भारत और नाटोः रक्षा सौदों की रस्साकशी

संदीप कुमार

 |  01 Aug 2025 |   13
Culttoday

डोनाल्ड ट्रम्प ने रूस से भय दिखाकर और नाटो से अलग होने की धमकी देकर बाकी 31 देशों (स्पेन को छोड़कर) को नतमस्तक कर दिया। फलस्वरूप, वे 2032 तक अपना रक्षा बजट अपने सकल घरेलू उत्पाद का 5% तक करने पर राजी हो गए। ट्रम्प की चालाकियां, नीतिगत रणनीति और पैंतरे, जो उनके साथ शामिल अधिकतर छोटे यूरोपीय देशों के लिए हों, हम पर खास असर न डालते हों, तो इस बारे में हमारी खुशी या चिंता का कोई खास कारण नहीं है। लेकिन, भू-राजनीतिक समीकरण उतने एकरेखीय नहीं होते जितने अमूमन नजर आते हैं। उनमें कई परोक्ष अंतर्संबंध गुंफित होते हैं। तिस पर, भारतीय विश्लेषकों ने इस खबर से अखबार रंग दिए हैं कि अमेरिकी प्रस्ताव (जिसे धमकी कहना उचित होगा) स्वीकार लेने से तमाम नाटो देशों का रक्षा बजट दोगुना, तिगुना होगा, तो हमारे हथियार, सैन्य प्रणाली और उपकरण खूब बिकेंगे। हम और हमारी कंपनियां इस बाजार में बड़े खिलाड़ी के तौर पर स्थापित होंगे।
क्या हथियार बाजार में आएगी बाढ़?
फ्रांस, अमेरिका के अलावा एशिया और अफ्रीका के कई विकासशील देश भारतीय हथियारों में रुचि ले रहे हैं। फिलीपींस ब्रह्मोस खरीद रहा है, तो वियतनाम नौसैनिक उपकरण, मॉरीशस, सेशेल्स, श्रीलंका वगैरह तटरक्षक पोत, लैटिन अमेरिका के कुछ देश भारतीय रडार और हल्के हथियारों में रुचि दिखा रहे हैं। हम नेपाल, म्यांमार, भूटान के अलावा इंडोनेशिया, ब्राजील और कुछ यूरोपीय देशों को भी हथियार बेचने जा रहे हैं। ऐसे में गैर-नाटो देशों के अलावा कम से कम दो दर्जन नए नाटो ग्राहक मिलेंगे, तो हम करोड़ों-अरबों कमाएंगे।
इस तरह की प्रत्याशा भरे समाचारों की प्रचुरता ने नीदरलैंड्स के द हेग में हुई बैठक के दौरान नाटो देशों के नए बजट की मंजूरी को अपने देश के लिए भी एक महत्वपूर्ण घटना के तौर पर स्थापित कर दिया। सवाल उठता है कि क्या विश्लेषकों का आकलन तर्कसंगत और सटीक है, अथवा अति उत्साही और महज खुशफहमी भरा? बेशक, भारत अब बेहद उन्नत और सक्षम हथियार तथा सैन्य तकनीकि से संपन्न उपकरणों-उपस्करों का निर्माण करता है, विश्व बाजार में उसकी साख भी बन रही है। वह हथियारों को बेचना भी अवश्य चाहेगा। पर क्या वाकई यह एक इतना आसान और बड़ा अवसर है, जिसका मुख्य दोहनकर्ता भारत ही होगा? क्या यह मौका देश के हथियार बाजार को वैश्विक मंच दिलाएगा? क्या यह लाभ वाकई इतना बड़ा है जितना प्रचारित किया जा रहा है?
यह मुंगेरी लाल के हसीन सपने से कम नहीं
नाटो के कोष में 66% हिस्सेदारी निभाने वाले अमेरिका के हाथ खींचने की घुड़की से उसके कुछ देश अपना रक्षा व्यय जीडीपी के पाँच प्रतिशत तक ले जाने का प्रयास करेंगे। पोलैंड अपनी जीडीपी का 4% से ज्यादा, एस्टोनिया और अमेरिका साढ़े तीन प्रतिशत से अधिक, लातविया और ग्रीस जो तीन फीसदी तक खर्चते हैं, वे ऐसा कर सकेंगे। फिलहाल, इनमें ग्रीस के अलावा कोई दूसरा हमारा संभावित ग्राहक नहीं दिखता। ढाई प्रतिशत या उससे कम का आंकड़ा रखने वाले देशों के लिए यह काम आसान न होगा, जिसमें फिनलैंड, ब्रिटेन, रोमानिया, डेनमार्क इत्यादि हैं। और जो देश दो प्रतिशत या उससे भी नीचे यानी जो अपनी जीडीपी का एक प्रतिशत से जरा ही ज्यादा रक्षा मद में व्यय करते हैं, उनके लिए यह असंभव होगा। तो ज्यादातर नाटो देश सैनिकों, हथियारों पर जीडीपी का साढ़े तीन प्रतिशत का रक्षा व्यय पूरा नहीं कर पाएंगे।
हद से हद सड़कों, पुलों, बंदरगाहों, हवाई क्षेत्रों, सैन्य वाहनों, साइबर सुरक्षा और ऊर्जा पाइपलाइनों की सुरक्षा सहित बुनियादी ढांचे को उन्नत करने की मद में जीडीपी का डेढ़ प्रतिशत का नियत हिस्सा वे गोलमाल से पूरा करेंगे। कुछ देशों की राजनीतिक स्थिति ऐसी है कि सत्ता में उनके साझीदार रक्षा को शिक्षा, स्वास्थ्य पर तरजीह देने के खिलाफ हैं। नाटो के सभी देश रक्षा पर स्वास्थ्य या शिक्षा से कम खर्चते हैं। अगर 5% रक्षा व्यय तय करते हैं, तो 21 देश जो अभी शिक्षा के मद में पाँच प्रतिशत से कम निवेश करते हैं, वे स्कूली शिक्षा को पीछे छोड़ सेना को अधिक आवंटित करेंगे। ऐसे में, सत्ता, गठबंधन, चुनावों में लोकप्रियता की राजनीति उन्हें रोकेगी, तो सामाजिक ताकतें भी। स्पेन जैसे देश जो भौगोलिक तौर पर रूस-चीन के खतरे से बहुत दूर हैं, वे इस ओर कान ही नहीं देंगे। सवा फीसदी से थोड़ा ज्यादा रक्षा व्यय वाला कनाडा राजनीतिक कारणों से आनाकानी करेगा। रक्षा व्यय को जीडीपी के पांच फीसदी तक पहुंचने के लिए तकरीबन दो दर्जन देशों को मौजूदा खर्चों की तुलना में हर बरस सैकड़ों अरब डॉलर ज्यादा खर्चने होंगे। तिस पर, नाटो सदस्यों को खुद तय करना होगा कि वे रक्षा व्यय आवंटन हेतु अतिरिक्त नकदी कहां से लाएं। सामाजिक उत्थान की बात और है, हथियार के लिए उधार मिलने से रहा।
ब्रह्मोस की मांग वैश्विक स्तर पर बढ़ रही है
नाटो के संपन्न और जीडीपी के तीन फीसद से ज्यादा रक्षा व्यय करने वालों के पसंदीदा हथियार विक्रेताओं में अभी भारत शामिल नहीं है। छोटे देश जिनका रक्षा बजट उनकी जीडीपी के तीन फीसद तक पहुंच भी जाए, तो यह राशि बेहद कम होगी। ऊपर से समूह के सदस्य देशों तथा अमेरिका और बाजार के दीगर बड़े खिलाड़ियों का भी दबाव होगा। नाटो देशों के हथियार और सैन्य सामग्री तथा उपकरणों के मुख्य आपूर्तिकर्ता अभी भी अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन ही हैं। बोइंग, एयरबस और लॉकहीड मार्टिन जैसी अमेरिकी कंपनियों ने नाटों देशों का हथियार बाजार पहले से ही कब्जाया हुआ है, वे इस अवसर को भुनाने के लिए और आक्रामक प्रयास करेंगी। इनके अलावा दक्षिण कोरिया इन देशों को उन्नत मिसाइल और नौसेना प्रणाली बेचने के करीब है, तो इजराइल और तुर्की इन्हें सस्ते ड्रोन्स, साइबर सुरक्षा, इंटेलिजेंस उपकरण तथा ब्राजील सस्ते में हल्के मिलेट्री विमान देने जा रहा है। ऐसे में, उनके सैन्य खरीद का कितना हिस्सा हमें मिलेगा कहना मुश्किल है। यह दावा कितना सही होगा कि यह अवसर भारतीय रक्षा निर्माताओं के लिए भारी निर्यात का रास्ता खोलेगा, वैश्विक रक्षा खरीद गतिशीलता को नई दिशा देगा? भारत नाटो देशों के लिए एक आकर्षक द्वितीयक सप्लायर बन जाएगा।
नाटो देश अब सस्ते और भरोसेमंद वैकल्पिक हथियार स्रोत ढूंढ रहे हैं। सो, कुछ नाटो देशों से खरीदारी के प्रस्ताव मिलते भी हैं, तो उसका हमारे रक्षा व्यवसाय पर कितना प्रभाव पड़ेगा, यह इसी बात से समझा जा सकता है कि आज 85 से अधिक देशों को रक्षा उत्पाद निर्यात करने के बावजूद भारत वैश्विक रक्षा निर्यात बाजार में एक प्रतिशत से कम की हिस्सेदारी रखता है।
विगत एक दशक में सरकार ने जो कोशिशें रक्षा के क्षेत्र में स्वदेशी और आत्मनिर्भरता के नाम पर की हैं, उसके शानदार परिणाम अब दिखने लगे हैं और तय हो चुका है कि भारत रक्षा बाजार में भविष्य का बड़ा खिलाड़ी है। ब्रह्मोस मिसाइल, तेजस, अर्जुन टैंक, स्वदेशी रडार, आर्टिलरी गन, डोर्नियर-228 विमान, आकाश वायु रक्षा प्रणाली, पिनाका रॉकेट, जैसे तमाम निर्यात योग्य शानदार उत्पाद हैं। डेटा पैटर्न इंडिया, पारस डिफेंस एंड स्पेस टेक्नोलॉजीज, डीआरडीओ, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स, भारत डायनेमिक्स, आइडियाफोर्ज टेक्नोलॉजी, एचएएल, टाटा एडवांस सिस्टम, जैसी कई कंपनियां अपने उत्पादों और डिलवरी के लिये वैश्विक स्तर पर जानी जा रही हैं। एमआरओ यानी मेंटीनेंस, रिपेयर, ओवरऑल सेक्टर में भी हम बेहतर हैं। यदि हम अपनी आकांक्षाओं को वास्तविकता के धरातल पर रखें, तो इस अवसर का लाभ हम टियर-2 सप्लायर के रूप में ले सकते हैं। सरकार का लक्ष्य है वित्त वर्ष 29 तक रक्षा निर्यात में 50,000 करोड़ रुपये हासिल करने का, उसे इसी तरह पूरा किया जा सकता है। देखना है कि इस आशावादिता का क्या हश्र होता है। 


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