SIR: प. बंगाल से ‘रिवर्स एक्सोडस’

संदीप कुमार

 |  01 Dec 2025 |   6
Culttoday

भारत-बांग्लादेश सीमा पर जब सूरज ढलता है, तो आकाश की लाली में लिपटी रेत और धूल की परतों पर एक अजीब सी बेचैनी तैरने लगती है। हकिमपुर की सीमा चौकी, जो दशकों से रातों के अंधेरे में दबे पांव आने वाले घुसपैठियों की मूक गवाह रही है, आज एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक उलटफेर की साक्षी बन रही है। जहां कभी कटीले तारों के पार से परछाइयां भारत की भूमि पर कदम रखती थीं और रातों-रात इस देश की भीड़ में विलीन हो जाती थीं, आज वही रास्ते दिन के उजाले में वापसी के कदमों से पटे पड़े हैं। यह दृश्य सामान्य नहीं है। यह मात्र पलायन नहीं है, बल्कि उस राजनीतिक और सामाजिक ढांचे के दरकने की आवाज है, जिसने वर्षों तक पश्चिम बंगाल की जनसांख्यिकी को अपनी मुट्ठी में जकड़ रखा था।
हजारों की संख्या में लोग, जिनके हाथों में पुरानी रसीदें नहीं बल्कि अपने अस्तित्व को समेटे हुए छोटे-छोटे थैले हैं, अब उस देश को छोड़ने के लिए कतार में खड़े हैं जिसे उन्होंने अपना घर मान लिया था। बीएसएफ के अधिकारी इसे 'रिवर्स एक्सोडस' यानी 'उल्टा पलायन' कह रहे हैं, लेकिन क्या यह शब्द उस गहरे राजनीतिक भूचाल को समझाने के लिए काफी है जो इस समय बंगाल की धरती पर आ रहा है? क्या यह स्वैच्छिक वापसी है? क्या यह कानून का डर है? या फिर यह एक ऐसी राजनीतिक सच्चाई का प्रकटीकरण है जिसके सामने दशकों से खड़ा तुष्टिकरण का अवैध किला अब ध्वस्त हो रहा है?
इस पूरी उथल-पुथल के केंद्र में एक प्रशासनिक प्रक्रिया है—स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन। यह शब्द सुनने में जितना तकनीकी और नीरस लगता है, इसका प्रभाव उतना ही विस्फोटक है। भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा शुरू की गई मतदाता सूची के पुनरीक्षण की इस प्रक्रिया ने पश्चिम बंगाल की राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया है। विपक्ष इसे 'डर की राजनीति' और 'तानाशाही' की संज्ञा दे रहा है, चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार पर तीखे हमले किए जा रहे हैं, और 'मानवाधिकार' की दुहाई दी जा रही है। लेकिन इस राजनीतिक कोलाहल के बीच, हकिमपुर और घोजडांगा की सीमाओं पर पसरा सन्नाटा सबसे अधिक मुखर है। वह सन्नाटा, जो उन हजारों चेहरों पर लिखा है जो कल तक भारत के मतदाता थे, लेकिन आज अपनी असली पहचान के साथ बांग्लादेश लौटने को मजबूर हैं।
एक गहन विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखें तो यह घटनाक्रम केवल चुनावी रस्साकशी नहीं है। यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा क्षण है जहां 'वोट बैंक' और 'राष्ट्रीय सुरक्षा' के बीच की धुंधली रेखा मिटने लगी है। दक्षिणपंथी चिंतकों और भारतीय जनता पार्टी के लिए, यह क्षण एक ऐतिहासिक सुधार का है। उनका मानना है कि यह प्रशासनिक अभ्यास नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के रूप में भारत की संप्रभुता की बहाली है। वर्षों से यह तर्क दिया जाता रहा है कि बंगाल में घुसपैठ केवल गरीबी से उपजी समस्या नहीं थी, बल्कि एक सुनियोजित राजनीतिक उद्योग था। आज जब SIR की प्रक्रिया ने उस उद्योग की नब्ज दबा दी है, तो पूरा तंत्र छटपटा रहा है।
इंडियन एक्सप्रेस और अन्य मीडिया रिपोर्ट्स में वर्णित दृश्य किसी मानवीय त्रासदी के पारंपरिक आख्यानों से अलग हैं। पेड़ों के नीचे बैठे अब्दुल मोमिन जैसे लोग, जो अपने जीवन की जमा-पूंजी को प्लास्टिक के बोरों में भरकर सीमा खुलने का इंतजार कर रहे हैं, वे किसी युद्ध के शरणार्थी नहीं हैं। वे एक ऐसे सिस्टम के लाभार्थी थे जो अब टूट चुका है। मोमिन और उनके जैसे हजारों लोग, जो वर्षों से यहां घरेलू कामकाज में लगे थे, कारखानों में पसीना बहा रहे थे, और सबसे महत्वपूर्ण—जो चुनावों में कतारबद्ध होकर वोट डाल रहे थे—आज कह रहे हैं, 'अब यहां और नहीं रहा जा सकता। जोखिम बहुत बड़ा है।' यह वाक्य अपने आप में पूरी कहानी कह देता है। यह जोखिम क्या है? यह जोखिम है पकड़े जाने का। यह जोखिम है उस प्रश्न का उत्तर देने का जिसे बंगाल की राजनीति ने दशकों तक दबा कर रखा—'तुम कौन हो और यहां किस अधिकार से हो?'
SIR ने पहली बार इन लोगों को आईना दिखाया है। यह प्रक्रिया केवल कागजों की जांच नहीं कर रही, बल्कि यह उस अवैध अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ रही है जो घुसपैठ पर पलती थी। इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट्स बताती हैं कि सीमा पार करना और भारत का नागरिक बनना एक बाकायदा कारोबार था। पांच से सात हजार रुपये में सीमा पार कराई जाती थी और पंद्रह से बीस हजार रुपये में फर्जी आधार, राशन कार्ड और वोटर आईडी तैयार हो जाते थे। 29 वर्षीय मनीरुल शेख का बयान इस पूरे भ्रष्टाचार की पोल खोलता है—'मैंने कागजात बनवाने के लिए लगभग बीस हजार रुपये दिए थे, लेकिन SIR ने सब कुछ बदल दिया।' यह स्वीकारोक्ति बताती है कि भारत की नागरिकता और मताधिकार को किस तरह बिकाऊ वस्तु बना दिया गया था। जब तक राजनीतिक संरक्षण था, तब तक यह धंधा फलता-फूलता रहा, लेकिन जैसे ही प्रशासन ने सख्ती दिखाई, यह ताश के पत्तों की तरह बिखरने लगा।
विपक्षी दल और वामपंथी खेमे में इस समय जो बेचैनी है, उसे समझना भी आवश्यक है। वे SIR को गरीबों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक हथियार बता रहे हैं। उनका तर्क है कि यह प्रक्रिया एक विशेष समुदाय को निशाना बनाने और उन्हें डराने के लिए है। लेकिन यहां एक मौलिक प्रश्न खड़ा होता है—क्या एक संप्रभु राष्ट्र को अपनी मतदाता सूची की पवित्रता जांचने का अधिकार नहीं है? यदि लाखों की संख्या में मृत मतदाताओं के नाम सूची में जीवित हों, यदि हजारों लोग फर्जी दस्तावेजों के आधार पर देश की नीतियों और सरकारों को चुनने में भूमिका निभा रहे हों, तो क्या यह लोकतंत्र के साथ धोखा नहीं है? एक बीएसएफ अधिकारी का यह कथन कि 'वे अंधेरे में आए थे, अब वे उजाले में सही रास्ते से वापस जा रहे हैं।' स्थिति की गंभीरता और विडंबना दोनों को दर्शाता है। यह कोई अत्याचार नहीं, बल्कि 'लॉ ऑफ द लैंड' (देश के कानून) की पुनर्स्थापना है। बंगाल की सीमा पर वर्षों से कानून का राज नहीं, बल्कि 'वोट का राज' चलता था। SIR ने पहली बार इस समीकरण को उलट दिया है।
इस पलायन को 'ऑपरेशन मौन सफाई' कहा जा सकता है। रिपोर्ट्स के अनुसार, पिछले कुछ दिनों में बारह सौ से अधिक लोग वापस लौटे हैं। कतारें दो से तीन किलोमीटर लंबी हैं। पुलिस थाने और बीएसएफ के कैंप अपनी क्षमता से अधिक भरे हुए हैं। यह दृश्य हृदयविदारक हो सकते हैं। एक बच्चा जब कहता है कि वह न्यू टाउन में अपने दोस्तों को याद करेगा, तो वह मानवीय संवेदनाओं को झकझोरता है। लेकिन भावनाएं राष्ट्रीय सुरक्षा का विकल्प नहीं हो सकतीं। यह स्थिति एक कड़वे सत्य को उजागर करती है कि अवैध बसाहट, चाहे वह कितनी भी पुरानी क्यों न हो जाए, उसे वैधता नहीं मिल सकती। यह मानवाधिकार का संकट नहीं, बल्कि एक अवैध व्यवस्था का तार्किक अंत है।
राजनीतिक गलियारों में इस समय जो शोर है, वह दरअसल उस डर की गूंज है जो सत्ता के समीकरण बदलने से उपजा है। तृणमूल कांग्रेस और इंडी गठबंधन के नेता चुनाव आयोग पर भाजपा के प्रवक्ता की तरह काम करने का आरोप लगा रहे हैं। लेकिन निष्पक्ष नजरिए से देखें तो यह आरोप हास्यास्पद लगता है। यदि चुनाव आयोग का काम निष्पक्ष चुनाव कराना है, तो फर्जी मतदाताओं को हटाना उसका प्राथमिक कर्तव्य है। प्रश्न आयोग से नहीं, बल्कि उन दलों से पूछा जाना चाहिए जिन्होंने इन अवैध प्रवासियों को दशकों तक अपना 'वोट बैंक' बनाकर जिंदा रखा। विपक्ष का आरोप है कि यह 'वोटर डिलीशन' और 'राजनीतिक सफाई' है। इस पर विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि हां, यह सफाई है—लेकिन यह किसी धर्म या जाति की सफाई नहीं, बल्कि लोकतंत्र में घुसपैठ कर चुकी फर्जी पहचानों की सफाई है।
सबसे बड़ा और दूरगामी प्रश्न यह है कि क्या SIR अभी से 2026 के बंगाल विधानसभा चुनावों की पटकथा लिख रहा है? यदि अवैध मतदाता सूची से बाहर होते हैं, यदि घुसपैठियों का वह नेटवर्क टूटता है जो स्थानीय राजनीति को प्रभावित करता था, तो इसका सीधा असर मत-प्रतिशत पर पड़ेगा। टीएमसी, जिसका एक बड़ा आधार ग्रामीण और सीमावर्ती क्षेत्रों में इन्हीं जनसांख्यिकीय समीकरणों पर टिका है, उसे भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। दूसरी ओर, भाजपा के आक्रामक राष्ट्रवादी नैरेटिव को इससे नई धार मिलेगी। यह प्रक्रिया भाजपा के इस दावे को पुख्ता करती है कि बंगाल में जनसांख्यिकीय बदलाव एक वास्तविकता है और उसे रोकने के लिए कड़े कदम उठाने की आवश्यकता थी।
कुछ मानवाधिकार संगठन और बुद्धिजीवी इसे मानवता बनाम संप्रभुता की लड़ाई के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। गरीबी, लाचारी और भय के दृश्यों को ढाल बनाकर तर्कों को मोड़ा जा रहा है। लेकिन राष्ट्रवादी दृष्टिकोण स्पष्ट है—गरीबी किसी को सीमा लांघने और दूसरे देश के कानूनों को तोड़ने का लाइसेंस नहीं देती। भारत का संविधान अवैध प्रवासियों को न तो नागरिकता का अधिकार देता है और न ही राजनीतिक भागीदारी का। ये लोग आर्थिक रूप से विपन्न हो सकते हैं, लेकिन कानून की नजर में वे निर्दोष नहीं हैं। उन्होंने एक देश की सीमाओं का ही नहीं, बल्कि उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था का भी उल्लंघन किया है।
हकिमपुर का यह दृश्य केवल स्थानीय घटना नहीं है, यह भू-राजनीतिक सच्चाई का आईना भी है। बांग्लादेश की सरकार अक्सर भारत की सीमा प्रबंधन पर सवाल उठाती रही है, लेकिन SIR की कार्यवाही ने यह सिद्ध कर दिया है कि समस्या केवल सीमा की बाड़ में नहीं थी। समस्या उस भीतरी तंत्र में थी जो घुसपैठियों का स्वागत करता था, उन्हें दस्तावेज देता था और उन्हें व्यवस्था का हिस्सा बना लेता था। आज जब यह भीतरी तंत्र जांच के दायरे में है, तो सीमा पार भी हलचल है। ढाका अब इस वास्तविकता से मुंह नहीं मोड़ सकता कि उसके नागरिक बड़ी संख्या में अवैध रूप से भारत में रह रहे थे।
दीवारों पर लिखे नारे मिटाए जा सकते हैं, लेकिन इतिहास की दीवार पर जो दरारें उभर रही हैं, उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। पश्चिम बंगाल में SIR जिस तरह से परत-दर-परत सच्चाई को उधेड़ रहा है, उसका संदेश स्पष्ट है—राजनीति बदल रही है। मतदाता बदल रहे हैं। और देश अपना लोकतांत्रिक डीएनए पुनर्गठित कर रहा है। घुसपैठ अब केवल एक चुनावी मुद्दा नहीं रह गया है, यह राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न बन गया है। यह प्रक्रिया उस दशकों पुराने भ्रम को तोड़ रही है कि भारत एक 'सॉफ्ट स्टेट' है जहाँ कोई भी आ सकता है और व्यवस्था का हिस्सा बन सकता है।
निष्कर्षतः, SIR को केवल एक प्रशासनिक कवायद मान लेना भूल होगी। यह भारत की सुरक्षा और संप्रभुता का एक 'सर्जिकल ऑडिट' है। यदि मतदाता सूची शुद्ध होती है, तो इसका लाभ केवल किसी एक दल को नहीं, बल्कि पूरे भारतीय लोकतंत्र को मिलेगा। पलायन करते लोगों की कतारें, उनके चेहरों पर छायी मायूसी और सीमा पर पसरा सन्नाटा—ये सब मिलकर एक नए युग की शुरुआत का संकेत दे रहे हैं। यह युग उस भारत का है जो अपनी सीमाओं को केवल नक्शे पर खींची गई लकीर नहीं मानता, बल्कि उसे राष्ट्र की आत्मा का रक्षक मानता है। आज, उस आत्मा की सफाई हो रही है—धीरे-धीरे, खामोशी से, लेकिन अत्यंत निर्णायक रूप से। और इस प्रक्रिया में, बंगाल की राजनीति हमेशा के लिए बदलने वाली है।


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