ब्रोमांस की राख पर नया ग्लोबल भूचाल (आवरण कथा)

संदीप कुमार

 |  02 Sep 2025 |   18
Culttoday

एक दौर था जब भारत-अमेरिका की दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं। ह्यूस्टन के भव्य स्टेडियम में 'हाउडी मोदी' की गूंज और अहमदाबाद के मोटेरा में 'नमस्ते ट्रंप' का जयघोष, दुनिया ने दो लोकतांत्रिक देशों के दो मजबूत नेताओं के बीच पनपते इस अनूठे याराने को बड़ी उम्मीद से देखा था। यह दोस्ती सिर्फ तस्वीरों और गर्मजोशी से हाथ मिलाने तक सीमित नहीं थी; यह रणनीतिक साझेदारी की एक ऐसी भव्य इमारत थी जिसे पिछले तीन दशकों में दोनों देशों ने बड़ी मेहनत से, ईंट-दर-ईंट खड़ा किया था। इस इमारत की नींव में साझा लोकतांत्रिक मूल्य थे, आतंकवाद के खिलाफ साझा लड़ाई थी, और चीन के बढ़ते दबदबे को संतुलित करने का एक साझा रणनीतिक संकल्प था।
लेकिन राजनीति की बिसात पर, दोस्ती की सुनहरी तस्वीरें अक्सर एक क्रूर हकीकत की पहली किश्त होती हैं। जब डोनाल्ड ट्रंप ने जनवरी 2025 में व्हाइट हाउस में दोबारा वापसी की, तो भारत के कई रणनीतिकारों के मन में एक सुकून था। उन्हें लगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ट्रंप की व्यक्तिगत केमिस्ट्री, वह 'ब्रोमांस' जिसे दुनिया ने देखा था, भारत के लिए एक सुरक्षा कवच का काम करेगा। यह सोचा गया था कि ट्रंप के अप्रत्याशित और उथल-पुथल भरे मिजाज से दुनिया भले ही कांपे, लेकिन भारत इस तूफान से महफूज रहेगा।
मगर छह महीने के भीतर ही, यह सुनहरा ख्वाब एक बुरे सपने में तब्दील होने लगा। दोस्ती का वह कैनवास, जिस पर उम्मीदों के रंग भरे गए थे, अब अविश्वास और दबाव की स्याही से बदरंग हो रहा था। यह कहानी शुरू हुई अमेरिका में भारतीय प्रवासियों के जंजीरों में जकड़े स्वाभिमान की तस्वीरों से, फिर यह 'ऑपरेशन सिंदूर' के उस अजीबोगरीब दावे तक पहुंची, जहां ट्रंप ने खुद को भारत-पाकिस्तान के बीच शांतिदूत के रूप में पेश करने की कोशिश की, और अंततः यह रूसी तेल की खरीद को लेकर भारत पर लगाए गए भारी-भरकम टैरिफ के उस आर्थिक प्रहार पर आ पहुंची है, आगे कहां तक जाएगी- कहना मुश्किल है, लेकिन इस सबने इस रिश्ते की नींव को ही हिलाकर रख दिया। देखते ही देखते, रणनीतिक साझेदारी की वह भव्य इमारत दरकने लगी। भारत-अमेरिका संबंध दशकों के अपने सबसे निचले स्तर पर आ गए। संवैधानिक संस्थाएं जिस तरह भारत में एक केंद्रीकृत शासन व्यवस्था की जकड़न में जकड़ी महसूस कर रही थीं, उसी तरह वैश्विक पटल पर भारत की विदेश नीति ट्रंप की अप्रत्याशित और एकतरफा कार्रवाइयों की जकड़न में फंसती नजर आने लगी। यह सिर्फ दो देशों का द्विपक्षीय मामला नहीं था; इसका असर वैश्विक भू-राजनीति की शतरंज पर हर मोहरे की चाल को प्रभावित कर रहा था। हालात कैसे और क्यों बदले, इसकी परतों को खोलना और यह समझना आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि इस दोस्ती के मलबे के नीचे दफन क्या है - एक अस्थायी गलतफहमी या एक स्थायी दरार?
जंजीरों में जकड़ा स्वाभिमान 
इस रिश्ते में पहली गहरी और सार्वजनिक दरार तब पड़ी, जब फरवरी 2025 में, प्रधानमंत्री मोदी की व्हाइट हाउस यात्रा से ठीक पहले, दुनिया ने वे तस्वीरें देखीं जिन्होंने हर भारतीय के मन को झकझोर कर रख दिया। अमेरिकी सैन्य विमान की ओर बढ़ते भारतीय नागरिक, जिनके हाथ और पैर जंजीरों से बंधे थे। वे कोई खूंखार अपराधी नहीं, बल्कि अवैध अप्रवासी थे, जिन्होंने बेहतर जिंदगी की तलाश में अमेरिका की धरती पर कदम रखा था। उन्हें घंटो लंबी उड़ान के दौरान जानवरों की तरह जंजीरों में बांधकर वापस भेजा गया।
यह ट्रंप की 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' (मागा) की उस कट्टर विचारधारा का नग्न प्रदर्शन था, जिसके लिए अप्रवासियों का दानवीकरण करना एक चुनावी जरूरत है। यह उनकी घरेलू राजनीति का एक क्रूर नाटक था, जिसका मंचन भारत के स्वाभिमान की कीमत पर किया जा रहा था। भारत में गुस्सा भड़क उठा। विपक्ष ने संसद में हथकड़ियां पहनकर प्रदर्शन किया और सवाल पूछा कि अगर ट्रंप प्रधानमंत्री मोदी के इतने ही अच्छे दोस्त हैं, तो नई दिल्ली अपने नागरिकों के साथ हो रहे इस 'अमानवीय' और 'अपमानजनक' व्यवहार को क्यों नहीं रोक पा रही?
यह घटना मोदी सरकार के लिए एक कठिन कूटनीतिक पहेली बन गई। एक तरफ अपने नागरिकों के सम्मान का सवाल था, तो दूसरी तरफ ट्रंप जैसे अप्रत्याशित नेता को नाराज करने का जोखिम। सरकार ने संसद में यह कहकर बचाव करने की कोशिश की कि यह अमेरिका की एक पुरानी प्रक्रिया है, लेकिन यह तर्क किसी के गले नहीं उतरा। सच तो यह था कि ट्रंप अपनी घरेलू राजनीति को किसी भी दोस्ती या रणनीतिक साझेदारी से ऊपर रख रहे थे। उन्होंने यह स्पष्ट संदेश दिया था कि उनके लिए अपने वोट बैंक को खुश करना भारत के साथ संबंधों की परवाह करने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह पहला बड़ा आघात था, जिसने यह दिखा दिया कि इस 'ब्रोमांस' की नींव कितनी खोखली है और यह किसी भी समय ट्रंप के राजनीतिक हितों की भेंट चढ़ सकती है।
दोस्ती का मिथक 
अगर जंजीरों की तस्वीरों ने रिश्ते में एक दरार डाली थी, तो ट्रंप के अगले कदम ने उस दरार को एक गहरी खाई में बदल दिया। अप्रैल 2022 में कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान दशकों के सबसे बड़े सैन्य टकराव में उलझ गए थे। भारत ने 'ऑपरेशन सिंदूर' लॉन्च किया और दोनों परमाणु-संपन्न देश युद्ध के कगार पर खड़े थे। 10 मई को जब दोनों देशों के बीच संघर्ष विराम हुआ, तो दुनिया ने राहत की सांस ली।
लेकिन तभी डोनाल्ड ट्रंप ने एक ऐसा दावा किया जिसने नई दिल्ली में भूचाल ला दिया। उन्होंने बार-बार, लगभग 30 से अधिक बार, यह कहना शुरू कर दिया कि यह सीजफायर उन्होंने कराई है। उन्होंने इसे इतनी बार दोहराया कि भारत में उन्हें मजाकिया तौर मि. सीजफायर तक कहा जाने लगा। उन्होंने कहा, 'मैंने दोनों देशों से कहा कि या तो युद्ध बंद करो, वरना व्यापार बंद हो जाएगा।' उन्होंने खुद को एक महान शांतिदूत के रूप में पेश किया, जिसके एक इशारे पर दो परमाणु शक्तियां लड़ने से रुक गईं।
यह भारत की संप्रभुता और उसकी दशकों पुरानी विदेश नीति पर एक सीधा हमला था। भारत हमेशा से यह मानता आया है कि पाकिस्तान के साथ उसके सभी विवाद द्विपक्षीय हैं और इसमें किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की कोई जगह नहीं है। ट्रंप का यह दावा न केवल झूठा था, बल्कि यह भारत को एक ऐसे कमजोर देश के रूप में चित्रित करने की कोशिश थी जो अपने फैसले खुद नहीं ले सकता। प्रधानमंत्री मोदी और विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने संसद से लेकर हर मंच पर इसका पुरजोर खंडन किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि संघर्ष विराम के दौरान मोदी और ट्रंप के बीच कोई बातचीत नहीं हुई थी और इसमें व्यापार का कोई लेना-देना नहीं था।
लेकिन ट्रंप अपने झूठ पर अड़े रहे। उनके लिए यह हकीकत का सवाल नहीं, बल्कि अपनी छवि चमकाने का एक मौका था। वह खुद को नोबेल शांति पुरस्कार के दावेदार के रूप में देख रहे थे। इस प्रकरण ने भारत को और भी असहज कर दिया क्योंकि ठीक इसी समय, ट्रंप प्रशासन पाकिस्तान के साथ नज़दीकियां बढ़ा रहा था। पाकिस्तानी सेना प्रमुख को व्हाइट हाउस में अभूतपूर्व स्वागत दिया गया, जिसे ट्रंप ने शांति स्थापित करने में 'बेहद प्रभावशाली' बताया। यह भारत के लिए एक दोहरा झटका था: एक तरफ, उसका सबसे करीबी रणनीतिक साझेदार उसकी संप्रभुता को कमजोर कर रहा था, और दूसरी तरफ, वह उसके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी को गले लगा रहा था। दोस्ती का नकाब अब पूरी तरह उतर चुका था और उसके पीछे एक शुद्ध लेन-देन पर आधारित, आत्म-केंद्रित चेहरा साफ नजर आ रहा था।
टैरिफ का महायुद्ध 
इस रिश्ते के ताबूत में आखिरी कील ट्रंप के आर्थिक ब्रह्मास्त्र ने ठोकी। वजह बनी भारत की रूस के साथ पुरानी और समय की कसौटी पर खरी उतरी दोस्ती। यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद, जब पश्चिमी देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाए, तो भारत ने अपनी ऊर्जा सुरक्षा की जरूरतों को देखते हुए रूस से रियायती दरों पर कच्चा तेल खरीदना जारी रखा। यह भारत की 'रणनीतिक स्वायत्तता' की नीति का एक स्वाभाविक विस्तार था। बिडेन प्रशासन ने इस मजबूरी को समझा था और भारत पर कभी सीधा दबाव नहीं बनाया था।
लेकिन ट्रंप के लिए यह अस्वीकार्य था। वह यूक्रेन में शांति वार्ता को लेकर रूस के राष्ट्रपति पुतिन पर दबाव बनाना चाहते थे, और भारत उन्हें एक आसान बलि का बकरा नजर आया। उन्होंने भारत पर यह आरोप लगाना शुरू कर दिया कि वह रूस की 'युद्ध मशीन' को वित्तीय मदद दे रहा है। ट्रंप के सहयोगी स्टीफन मिलर और पीटर नवारो जैसे लोगों ने सार्वजनिक रूप से भारत को दोषी ठहराया।
इसके बाद जो हुआ, वह अभूतपूर्व था। जुलाई के अंत में, ट्रंप ने भारतीय आयातों पर 25 प्रतिशत का भारी-भरकम टैरिफ लगा दिया। लेकिन वह यहीं नहीं रुके। उन्होंने घोषणा की कि यदि भारत ने रूसी तेल खरीदना बंद नहीं किया तो इस टैरिफ को दोगुना करके 50 प्रतिशत कर दिया जाएगा। यह एक रणनीतिक साझेदार के साथ किया जाने वाला व्यवहार नहीं था; यह एक दुश्मन के साथ किया जाने वाला आर्थिक युद्ध था।
भारत ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। विदेश मंत्रालय ने इसे 'अनुचित, अन्यायपूर्ण और अतार्किक' बताया और कहा कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगा। भारत ने पश्चिमी देशों के दोहरे मापदंडों की ओर भी इशारा किया, यह बताते हुए कि यूरोप खुद भारत से कहीं ज्यादा रूस के साथ व्यापार कर रहा था और अमेरिका भी रूस से उर्वरक और रसायन आयात कर रहा था।
भारत के साथ संबंधों में आई गिरावट केवल नई दिल्ली की चिंता नहीं है, बल्कि वाशिंगटन की सियासत के भीतर भी इसकी गूंज सुनाई देने लगी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में उठाए गए कई निर्णयों ने दशकों में निर्मित रणनीतिक साझेदारी की नींव को हिला दिया है। नतीजा यह है कि अमेरिका की ही कई बड़ी हस्तियां अब खुले तौर पर इन कदमों की आलोचना कर रही हैं। पूर्व संयुक्त राष्ट्र राजदूत और रिपब्लिकन नेता निक्की हेली ने ट्रंप प्रशासन द्वारा भारतीय अप्रवासियों को जंजीरों में बांधकर डिपोर्ट करने की कार्रवाई को 'अमानवीय और शर्मनाक' बताया। उनका कहना था कि यह न केवल भारतीय मूल के समुदाय को आहत करता है, बल्कि अमेरिका की नैतिक साख को भी चोट पहुँचाता है। इसी तरह, बराक ओबामा शासनकाल के विदेश मंत्री जॉन केरी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे सुज़ैन राइस ने भी ट्रंप के भारत-विरोधी टैरिफ को एक 'रणनीतिक भूल' करार दिया। उनके मुताबिक, भारत को दंडित करने से रूस पर दबाव डालने के बजाय अमेरिका की अपनी इंडो-पैसिफ़िक रणनीति कमजोर पड़ रही है।
केवल डेमोक्रेट ही नहीं, बल्कि कई रिपब्लिकन थिंक-टैंक और नीति विशेषज्ञ भी मानते हैं कि भारत जैसे लोकतांत्रिक सहयोगी को नाराज़ करना चीन को अप्रत्यक्ष लाभ पहुँचाने जैसा है। सीनेट की विदेश संबंध समिति में गूंजे आलोचनात्मक स्वर यही संकेत दे रहे हैं कि भारत-अमेरिका संबंधों में आई दरार को अमेरिकी राजनीति के भीतर भी गंभीरता से महसूस किया जा रहा है।
दरअसल, जिस साझेदारी को ओबामा काल में 'डिफाइनिंग रिलेशनशिप ऑफ़ द 21st सेंचुरी' कहा गया था, वही अब ट्रंप की अल्पदृष्टि नीतियों की वजह से संकटग्रस्त हो गई है। यह असंतोष केवल कूटनीतिक हलकों तक सीमित नहीं, बल्कि अमेरिकी मीडिया, मानवाधिकार संगठनों और व्यवसायिक लॉबी तक फैला है। साफ है कि भारत के साथ रिश्तों में गिरावट ने ट्रंप को अपने ही देश में आलोचना के कटघरे में खड़ा कर दिया है।
सबसे बड़ा सवाल यह था कि अमेरिका ने भारत को तो निशाना बनाया, लेकिन रूस से सबसे ज्यादा तेल खरीदने वाले चीन को क्यों बख्श दिया? इसका जवाब अमेरिका और चीन के बीच जटिल आर्थिक निर्भरता में छिपा था। अमेरिका चीन के दुर्लभ खनिजों (rare earths) और उसकी विशाल आपूर्ति श्रृंखला पर इतना निर्भर है कि वह चीन के साथ एक पूर्ण व्यापार युद्ध का जोखिम नहीं उठा सकता, खासकर क्रिसमस सीजन से ठीक पहले। भारत के साथ उसकी ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी। इस चयनात्मक कार्रवाई ने यह साफ कर दिया कि ट्रंप की नीति सिद्धांतों पर नहीं, बल्कि सुविधा पर आधारित थी।
इस टैरिफ युद्ध का असर तुरंत दिखने लगा। गुजरात के सूरत में, जहाँ दुनिया के 90% हीरे तराशे जाते हैं, उद्योग लगभग ठप हो गया। अमेरिका भारतीय हीरों का सबसे बड़ा खरीदार है। टैरिफ की वजह से ऑर्डर रुक गए, कारखाने बंद होने लगे और हजारों कारीगर बेरोजगार हो गए। अजय लाकुम जैसे हीरा कारीगर, जिनकी पूरी जिंदगी इसी काम में गुजरी थी, अचानक सड़क पर आ गए। यह सिर्फ एक आर्थिक आंकड़ा नहीं था; यह लाखों लोगों की रोजी-रोटी पर एक सीधा प्रहार था।
वहीं दूसरी ओर भारत पर 50 प्रतिशत तक के भारी-भरकम टैरिफ लगाने का फैसला केवल नई दिल्ली के लिए ही नहीं, बल्कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए भी गहरा झटका साबित हुआ। यह कदम ऐसे समय उठाया गया जब अमेरिकी उद्योग पहले ही महँगाई, सप्लाई-चेन संकट और चीन के साथ चल रहे व्यापार युद्ध की मार झेल रहा था। भारत से आने वाले उत्पादों पर अचानक इतनी बड़ी बाधा ने अमेरिकी आयातकों और रिटेल कंपनियों की लागत को कई गुना बढ़ा दिया। टेक्सटाइल से लेकर डायमंड प्रोसेसिंग, ऑटो पार्ट्स से लेकर फार्मास्यूटिकल्स तक, अनेक सेक्टरों में अमेरिकी उपभोक्ताओं को महंगे दाम चुकाने पड़े।
खासकर डायमंड और जेम्स-स्टोन इंडस्ट्री, जिसका केंद्र न्यूयॉर्क और लॉस एंजेलिस है, सीधे प्रभावित हुई। सूरत से आयात पर लगे टैरिफ ने कारोबारियों की कमर तोड़ दी, जिससे हज़ारों नौकरियाँ खतरे में आ गईं। दवा उद्योग, जो भारत से सस्ती जेनेरिक दवाइयों पर निर्भर है, वहाँ भी कीमतें अचानक बढ़ने लगीं, जिससे आम अमेरिकी की जेब पर अतिरिक्त बोझ पड़ा। नतीजतन, उपभोक्ता महँगाई सूचकांक में उछाल दर्ज हुआ और खुद अमेरिकी फेडरल रिज़र्व के भीतर इस पर चिंता जताई गई।
व्यापार लॉबी और बिज़नेस काउंसिल ने व्हाइट हाउस को चेताया कि भारत पर कठोर टैरिफ लगाने से अमेरिकी कंपनियाँ प्रतिस्पर्धा खो रही हैं और बाजार में उनकी स्थिति कमजोर हो रही है। रिपब्लिकन पार्टी के भीतर भी असंतोष उभर आया, क्योंकि पारंपरिक रूप से कारोबारी हितों का समर्थन करने वाले समूह इसे 'स्व-घाती' कदम मान रहे थे। परिणाम यह हुआ कि टैरिफ से चीन पर दबाव बनाने के बजाय अमेरिका ने अपने ही घरेलू उद्योगों और उपभोक्ताओं को महँगाई और अस्थिरता की आग में झोंक दिया।
भू-राजनीति का डांवाडोल समीकरण 
भारत-अमेरिका संबंधों में आया यह भूचाल सिर्फ द्विपक्षीय नहीं था। इसके झटके पूरी दुनिया की भू-राजनीति, कूटनीति और अर्थव्यवस्था में महसूस किए गए।
•भू-राजनीतिक बदलाव: ट्रंप की कार्रवाइयों का सबसे बड़ा और विडंबनापूर्ण परिणाम यह हुआ कि इसने भारत को अनजाने में रूस और चीन के और करीब धकेल दिया। अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति का मुख्य स्तंभ भारत को चीन के खिलाफ एक मजबूत संतुलनकारी शक्ति के रूप में खड़ा करना था। लेकिन भारत को इस तरह अलग-थलग और दंडित करके, ट्रंप ने ठीक इसका उलटा किया। उन्होंने भारत को रूस-भारत-चीन (आरआईसी) जैसे त्रिपक्षीय मंचों को अधिक गंभीरता से लेने के लिए मजबूर कर दिया। एक ऐसे समय में जब चीन से मुकाबला करने के लिए अमेरिका को भारत जैसे साझेदार की सबसे ज्यादा जरूरत थी, ट्रंप की नीतियों ने उसी साझेदार को अपने प्रतिद्वंद्वियों के खेमे की ओर धकेल दिया।
कूटनीतिक अविश्वास: इस पूरे प्रकरण ने दुनिया भर के अमेरिकी सहयोगियों को एक खतरनाक संदेश दिया। संदेश यह था कि अमेरिका के साथ 'रणनीतिक साझेदारी' का कोई मतलब नहीं है अगर आपका नेता राष्ट्रपति ट्रंप के घरेलू राजनीतिक एजेंडे या उनके क्षणिक गुस्से के रास्ते में आ जाए। इसने अमेरिका की विश्वसनीयता पर एक गहरा प्रश्नचिह्न लगा दिया। नियम-आधारित विश्व व्यवस्था, जिसकी अमेरिका दशकों से वकालत करता आया है, अब एक 'डील-आधारित अव्यवस्था' में बदलती दिख रही थी, जहाँ नियम वही थे जो डोनाल्ड ट्रंप तय करते थे।
आर्थिक अनिश्चितता: इस टैरिफ युद्ध ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता की एक नई लहर पैदा कर दी। भारतीय रुपये और बॉन्ड बाजार पर दबाव बढ़ गया। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाएं, जो पहले से ही महामारी और यूक्रेन युद्ध से जूझ रही थीं, और अधिक बाधित हो गईं। यह साबित हो गया कि जब दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं और लोकतंत्र इस तरह टकराते हैं, तो इसका असर सिर्फ उन पर ही नहीं, बल्कि पूरी वैश्विक आर्थिक स्थिरता पर पड़ता है।
दोस्ती के मलबे पर भविष्य की तलाश
'हाउडी मोदी' के जयघोष से लेकर 50% टैरिफ की धमकी तक, भारत-अमेरिका संबंधों का यह सफर एक कड़वा सबक है। यह सबक है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में व्यक्तिगत केमिस्ट्री और दोस्ती के नारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता, खासकर जब आप डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेता के साथ व्यवहार कर रहे हों। यह कहानी सिर्फ दो नेताओं के बीच के रिश्ते के टूटने की नहीं है, बल्कि यह उन गहरी संरचनात्मक बदलावों की कहानी है जो आज वैश्विक राजनीति को आकार दे रहे हैं।
आज भारत एक चौराहे पर खड़ा है। ट्रंप के दूसरे कार्यकाल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अमेरिका पर आँख बंद करके भरोसा नहीं किया जा सकता। आगे का रास्ता क्या है? क्या यह रिश्ता फिर से पटरी पर आ सकता है? शायद हाँ, लेकिन यह अब पहले जैसा कभी नहीं होगा। भारत को यह समझना होगा कि भविष्य की राह अपनी 'रणनीतिक स्वायत्तता' को और अधिक मजबूती से स्थापित करने में ही है। उसे अपने विकल्पों को खुला रखना होगा - पश्चिम के साथ साझेदारी भी करनी होगी, और रूस-चीन जैसे देशों के साथ संवाद भी बनाए रखना होगा।
पुराने नायक अब मंच से उतर चुके हैं, और नए किरदारों के साथ एक नया नाटक खेला जा रहा है। इस नाटक में भारत को अपनी पटकथा खुद लिखनी होगी। उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि वह किसी और की कहानी का एक सहायक पात्र बनकर न रह जाए। दोस्ती का वह ताजमहल, जो कभी इतना भव्य और मजबूत दिखता था, आज खंडहर में तब्दील हो चुका है। अब भारत को इस मलबे पर बैठकर मातम मनाने के बजाय, अपनी विदेश नीति की एक नई, आत्मनिर्भर और मजबूत इमारत खड़ी करनी होगी, जिसकी नींव किसी नेता के व्यक्तिगत संबंधों पर नहीं, बल्कि भारत के अपने अडिग राष्ट्रीय हितों पर टिकी हो। यही इस दौर का सबसे बड़ा सच है और यही भविष्य का एकमात्र रास्ता भी।


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