बिहार का जनादेशः लाभार्थी-आधारित राजनीति का उभार
संदीप कुमार
| 01 Dec 2025 |
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मिथिला के किसी धूल भरे गांव में, एक झुकी हुई कमर वाली वृद्धा, जिसकी आंखों में दशकों की कहानियां सिमटी थीं, एक पत्रकार के माइक पर झुककर कहती है, 'बउआ, नीमकहरामी नय करबइ!' (बेटा, नमकहरामी नहीं करुँगी)। यह वाक्य किसी राजनीतिक विश्लेषक का जटिल सिद्धांत नहीं, बल्कि 2025 के बिहार जनादेश का सार है। यह उस मौन भूकम्प का केंद्रबिंदु है जिसने 243 सीटों में से 202 पर एनडीए को स्थापित कर दिया और महागठबंधन के सामाजिक समीकरणों के महाद्वीप को इतिहास के गहरे सागर में डुबो दिया। यह वृद्धा किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं है; वह उस विशाल, अदृश्य और अब तक खामोश स्त्री-शक्ति का चेहरा है, जिसने इस चुनाव में बिहार की राजनीति का व्याकरण हमेशा के लिए बदल दिया।
हम अक्सर राजनीतिक परिवर्तनों को नारों के शोर, रैलियों के हुजूम और वाद-विवाद की गर्मी से मापते हैं। लेकिन 2025 में बिहार ने जिस बदलाव को जन्म दिया, वह 'मौन' था। यह दबे पांव आया, किसी भूगर्भिक हलचल की तरह, जिसकी सतह पर कोई कंपन महसूस नहीं हुआ, लेकिन जिसने नीचे की टेक्टोनिक प्लेटों को हमेशा के लिए विस्थापित कर दिया। विश्लेषक इसे 'एंटी-इन्कंबेंसी' की लहर समझ रहे थे, जब मतदान केंद्रों पर महिलाओं की अभूतपूर्व लंबी कतारें लगीं। वे इसे सत्ता परिवर्तन का संकेत मान रहे थे। लेकिन यह एक 'प्रो-इन्कंबेंसी' सुनामी थी, जो नीतीश कुमार के दो दशकों के सामाजिक निवेश और नरेंद्र मोदी के 'लाभार्थी' मॉडल के संगम से पैदा हुई थी। यह एक ऐसा अदृश्य युद्ध था, जिसे जाति के पारंपरिक हथियारों से नहीं, बल्कि राशन कार्ड, पेंशन की बढ़ी हुई राशि और बैंक खातों में सीधे भेजे गए दस हजार रुपयों से लड़ा गया।
आइये, हम उन अदृश्य दरारों की विस्तृत पड़ताल करें जो केवल विपक्षी दलों की नींव में नहीं, बल्कि बिहार की सामाजिक और राजनीतिक संरचना के मूल ढांचे में पड़ गई हैं।
जब अंकगणित पर रसायनशास्त्र भारी पड़ा
इस राजनीतिक भूकम्प की तीव्रता को समझने के लिए हमें सबसे पहले आंकड़ों के ठंडे, निर्मम सत्य को देखना होगा। एनडीए का 47% वोट शेयर और महागठबंधन का 38% पर सिमट जाना, दोनों के बीच 9% का यह विशाल अंतर किसी मामूली स्विंग का परिणाम नहीं है। यह एक सामाजिक पुनर्गठन का प्रमाण है। दशकों से, बिहार की राजनीति कुछ ठोस 'महाद्वीपों' पर टिकी थी: राजद का 'एम-वाई' (मुस्लिम-यादव) का अभेद्य किला और भाजपा का सवर्ण मतदाताओं का गढ़, जिनके बीच नीतीश कुमार अति पिछड़ों, महादलितों और गैर-यादव ओबीसी के बिखरे हुए द्वीपों को जोड़कर अपना साम्राज्य बनाते थे।
2025 के चुनाव ने इस भूगोल को पूरी तरह बदल दिया। एनडीए ने न केवल अपने पारंपरिक सवर्ण दुर्ग को अक्षुण्ण रखा, बल्कि उस पर विजय पताका फहराते हुए एक नए सामाजिक महाद्वीप की रचना की। इस महाद्वीप की नींव में गैर-यादव ओबीसी और अति-पिछड़ों की विशाल आबादी की ईंटें लगी थीं। आंकड़ों की शल्यक्रिया बताती है कि एनडीए के वोट में 15% का विशाल हिस्सा इसी ईबीसी समुदाय से आया, जो नीतीश कुमार के सामाजिक आधार का भाजपा के संगठनात्मक ढांचे के साथ मिलकर एक दुर्जेय शक्ति में बदलना दर्शाता है। इसी के साथ, दलित समुदाय का एक बड़ा हिस्सा भी इस महाद्वीप का हिस्सा बना, जहाँ एनडीए ने 13% एससी-एसटी वोट हासिल किए, जबकि महागठबंधन 4% पर ही सिमट गया।
सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन राजद के 'एम-वाई' किले में लगी सेंध थी। यद्यपि महागठबंधन को यादवों और मुस्लिमों का बड़ा समर्थन मिला, लेकिन एनडीए ने यादवों के 3% और मुस्लिमों के 2% वोट में सेंध लगा दी। यह छोटी सी सेंधमारी उस मनोवैज्ञानिक दीवार के टूटने का प्रतीक है, जो कहती थी कि ये समुदाय कभी भी भाजपा को वोट नहीं दे सकते। यह केवल अंकगणित नहीं था; यह एक नया सामाजिक रसायनशास्त्र था। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे 'महिला-युवा' का नया 'माई' कॉम्बिनेशन कहकर एक नई परिभाषा दी—एक ऐसा समीकरण जो जाति और धर्म की सीमाओं को लांघकर सीधे आकांक्षा और लाभ पर आधारित था।
नारीवादी लोकतंत्र: बीस साल का मौन निवेश
यह दो दशकों के मौन निवेश का लाभांश था, एक ऐसा ऋण जो बिहार की करोड़ों महिलाओं ने इस चुनाव में विश्वास के वोट से चुकाया। जब राजनीतिक विश्लेषक नीतीश कुमार के स्वास्थ्य और उनकी घटती राजनीतिक ताकत पर बहस कर रहे थे, तब वे यह भूल गए कि नीतीश ने पिछले दो दशकों में चुपचाप बिहार के सबसे बड़े और सबसे मौन वोट बैंक—महिलाओं—में निवेश किया था।
यह यात्रा 2005 में पंचायत चुनावों में 50% महिला आरक्षण के क्रांतिकारी कदम से शुरू हुई थी। यह केवल एक सीट आरक्षित करना नहीं था; यह सत्ता के केंद्र में महिलाओं को भागीदार बनाना था। इसके बाद आई 'साइकिल योजना', जिसने लड़कियों को शिक्षा और गतिशीलता दी। साइकिल पर स्कूल जाती लड़कियों की तस्वीर बिहार में पितृसत्ता की जंजीरों के टूटने का प्रतीक बन गई। फिर शराबबंदी का साहसिक फैसला आया, जो सीधे तौर पर घर की महिला से जुड़ा था। 'जीविका' दीदियों का विशाल नेटवर्क इस 'नारीवादी लोकतंत्र' की रीढ़ बना। 1.4 करोड़ से अधिक महिलाओं का यह स्वयं सहायता समूह केवल एक आर्थिक कार्यक्रम नहीं रहा; यह एक सामाजिक और राजनीतिक शक्ति बन गया। ये महिलाएं अब केवल लाभार्थी नहीं थीं; वे शासन की शिल्पकार थीं।
चुनाव से ठीक पहले 'मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना' के तहत दस हजार रुपये का हस्तांतरण इस दो दशक की कहानी का चरमोत्कर्ष था। विपक्ष ने इसे 'रिश्वत' कहा, लेकिन उन महिलाओं के लिए यह उनके लंबे भरोसे का प्रतिफल था। यह विश्वास एक दिन में नहीं खरीदा जा सकता; इसे कमाना पड़ता है। 2025 का जनादेश इसी कमाई का प्रमाण था।
विपक्ष का आत्म-विनाश
यदि एनडीए की विजय एक सुनियोजित महाकाव्य थी, तो महागठबंधन की पराजय आत्म-विनाश की एक दुखद गाथा है। वे उस युद्ध को लड़ने की तैयारी कर रहे थे जो पहले ही खत्म हो चुका था, जिसके हथियार पुराने पड़ चुके थे। तेजस्वी यादव और राजद नेतृत्व इस भ्रम में रहे कि उनका 31% का कोर वोट बैंक उन्हें सत्ता की दहलीज तक पहुंचा देगा। उन्होंने इस किले से बाहर निकलकर ईबीसी, दलितों और अन्य समुदायों के साथ एक व्यापक इंद्रधनुषी गठबंधन बनाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। इसके विपरीत, एनडीए ने चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा को साथ लाकर सामाजिक रूप से अधिक समावेशी गठबंधन बनाया। जहाँ एक ओर अमित शाह पटना में डेरा डालकर बागियों को मना रहे थे, वहीं महागठबंधन में 'दोस्ताना लड़ाई' और अंदरूनी कलह जारी थी। तेजस्वी यादव का असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को साथ न लेना एक रणनीतिक भूल साबित हुई, जिसने सीमांचल में मुस्लिम वोटों का विभाजन कर महागठबंधन को भारी क्षति पहुंचाई। और इन सब के ऊपर 'जंगल राज' का भूत मंडराता रहा, जिसकी याद दिलाकर एनडीए ने विकास और सुरक्षा के अपने नैरेटिव को और मजबूत किया।
एक नई राजनीति का उदय
इस जनादेश का सबसे गहरा सबक यह है कि बिहार की राजनीति एक निर्णायक मोड़ पर आ खड़ी हुई है। यह 'मंडल' राजनीति का अंत नहीं है, बल्कि उसका रूपांतरण है। अब राजनीति केवल इस आधार पर नहीं होगी कि 'आप कौन हैं', बल्कि इस आधार पर होगी कि 'आपको क्या मिला है'। 'लाभार्थी वर्ग' एक नई, शक्तिशाली राजनीतिक पहचान के रूप में उभरा है, जो जाति की दीवारों को भेद रही है। जिस व्यक्ति को मुफ्त राशन, उज्ज्वला का सिलेंडर और किसान सम्मान निधि मिली है, उसकी पहली पहचान अब उसकी जाति नहीं, बल्कि एक 'लाभार्थी' की है। यह एक सीधा, व्यक्तिगत संबंध है जो उसने सरकार के साथ बनाया है। इस संबंध के आगे जाति के पुराने समीकरण कमजोर पड़ रहे हैं।
मौन मतदाताओं की शक्ति का उद्घोष
बिहार का 2025 का जनादेश केवल एक राज्य का चुनावी परिणाम नहीं है; यह पूरे भारत की राजनीति के लिए एक संदेश है। यह उस 'मौन मतदाता' की शक्ति का उद्घोष है, जिसे अक्सर अभिजात्य विमर्श में नजरअंदाज कर दिया जाता है। क्या यह परिणाम लोकतंत्र के लिए स्वस्थ है? क्या तात्कालिक लाभ, दीर्घकालिक मुद्दों जैसे कि रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य पर भारी पड़ जाएंगे? ये प्रश्न भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन एक बात स्पष्ट है। बिहार का यह जनादेश इस बात का प्रतीक है कि मतदाता का विवेक अब बदल चुका है। वह अब केवल पहचान के नाम पर वोट नहीं देगा; वह अपने जीवन में आए ठोस बदलाव के आधार पर फैसला करेगा। बिहार ने जो रास्ता दिखाया है, वह भारत की भविष्य की राजनीति की पटकथा लिख सकता है, जहाँ सबसे बड़ी जाति का नाम 'लाभार्थी' होगा और सबसे बड़ा धर्म 'विकास' होगा। चुनाव हमारा है, लेकिन बिहार ने अपनी पसंद स्पष्ट कर दी है।