BMD का सवाल, सुरक्षा या सर्वनाश?
संदीप कुमार
| 01 Aug 2025 |
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भारत के दोनों पड़ोसी देश परमाणु ताक़त से लैस हैं और उनके साथ भारत के रिश्ते भी बहुत अच्छे नहीं हैं। इन हालातों में भारत के लिए अपनी सुरक्षा के लिहाज़ से उन्नत बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस (BMD) होना बेहद अहम है। एक और अहम बात यह भी है कि जिस तरह से चीन लगातार विकसित BMD क्षमताएं हासिल कर रहा है, इसके बाद तो भारत के लिए बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस क्षमता हासिल करना और भी ज़रूरी हो जाता है। पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) ने अपनी रक्षा क्षमता में ज़बरदस्त छलांग लगाते हुए HQ-29 नाम की एक नई बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली विकसित की है और ज़ल्द ही वो इसे आधिकारिक रूप से अपनी सेना का हिस्सा बनाने की तरफ बढ़ रहा है। माना जा रहा है कि चीन की HQ-29 बीएमडी प्रणाली उसकी HQ-19 BMD प्रणाली से अधिक उन्नत है और यह काफ़ी कुछ अमेरिका की बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस प्रणाली THAAD यानी थिएटर हाई एल्टीट्यूड एरिया डिफेंस प्रणाली जैसी है। ज़ाहिर है कि चीन के पास फिलहाल जो भी बहु-स्तरीय मिसाइल रक्षा प्रणालियां मौज़ूद हैं उनमें HQ-29 बीएमडी सिस्टम सबसे उन्नत है और इसकी मारक क्षमता बहुत ज़्यादा है। इस बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली को इस प्रकार तैयार किया गया है कि यह हाई-एंड बैलिस्टिक मिसाइलों का पता लगाने और उन्हें समाप्त करने में सक्षम होगी, साथ ही पृथ्वी के वायुमंडल के बाहर बैलिस्टिक मिसाइलों को बीच रास्ते में रोकने और उन्हें नष्ट करने में भी सक्षम होगी। चीन का HQ-29 इंटरसेप्टर ज़ाहिर तौर पर हमलों को रोकने के मकसद से तैयार किया गया है, यानी इसे विकसित करने का मुख्य उद्देश्य उपग्रह युद्ध और हाइपरसोनिक हमलों को रोकना है। चीन के पास पहले से HQ-19 बीएमडी सिस्टम मौज़ूद है, जिसे भारत की अग्नि-V जैसी मध्यम दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलों (IRBMs) को बीच रास्ते में नष्ट करने के लिए विकसित किया गया है और तैनात किया है। चीन की ओर से अपनी HQ-19 BMD प्रणाली को पहले ही मंगोलिया के जिलनताई में तैनात किया जा चुका है। इसके बाद, चीन ने अब जिस HQ-29 बीएमडी प्रणाली को विकसित किया है, उससे चीन की रक्षा क्षमता में काफ़ी वृद्धि होगी और इसके बल पर चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) अपने महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचों और अपने अधिकार वाले इलाक़ों की रक्षा करने में सक्षम होगी।
भारत के कुछ चोटी के परमाणु विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को अपनी खुद की बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा (BMD) प्रणाली विकसित करने और उसे तैनात करने की ज़रूरत है। उनका कहना है कि देश के हवाई ठिकानों, परमाणु प्रतिष्ठानों, पनडुब्बी ठिकानों और सैन्य कमांड, नियंत्रण एवं संचार केंद्रों को निशाना बनाने वाले दुश्मन के परमाणु मिसाइल हमले से सुरक्षित रखने के लिए बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली को प्रमुखता के आधार पर तैनात करने की ज़रूरत है। हालांकि, उनका यह भी कहना है कि शहरों और कस्बों को ऐसे हमलों से बचाने के लिए इस प्रणाली को तैनात करने की फिलहाल ऐसी कोई ख़ास ज़रूरत नहीं है। ज़ाहिर है कि अगर देश में बड़े शहरों को सुरक्षित रखने के लिए ऐसी रक्षा प्रणाली को तैनात किया जाता है, तो इसकी लागत बहुत अधिक होगी। देखा जाए तो तीन प्रमुख वजहों से भारत में बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा से जुड़ी क्षमताओं में बढ़ोतरी की ज़रूरत जताई गई है। ख़ास तौर पर जिस प्रकार से चीन लगातार अपनी रक्षा क्षमताओं को बढ़ा रहा है और पारंपरिक एवं परमाणु दोनों तरह के हमलों के लिहाज़ से अपनी ताक़त में वृद्धि कर रहा है, उन हालातों में जितनी ज़्यादा से ज़्यादा आबादी को मिसाइल डिफेंस के दायरे में लाया जा सकता है, उसके लिए ठोस प्रयास करना चाहिए।
बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा क्षमताओं को बढ़ाने की वजह
भारत की अपनी बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा क्षमताओं को बढ़ाने के पीछे जो सबसे पहली वजह है, वो है कि भारत की एश्योर्ड डिस्ट्रिक्शन (AD) यानी सुनिश्चित विनाश या एश्योर्ड रिटैलिएशन (AR) यानी सुनिश्चित प्रतिशोध की रणनीति। भारत की यह रणनीति परमाणु हमले के ख़तरों, विशेष रूप से चीन की ओर से संभावित पर परमाणु ख़तरों को रोकने के लिहाज़ से पर्याप्त नहीं है। भारत की नो फर्स्ट यूज़ (NFU) पॉलिसी यानी पहले परमाणु हथियार इस्तेमाल नहीं करने की नीति के मद्देनज़र भारत के पास एक उन्नत बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस प्रणाली होना बेहद आवश्यक है। ऐसे इसलिए है, क्योंकि एनएफयू नीति के तहत भारत जवाबी कार्रवाई तभी करेगा जब उस पर कोई दुश्मन देश उस पर परमाणु हमला करेगा। यानी दुश्मन के परमाणु हमले को रोकने के लिए विकसित मिसाइल रक्षा प्रणाली बेहद आवश्यक है। ज़ाहिर है कि जब कोई दुश्मन देश पहले परमाणु हमला करेगा, तो यह डीकैपिटेशन स्ट्राइक हो सकती है, यानी ऐसा हमला हो सकता है, जिसमें भारत को सैन्य लिहाज़ के ख़ासा नुक़सान उठाना पड़ सकता है। जहां तक चीन की बात है, तो नो फर्स्ट यूज़ की उसकी अपनी नीति कतई स्पष्ट नहीं है। गौर करने वाली बात यह भी है कि चीन की एनएफयू नीति को लेकर किए गए कुछ गहन विश्लेषणों में यह सामने आया है कि परमाणु हथियारों के इस्तेमाल को लेकर चीन अपनी नो फर्स्ट यूज़ पॉलिसी के तहत सैद्धांतिक रूप से जितनी प्रतिबद्धता जताता है, उसको लेकर वो उतना दृढ़ नज़र नहीं आता है। ख़ास तौर पर अगर दुश्मन देश पारंपरिक हथियारों से चीन के परमाणु ठिकानों हमला करता है, उस स्थिति में चीन निश्चित तौर पर अपनी इस नीति पर अमल नहीं करेगा। इतना ही नहीं, जिस प्रकार से चीन चालाकी दिखाते हुए अपनी परमाणु और पारंपरिक सैन्य क्षमताओं को एकीकृत करने में जुटा हुआ है, ऐसे में चीन की ओर से परमाणु हथियारों के पहले इस्तेमाल की संभावना और बढ़ जाएगी। क्योंकि चीन की इस रणनीति की वजह से विरोधी देश को यह पता ही नहीं चल पाएगा को चीन के पारंपरिक सैन्य ठिकानों को निशाना बना रहा है या फिर उसकी परमाणु क्षमताओं पर लक्ष्य साध रहा है।
इसके अतिरिक्त, चीन को ऐसा लगता है किसी पारंपरिक तरीक़े से लड़े जा रहे युद्ध में अगर उसकी हार संभावित है, तो उन हालातों में वो कम से कम सीमित परमाणु हमला कर सकता है। देखा जाए तो चीन का यह सीमित परमाणु हमला भारत के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। इसकी वजह यह है कि भारत के पास चीन की तुलना में परमाणु हथियारों की संख्या बहुत कम है। भारत के पास लगभग 180 परमाणु हथियार हैं, जबकि भारत के दूसरे दुश्मन पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के पास 170 परमाणु हथियारों का जखीरा है। वहीं अगर चीन की बात की जाए उसके पास लगभग 600 परमाणु हथियारों का भंडार है। इतना ही नहीं चीन तेज़ी से अपने परमाणु हथियारों की संख्या बढ़ाने में लगा हुआ है। यानी उसकी परमाणु हथियारों को हासिल करने की गति दुनिया में किसी भी देश की तुलना में सबसे तेज़ है। युद्ध की परिस्थितियों में अगर भारत की ओर से किए जाने वाले जवाबी ज़मीनी हमलों की प्रतिक्रिया में चीन की तरफ से परमाणु हमला किया जाता है, तो यह न सिर्फ़ ज़मीन पर युद्ध लड़ रही सेना के लिए घातक होगा, बल्कि भारत के हवाई ठिकानों, परमाणु प्रतिष्ठानों और सैन्य मुख्यालयों व सैन्य नियंत्रण केंद्रों के आस-पास स्थित घनी आबादी वाले क्षेत्रों के लिए भी उतना ही विनाशकारी होगा। अगर चीन की बात की जाए तो उसकी बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणालियां, जैसे कि HQ -19 और नए HQ-29 डिफेंस सिस्टम परमाणु हथियारों से लैस मिलाइलों का हमला रोकने में सक्षम हैं और इनके ख़िलाफ एक मज़बूत रक्षा कवच का काम करती हैं। यही वजह है कि भारत की हर हाल में एश्योर्ड डिस्ट्रक्शन (AD) की नीति पर चलने की प्रतिबद्धता सामरिक और नैतिक दोनों ही नज़रिए से बेहद ख़तरनाक हैं। अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और जाने माने परमाणु रणनीतिकार स्वर्गीय हेनरी किसिंजर ने म्यूचुअल एश्योर्ड डिस्ट्रक्शन (MAD) या सुनिश्चित विनाश पर आधारित रणनीति अपनाने को लेकर अपने साथी परमाणु रणनीतिकारों से अलग विचार प्रकट करते हुए कहा था कि तत्कालीन सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका (US) AD यानी सुनिश्चित विनाश पर आधारित एक समझौते के ज़रिए अपनी परमाणु प्रतिद्वंद्विता को सही तरीक़े से संभालने में सक्षम थे। ज़ाहिर है कि हेनरी किसिंजर के कार्यकाल में ही सोवियत संघ और अमेरिका के बीच 1972 का एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल (ABM) समझौता हुआ था। इसके बावज़ूद, शीत युद्ध के बाद के युग में उन्होंने इस प्रकार की संधि का कड़ा विरोध किया था, क्योंकि तब परमाणु ताक़त से संपन्न राष्ट्रों की संख्या बढ़ रही थी और उनके बीच परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने की संभावनाएं और वजहें भी बहुत बढ़ रही थीं। यानी परमाणु संपन्न राष्ट्रों की ओर से परमाणु हथियारों का इस्तेमाल जानबूझकर कर किया जा सकता था, या फिर अनधिकृत रूप से और अचानक किया जा सकता था। इसीलिए, तब हेनरी किसिंजर ने साफ तौर पर बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस क्षमताओं की ज़रूरत पर बल दिया था, ताकि ऐसे किसी परमाणु हमले को रोका जा सके।
इसके अलावा, मान लीजिए अगर चीन के परमाणु हमले में अगर भारत की परमाणु ताक़त पूरी तरह समाप्त नहीं होती है और ख़ास तौर पर भारतीय नौसेना की पनडुब्बी से प्रक्षेपित किए जाने वाले परमाणु हथियार बच भी जाते हैं, तो चीन की बैलिस्टिक मिसाइल सुरक्षा प्रणाली भारत की तरफ से दागी जाने वाली इन बची-खुची सबमरीन परमाणु मिसाइलों को आसानी से रोक सकती है। यही वजह है कि MAD या फिर पारस्परिक विनाश पर आधारित रणनीति देखा जाए तो न केवल बेकार और आपत्तिजनक है, बल्कि सामरिक लिहाज़ से इसमें कोई समझदारी नहीं दिखती है। विशेष रूप से भारत जिस प्रकार से वर्तमान में नो फर्स्ट यूज़ (NFU) नीति पर चल रहा है और चीन व पाकिस्तान जैसे परमाणु शक्ति से लैस पड़ोसी देशों के साथ तनावपूर्ण संबंधों के दौर से गुजर रहा है, उनमें नई दिल्ली की तरफ से ऐसी रणनीति को अपनाना किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। दरअसल, भारत को BMD प्रणाली जैसी उन्नत प्रतिरोधक क्षमता की सबसे अधिक ज़रूरत है, ताकि वह विपरीत हालातों में वायु रक्षा के ज़रिए अपने बड़े शहरों को हमलों से सुरक्षित रख सके।
भारत के लिए अपनी बीएमडी क्षमताओं को बढ़ाने की दूसरी बड़ी वजह यह है कि चीन लगातार अपने देश में बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली को विकसित करने में जुटा हुआ है। इससे पहले हमला करने में चीन को लाभ होगा। इसके अलावा, भारत के ख़िलाफ किसी पारंपरिक युद्ध में अगर चीन पिछड़ता है और नुक़सान की स्थिति में पहुंचता है, तो उसकी विकसित प्रतिरक्षा क्षमताएं उसे पहले परमाणु हमला करने के लिए प्रेरित करेंगी, क्योंकि वह हर तरह से लाभ की स्थिति में होगा। कुल मिलाकर, इससे चीन को अपनी उन्नत घरेलू बीएमडी क्षमताओं से बहुत फायदा है, इससे उसे युद्ध की स्थिति में अपने नुक़सान को कम से कम करने की ताक़त मिलती है। हालांकि, भारत फिलहाल ऐसी स्थिति में नहीं है कि वो चीन की मिसाइल रक्षा प्रणाली की बराबरी कर पाए। लेकिन भारत अगर अपनी बीएमडी प्रणालियों के विकास पर ध्यान केंद्रित करता और इसके लिए ठोस क़दम उठाता है, तो निश्चित तौर पर वह चीन के पहले परमाणु हमला करने के किसी भी मंसूबे को कुचल सकता है और इस प्रकार से संभावित ख़तरों को टाल सकता है।
भारत को अपनी BMD क्षमताओं को क्यों बढ़ाना चाहिए?
इसकी तीसरी वजह चर्चित अमेरिकी परमाणु रणनीतिकार हरमन काह्न के विचार हैं। उन्होंने कहा है कि मिसाइल रक्षा अनुसंधान और विकास (R&D) बेहद अहम है। अगर इस दिशा में ठोस तरीक़े से आगे बढ़ा जाता है, तो इससे तकनीक़ी लाभ मिलने के साथ ही तमाम ऐसे अवसर भी मिल सकते हैं, जो रक्षा विज्ञान और इंजीनियरिंग संस्थानों एवं उनके वैज्ञानिकों व इंजीनियरों को चुनौतीपूर्ण तकनीक़ी और वैज्ञानिक ख़तरों का समाधान तलाशने के लिए प्रेरित करते रहेंगे। ज़ाहिर है कि अगर इस क्षेत्र में अनुसंधान और विकास किया जाता है, तो तमाम उन्नत टेक्नोलॉजियों के बारे में गहन जानकारी उपलब्ध हो सकती है और वो कैसे काम करती हैं, इसके बारे में गहन आंकड़े जुटाए जा सकते हैं। यानी अगर मिसाइल डिफेंस से जुड़े अनुसंधान और विकास पर ध्यान दिया जाता है, साथ ही इसमें निवेश बढ़ाया जाता है, तो मिसाइल डिफेंस सिस्टम के सभी महत्वपूर्ण चरणों यानी बूस्ट, मिड-कोर्स और टर्मिनल फेज में इंटरसेप्टर प्रणालियों की विश्वसनीयता बढ़ेगी। इसके अलावा, इससे सेंसर टेक्नोलॉजियों, रडार प्रणालियों, निर्देशित-ऊर्जा हथियारों, वायुमंडल के बाहर और वायुमंडल के भीतर मिसाइलों का पता लगाने और उन्हें नष्ट करने, साथ ही फ्रेगमेंटेशन वारहेड को समाप्त करने के लिए नई-नई तकनीक़ों को विकसित करने में भी मदद मिलेगी। ज़ाहिर है कि बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस प्रणालियों को मोबाइल ज़मीनी लॉन्चरों, समुद्री प्लेटफार्मों, हवाई इंटरसेप्टर्स और अंतरिक्ष में मौज़ूद ठिकानों पर आसानी से तैनात किया जा सकता है। सबसे अहम और ध्यान देने वाली बात यह है कि अगर भारत मिसाइल डिफेस में अनुसंधान एवं विकास को आगे बढ़ाता है और फिर अपनी विकसित बीएमडी प्रणालियों को रणनीतिक तरीक़े से तैनात करता है, तो इससे प्रतिद्वंदी देश, ख़ास तौर से चीन को रोकने और उस पर कहीं न कहीं बढ़त बनाने में मदद मिलेगी। इससे महत्वपूर्ण रक्षा तकनीक़ों में सफलता हासिल होगी, जिससे भारत को तकनीक़ी क्षेत्र में चीन से आगे रहने में मदद मिलेगी। मान लीजिए अगर ऐसा नहीं भी होता है, तो भारत में बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणालियों के विकास में निवेश करने और रिसर्च को बढ़ावा देने से कम से कम बीएमडी तकनीक़ के मामले में भारत को चीन के समक्ष खड़ा करने में मदद तो ज़रूर मिलेगी। इन्हीं सब वजहों के मद्देनज़र यह बेहद ज़रूरी है कि भारत अपनी बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा क्षमताओं को बढ़ाने और बगैर समय गंवाए उन्हें सशक्त करने में गंभीरता दिखाए और पूरी ताक़त के साथ इस दिशा में क़दम बढ़ाए।
लेखक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में सीनियर फेलो हैं।