभावों' का भय बड़ा होता है, जो बड़े पैमाने पर नागरिक अशांति को हतोत्साहित करता है। यह डर सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखने में एक अहम भूमिका निभाता है।
विपक्ष की चुनौती और युवाओं का मौन विद्रोह
विपक्षी दलों की रणनीति अक्सर बिखरी हुई लगती है, लेकिन सोनम वांगचुक का आंदोलन दिखाता है कि स्वतंत्र नेतृत्व और सामाजिक मुद्दों पर आधारित लामबंदी भी प्रभावी हो सकती है। लद्दाख में न तो कोई बड़ा राजनीतिक दल मुखर था और न ही चुनावी समीकरणों का दबाव, फिर भी युवाओं और स्थानीय समाज ने एकजुट होकर लोकतांत्रिक तरीकों से अपनी आवाज़ बुलंद की। यह मौन विद्रोह उस भारतीय परिदृश्य को दर्शाता है जहाँ संगठनहीन विपक्ष के बावजूद जनता स्वयं मुद्दे तय करती है और उन्हें राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बना देती है। यह संकेत है कि भारत के युवाओं को संगठित करने की क्षमता केवल राजनीतिक दलों तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय आंदोलनों में भी निहित है।
भारत के विपक्षी दलों ने पड़ोसी देशों में हुए जेन-ज़ेड आंदोलनों को देखते हुए, ऐसे ही आंदोलनों की गुंजाइश भारत में भी तलाशने की कोशिश की है। उन्होंने बेरोजगारी, शिक्षा और आर्थिक असमानता जैसे मुद्दों पर युवाओं की नाराजगी को भुनाने का प्रयास किया है। हालांकि, उन्हें भारतीय जेन-ज़ेड से अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं मिली है, जिसके कई कारण हैं:
विरोधी दलों की रणनीति में कमी और विश्वसनीयता का संकट: विपक्षी दलों में, खासकर कांग्रेस में, अक्सर एक ठोस रणनीति का अभाव दिखता है, विशेषकर युवाओं को संगठित करने और उनकी चिंताओं को राष्ट्रीय आंदोलन में बदलने के लिए। राहुल गांधी जैसे युवा नेता स्वयं को नेतृत्व की एक नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन उनके संवाद के पुराने ढंग, संचार की बाधाएँ और मीडिया तथा प्रवर्तन तंत्र का दबाव उनके विरोध प्रदर्शनों को सीमित कर देता है। विपक्षी दलों के बीच एकता की कमी और विश्वसनीयता का संकट भी युवाओं को उनके साथ जुड़ने से रोकता है।
युवा जनसंख्या का विचलित होने का पैटर्न और डिजिटल असंतोष: भारतीय युवा सोशल मीडिया पर अत्यधिक सक्रिय हैं और अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं। लेकिन यह अभिव्यक्ति अक्सर 'निराशा', 'वोट बॉयकॉट' या 'नोटा' के रूप में होती है, बजाय इसके कि वे बड़े पैमाने पर सड़क पर उतरकर राज्य व्यवस्था को पलटने की ताकत या संसाधन जुटा सकें। उनके असंतोष की ऊर्जा ऑनलाइन 'मीम्स' और पोस्ट में बदल जाती है, जो सड़क पर उतरने की ऊर्जा में तब्दील नहीं हो पाती।
भय और व्यक्तिगत जोखिम की गहरी अनुभूति: प्रदर्शनों पर पुलिस कार्रवाई, सोशल मीडिया की निगरानी, वैधानिक एवं गैर-वैधानिक दबाव की संभावना, और मीडिया पर संभावित सेंसरशिप की आशंका युवा आंदोलनकारियों को जागरूक करती है कि बड़े स्तर पर सड़क पर उतरना व्यक्तिगत जोखिम भरा हो सकता है। यह 'साइलेंसिंग इफेक्ट' बड़े आंदोलनों को बनने से रोकता है, क्योंकि युवा अपने भविष्य और करियर को दांव पर लगाने से डरते हैं।
सर्वेक्षण की अंतर्दृष्टि
आबजर्बर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) के विदेशी नीति सर्वेक्षण, जिसमें 18 से 35 वर्ष की आयु के 5,000 भारतीय युवाओं को शामिल किया गया था, से भारतीय युवाओं की अपने पड़ोस के प्रति दिलचस्प और बहुआयामी धारणाएँ सामने आती हैं:
दक्षिण एशिया का रणनीतिक महत्व और 'पड़ोस पहले' नीति की स्वीकार्यता: भारतीय युवाओं के लिए दक्षिण एशिया (36%) सबसे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जो दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य एशिया और इंडो-पैसिफिक जैसे अन्य क्षेत्रों से अधिक है। अधिकांश भारतीय युवा (79%) मानते हैं कि भारत की 'पड़ोस पहले' नीति पर्याप्त रूप से परिभाषित है और व्यापार (86%), सुरक्षा (81%), जन-संपर्क (79%), सांस्कृतिक संबंध (75%), बुनियादी ढाँचा और कनेक्टिविटी (71%), तथा राजनीतिक जुड़ाव (68%) जैसे क्षेत्रों में काफी हद तक पर्याप्त रही है। 72% उत्तरदाताओं ने सार्क (SAARC) के पुनरुद्धार का समर्थन किया, जो क्षेत्रीय संस्थागतकरण के प्रति उनकी गहरी रुचि को दर्शाता है।
सकारात्मक धारणा और मीडिया का प्रभाव: अधिकांश भारतीय युवा श्रीलंका, मालदीव, भूटान, नेपाल और बांग्लादेश जैसे छोटे दक्षिण एशियाई देशों को सकारात्मक रूप से देखते हैं। हालाँकि, नेपाल के प्रति धारणा 2021 के सर्वेक्षण में नकारात्मक थी, जो केपी शर्मा ओली की भारत-विरोधी नीति और लिपुलेख गतिरोध के दौरान भारतीय मीडिया की नकारात्मक कवरेज के कारण थी। बाद में शासन परिवर्तन और द्विपक्षीय संबंधों में सुधार के कारण यह धारणा सकारात्मक हो गई। यह दर्शाता है कि मीडिया कवरेज, विशेषकर सीमावर्ती राज्यों में, युवाओं की धारणा को काफी हद तक प्रभावित करता है।
पहचान और राजनीतिक तनाव के प्रति प्रतिरक्षा: भारत की जटिल जातीय संरचना, आकार और संघीय ढाँचा इसे पड़ोसी देशों में अक्सर इस्तेमाल होने वाली भारत-विरोधी भावनाओं के प्रति कुछ हद तक प्रतिरक्षित करता है। पड़ोसी देशों के राजनेता और मीडिया वर्ग अक्सर राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काने के लिए भारत-विरोधी भावनाओं का उपयोग करते हैं, लेकिन भारत में इसकी जटिल विविधता और लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ इस तरह के एकतरफा नैरेटिव को कम प्रभावी बनाती हैं।
निराशा का क्षण: भारत को क्या सीखना चाहिए?
लद्दाख आंदोलन भारत के लिए आईना है—यह बताता है कि असंतोष केवल पड़ोसी देशों में ही नहीं, बल्कि भारत के भीतर भी पनप रहा है। सोनम वांगचुक के नेतृत्व में उठी माँगें यह दर्शाती हैं कि आज का युवा केवल सत्ता से नाराज़ नहीं है, बल्कि भविष्य की सुरक्षा और सतत विकास की गारंटी चाहता है। यह वही ऊर्जा है जो जेन-ज़ेड क्रांतियों को जन्म देती है: अवसर, पारदर्शिता और भागीदारी। यदि भारत समय रहते ऐसे स्थानीय संकेतों को गंभीरता से नहीं लेता, तो यह निराशा बड़े आंदोलनों का रूप ले सकती है। भारत को सीखना होगा कि लोकतंत्र केवल चुनावी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि नागरिकों की वास्तविक आकांक्षाओं को सुनने और उन्हें नीति में बदलने की सतत प्रक्रिया है।
भारत इस समय एक चौराहे पर खड़ा है। पड़ोस में 'जेन-ज़ेड' क्रांतियों को देखते हुए, भारत को आत्म-निरीक्षण करना होगा। भारत की विशालता और विविधता, जो अब तक इसे अशांति से बचाती आई है, यदि बड़े पैमाने पर असंतोष पनपता है, तो वही इसकी पतन को बढ़ा सकती है। यह केवल स्थिरता बनाए रखने का सवाल नहीं, बल्कि लोकतंत्र के नवीनीकरण और युवाओं की आकांक्षाओं को मुख्यधारा में लाने का भी है।
संवाद और भागीदारी के अवसर: भारत को अपने युवाओं की आकांक्षाओं को गंभीरता से सुनना होगा। यह सिर्फ़ योजनाएँ बनाने से नहीं होगा, बल्कि उन्हें राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल करने, उनके संवाद और भागीदारी के अवसर बढ़ाने से होगा। युवा मंचों, डिजिटल संवादों और जमीनी स्तर पर जुड़ाव के माध्यम से उनकी आवाज़ को सुना जाना चाहिए।
शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही: भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद, जो पड़ोसी देशों में आक्रोश का मुख्य कारण बने, भारत में भी एक चुनौती हैं। सरकार को पारदर्शिता और जवाबदेही को मजबूत करना होगा, ताकि युवाओं में व्यवस्था के प्रति विश्वास बना रहे। ई-गवर्नेंस और त्वरित न्याय प्रणाली ऐसे उपायों में शामिल हो सकते हैं।
रोजगार और आर्थिक अवसर: उच्च बेरोजगारी दर, विशेषकर युवाओं में, एक विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकती है। भारत को समावेशी आर्थिक विकास सुनिश्चित करना होगा जो पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसर पैदा करे। कौशल विकास, उद्यमिता को बढ़ावा देना और शिक्षा को बाज़ार की माँगों के अनुरूप ढालना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम होंगे।
मीडिया की भूमिका में सुधार: भारतीय मीडिया को पड़ोसी देशों के मामलों को सनसनीखेज बनाने या राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप ढालने के बजाय, गहन और निष्पक्ष रिपोर्टिंग पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। 'कठमांडू पोस्ट' के पूर्व संपादक दिनेश काफले के अनुसार, भारतीय मीडिया को 'मंत्रालय के विस्तार' के रूप में काम करना बंद करना चाहिए और जमीनी हकीकत को दर्शाना चाहिए। यह न केवल क्षेत्रीय संबंधों के लिए बेहतर होगा, बल्कि भारत के भीतर भी विश्वसनीय संवाद को बढ़ावा देगा।
लोकतंत्र का निरंतर नवीनीकरण: भारत की राजनीति एक परीक्षा पर है। क्या वह केवल 'स्थिरता' बनाए रखेगी, या नवयुवा उम्मीदों को अपने एजेंडे में शामिल करेगी? यदि विकल्पों में सही समय पर बदलाव नहीं हुआ, तो पड़ोसी देशों में हो रहे विरोध प्रदर्शन केवल वहीं सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि भारत के लिए भी एक कठोर वास्तविकता बन सकते हैं। लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए, सरकार को 'जेन-ज़ेड' की आवाज़ को सुनना होगा – देश के भविष्य के संरक्षक के रूप में। उन्हें अनदेखा करना लोकतंत्र की नींव के साथ जुआ खेलने जैसा होगा।
निष्कर्ष
दक्षिण एशिया में जेन-ज़ेड के नेतृत्व वाले आंदोलनों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि युवा पीढ़ी अपने भविष्य को पुराने राजनीतिक कुलीन वर्ग के हाथों में छोड़ने को तैयार नहीं है। यह एक स्पष्ट संदेश है कि सत्ता केवल शक्ति या चुनावों से नहीं, बल्कि जनभावना, अवसरों, पारदर्शिता और युवाओं की उम्मीदों से मापी जाएगी। भारत को अपने पड़ोसियों के अनुभव से सीखना होगा। भारत की नेतृत्व और विरोधी दोनों पार्टियों को इस यथार्थ को समझना चाहिए कि यहीं खतरा नहीं, बल्कि अवसर है। यदि भारत युवा अपेक्षाओं को बेहतर तरीके से अपनाता है, उनके संवाद और भागीदारी के अवसर बढ़ाता है, तो न केवल सामाजिक संतुष्टि बढ़ेगी बल्कि लोकतंत्र भी मजबूत होगा। जेन-ज़ेड ने एजेंडा तय कर दिया है। अब यह क्षेत्रीय नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वह इस ऊर्जा को स्थायी और सकारात्मक दिशा देता है, या इसे अराजकता के चक्र में खो जाने देना चाहता है, जिसका भारत पर भी गंभीर प्रभाव पड़ना तय है। भारत के लिए यह एक आत्म-जागरूकता का क्षण है, जब उसे अपनी आंतरिक चुनौतियों और क्षेत्रीय गतिशीलता के बीच एक संतुलन स्थापित कर, अपने लोकतंत्र को भविष्य के लिए तैयार करना होगा।