RIC: अग्निपथ ! अग्निपथ ! अग्निपथ ! (आवरण कथा)

संदीप कुमार

 |  02 Sep 2025 |   11
Culttoday

वह बीसवीं सदी के अवसान का दौर था। शीत युद्ध की राख पर जिस एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था की भव्य इमारत खड़ी की गई थी, उसकी दीवारों में अब दरारें साफ नज़र आने लगी थीं। दशकों तक दुनिया की तकदीर लिखने का दंभ भरने वाले पश्चिमी देशों के नेतृत्व वाले इस किले की नींव हिल रही थी। 2008 के वित्तीय संकट के भूचाल ने इसकी आर्थिक चूलें हिला दीं, और अमेरिका की 'अमेरिका फर्स्ट' जैसी नीतियों के आत्म-केंद्रित कोलाहल ने उसके अपने ही सहयोगियों के मन में अविश्वास का बीज बो दिया। व्यवस्था के प्रति एक नाराजगी, एक आक्रोश पूरी दुनिया में, विशेषकर उन देशों में सुलग रहा था जिन्हें दशकों तक इस व्यवस्था में हाशिये पर रखा गया था।
वैश्विक पटल पर इस असंतोष को पहली बार ब्रिक जैसा एक गैर-पश्चिमी गठबंधनों के रूप में एक मंच 2006 में गठन होना आरंभ हुआ और 16 जून 2009 को रूस के येकातेरिनबर्ग में अपने पहले शिखर सम्मेलन के साथ एक मंच उभर कर समाने आया तथा 2010 में दक्षिण अफ्रीका के शामिल होने के बाद यह ब्रिक से ब्रिक्स बन गया। यह ग्लोबल साउथ की एक सामूहिक हुंकार थी, जो अब तक के नियंताओं को यह बताने की कोशिश थी कि खेल के नियम अब अकेले वे तय नहीं करेंगे। ब्रिक्स, जो कभी महज़ एक निवेश का जुमला लगता था, देखते ही देखते एक ऐसी संस्था में तब्दील हो गया जिसने न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) जैसे अपने खुद के संस्थान खड़े कर दिए, जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक की पश्चिमी जागीरदारी को सीधी चुनौती दे रहे थे।
कुछ ऐसी ही परिस्थितियाँ पिछले एक दशक की वैश्विक राजनीति में भी देखी गईं। इस वैश्विक असंतोष के भीतर से एक नई धुरी को गढ़ा जा रहा था। इस धुरी को गढ़ने वाली कोई एक शक्ति नहीं थी, बल्कि इसके पीछे ऐतिहासिक अनिवार्यता और बदलता शक्ति संतुलन था। और जिस त्रिएका को इस नई विश्व व्यवस्था का आइकॉन बनना था, वे थे - रूस, भारत और चीन (आरआईसी)। इस त्रिएका को एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था की मौजूदगी, वैश्विक समस्याओं का एक गैर-पश्चिमी समाधान प्रदाता की छवि और अपने पश्चिमी विरोधियों के खिलाफ एक वातावरण भी सृजित करना था। और साथ ही यह संदेश भी देना था कि इस एकध्रुवीय दुनिया के दबाव भरे वातावरण से केवल वही छुटकारा दिला सकते हैं।
इस पूरे परिदृश्य के पीछे, एक बहुध्रुवीय विश्व की चाहत नियोजित ढंग से अपनी भूमिका निभा रही थी। रूस, भारत और चीन के लिए इस नई भूमिका में यह साफ था कि उन्हें अपनी जुगलबंदी ऐसी रखनी है कि लगभग पंगु हो चुकी पुरानी अमेरिका केंद्रित विश्व-व्यवस्था का एक ही विकल्प केवल वहीं हैं। देखते ही देखते इस त्रिएका ने पश्चिमी नेतृत्व की सारी विफलताओं को अपने हक में सफलता की कुंजी बनाने में सफल होती दिखी और ग्लोबल साउथ के हताश-निराश माहौल में उम्मीद की किरण बनकर उभरने लगी। रही सही कसर, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की नीतियों ने पूरी कर दी।
और यहीं से एक नए युग के आरंभ की आहट सुनाई देने लगी। एक ऐसा युग जहाँ रूस-भारत-चीन की यह धुरी, ब्रिक्स+ के विशाल रथ का संचालन करने वाली शक्ति के रूप में देखी जा रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह त्रिएका वास्तव में एक साथ मिलकर चल पाएगी? क्या हाथी (भारत), ड्रैगन (चीन) और भालू (रूस) की यह जुगलबंदी वैश्विक रंगमंच पर एक नया इतिहास लिख पाएगी, या फिर उनके अपने ही अंतर्विरोध इस पटकथा को त्रासदी में बदल देंगे? भारत के लिए यह केवल एक वैश्विक घटनाक्रम नहीं, बल्कि एक अग्निपथ है, जिस पर हर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा।
त्रिएका के तीन चेहरे 
वैश्विक रंगमंच पर आरआईसी का पुनरुत्थान एक ऐसे नाटक की तरह है जिसके तीनों मुख्य किरदारों की अपनी-अपनी पटकथा है, अपनी मजबूरियां हैं, और अपने लक्ष्य हैं। वे एक मंच पर तो हैं, लेकिन उनकी निगाहें अलग-अलग दिशाओं में हैं। इन किरदारों की मन की परतों को खोले बिना इस नाटक की दिशा को समझना नामुमकिन है।
किरदार नंबर एक: रूस 
आज इस त्रिपक्षीय संवाद के लिए यदि कोई सबसे अधिक बेचैन है, तो वह रूस है। 2022 में यूक्रेन पर हमले के बाद पश्चिम के प्रतिबंधों की बेड़ियों में जकड़ा रूस, अपनी राजनयिक तन्हाई को तोड़ने के लिए पूरब के दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है। उसके लिए आरआईसी महज़ एक कूटनीतिक मंच नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व को बचाने और यह साबित करने का एक ज़रिया है कि वह अभी भी विश्व का एक अहम खिलाड़ी है। रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव का आरआईसी को फिर से ज़िंदा करने का आह्वान, मॉस्को के मन में चल रही दोहरे द्वंद को दर्शाता है।
पहला, यह पश्चिम को एक खुला संदेश है कि तुम्हारी चौधराहट के दिन लद गए। तुम हमें अलग-थलग करने की जितनी कोशिश करोगे, हम उतने ही मज़बूत नए साथी ढूंढ लेंगे। दूसरा, और शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण, यह चीन के आगोश में पूरी तरह समा जाने के डर से खुद को बचाने की एक कोशिश है। आज रूस की अर्थव्यवस्था और राजनीति चीन पर खतरनाक हद तक निर्भर हो चुकी है। उनका द्विपक्षीय व्यापार आसमान छू रहा है, लेकिन मॉस्को इस रिश्ते की विषमता से वाकिफ है। वह जानता है कि इस रिश्ते में वह एक जूनियर पार्टनर बनता जा रहा है। ऐसे में, आरआईसी का मंच उसे चीन के साथ बराबरी पर खड़े होकर बात करने का एक मनोवैज्ञानिक संबल देता है। इस मंच पर भारत की मौजूदगी, रूस को चीन पर अपनी निर्भरता को संतुलित करने का एक अनमोल अवसर प्रदान करती है। रूस के लिए, आरआईसी अपनी खोई हुई वैश्विक प्रतिष्ठा को फिर से पाने और यूरेशिया में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की संजीवनी बूटी है।
किरदार नंबर दो: चीन 
चीन का आरआईसी के प्रति प्रेम किसी भावनात्मक लगाव का परिणाम नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। ड्रैगन की नज़रें ताइवान और दक्षिण चीन सागर पर गड़ी हैं। उसका सारा ध्यान अपनी सेना को दुनिया की सबसे ताकतवर सेना बनाने पर है। ऐसे में, वह नहीं चाहता कि भारत के साथ उसकी ज़मीनी सरहद पर कोई नया मोर्चा खुले। 2020 की गलवान की खूनी झड़प के बाद से भारत के साथ रिश्ते जिस बर्फ में जम गए हैं, आरआईसी उस बर्फ को पिघलाने के लिए एक धीमी आंच का काम कर रहा है। यह चीन को भारत के साथ एक नियंत्रित संवाद बनाए रखने का मौका देता है, बिना सीमा विवाद जैसे असल मुद्दे पर कोई ठोस रियायत दिए।
इसके अलावा, चीन अमेरिका के साथ एक चौतरफा मुकाबले में उलझा हुआ है। व्यापार युद्ध से लेकर तकनीकी प्रभुत्व तक, हर मोर्चे पर वाशिंगटन उसे घेरने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में, चीन आरआईसी और ब्रिक्स जैसे मंचों का इस्तेमाल यह दिखाने के लिए करता है कि वह अकेला नहीं है, और दुनिया के कई बड़े देश अमेरिकी व्यवस्था के खिलाफ उसके साथ खड़े हैं। यह ग्लोबल साउथ को लुभाने और यह संदेश देने की एक कोशिश है कि भविष्य की दुनिया का नेतृत्व बीजिंग करेगा, वाशिंगटन नहीं। लेकिन चीन अपनी दादागिरी दिखाने से भी नहीं चूकता। कभी दुर्लभ खनिजों के निर्यात पर रोक लगाकर भारत के ऑटो उद्योग को परेशान करना, तो कभी उर्वरकों की खेप रोक देना - ये छोटी-छोटी हरकतें यह याद दिलाने के लिए काफी हैं कि इस रिश्ते में बड़ा भाई कौन है। चीन के लिए, आरआईसी अपने बड़े रणनीतिक खेल का महज़ एक मोहरा है।
किरदार नंबर तीन: भारत 
और फिर आता है भारत - वह हाथी जो अपनी मंथर लेकिन सधी हुई चाल से इस जटिल भू-राजनीतिक जंगल में अपना रास्ता तलाश रहा है। भारत के लिए आरआईसी एक ऐसी पहेली है, जिसे सुलझाना उसकी मजबूरी भी है और ज़रूरत भी। भारत हमेशा से एक बहुध्रुवीय विश्व का सपना देखता आया है, जहाँ किसी एक देश की मनमानी न चले। लेकिन आज वह एक अजीब चौराहे पर खड़ा है। एक तरफ अमेरिका और पश्चिम के साथ उसकी गहरी होती रणनीतिक और आर्थिक साझेदारी है, तो दूसरी तरफ रूस के साथ दशकों पुरानी, समय की कसौटी पर खरी उतरी दोस्ती।
लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रंप की नीतियां अमेरिका के साथ लगभग तीन दशकों में बनी विश्वास के सेतु को तोड़ रहा है। चाहे ऑपरेशन सिंदूर में सीजफायर कराने के ट्रंप के दावे हो या फिर भारत से ट्रेड डील का ना होना और 25 प्रतिशत तक के भारी टैरिफ, तिस पर तुर्रा रूस से तेल लेने पर 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ बतौर जुर्माना।
ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए, भारत ने 'रणनीतिक स्वायत्तता' का मंत्र अपनाया है। वह किसी एक खेमे का पिछलग्गू बनने से इनकार करता है। आरआईसी इसी स्वायत्तता को बनाए रखने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। यह भारत को एक ऐसा मंच देता है जहाँ वह पश्चिम के दबाव को संतुलित कर सकता है, रूस के साथ अपने संबंधों को ऊर्जा दे सकता है, और सबसे महत्वपूर्ण, चीन के साथ तनाव के बावजूद बातचीत का एक दरवाजा खुला रख सकता है। यह एक बेहद नाजुक संतुलन है। जब भारत चीनी नागरिकों के लिए वीज़ा नियम आसान करता है या चीनी निवेश के लिए दरवाज़े खोलता है, तो वह दुनिया को यह संकेत देता है कि वह संवाद का विरोधी नहीं है, लेकिन साथ ही वह सीमा पर अपनी फौलादी पकड़ भी बनाए रखता है। भारत के लिए, आरआईसी एक रणनीतिक बचाव है, एक ऐसा विकल्प जिसे वह अपनी विदेश नीति के तरकश में हमेशा रखना चाहेगा।
दरारें और अंतर्विरोध 
इस त्रिएका की तस्वीर बाहर से जितनी आकर्षक दिखती है, अंदर से उतनी ही खोखली और दरारों से भरी है। कई ऐसे अनसुलझे सवाल और गहरे अंतर्विरोध हैं, जो इस कथित गठबंधन की नींव को किसी भी समय हिला सकते हैं।
अविश्वास की अनसुलझी गांठ
इस त्रिकोण का सबसे कमज़ोर कोना, इसकी 'अकिलीज़ हील', भारत और चीन के बीच हिमालय की बर्फीली चोटियों पर खिंची अनसुलझी सरहद है। यह महज़ एक सीमा विवाद नहीं, बल्कि दो सभ्यताओं के बीच गहरे अविश्वास का एक नासूर है जो दशकों से रिस रहा है। 2020 में गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों का बलिदान उस अविश्वास की खाई को और गहरा कर गया। हालांकि लद्दाख के कुछ इलाकों में तनाव कम करने के लिए समझौते हुए हैं, लेकिन यह महज़ घाव पर मरहम लगाने जैसा है, रोग का इलाज नहीं। जब तक चीन सीमा पर यथास्थिति को एकतरफा बदलने की अपनी कोशिशें बंद नहीं करता और भारत की संप्रभुता का सम्मान नहीं करता, तब तक दोनों देशों के बीच सच्चा विश्वास बहाल होना एक ख्वाब ही रहेगा। यह अविश्वास आरआईसी की आत्मा पर एक भारी बोझ है। भला वे देश दुनिया का नया नक्शा कैसे खींच सकते हैं, जो अपने घर का नक्शा ही तय नहीं कर पा रहे? भारत के लिए, चीन के साथ किसी भी मंच पर खड़ा होना, पीठ पर छुरा घोंपने के जोखिम के साथ आता है। हालांकि इसी महीने चीनी विदेशमंत्री वांग यी के भारत दौरे से संबंधों के बीच जमी बर्फ पिघलनी शुरू हुई है, और जहां जटिलताएं कम है, वहां दोनों देशों के बीच के सीमा के निर्धारण पर सहमति बनी है। इसी तरह सितंबर से शुरूआती सप्ताह में होने वाले एससीओ समेमेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जाने वाले हैं, वहां उनकी मुलाकात न केवल शी जिंगपिंग से होगी बल्कि वहां वह ब्लादिमीर पुतिन से भी मुलाकात करेंगे। उम्मीद है कि स्थितियां सकारात्मक ढंग से आगे बढ़ेंगी। 
भारत के लिए खतरे की घंटी
एक और बड़ा खतरा रूस और चीन के बीच पनपता वह 'अटूट' भाईचारा है, जो नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में चिंता की लकीरें खींच रहा है। यूक्रेन युद्ध ने रूस को इतना कमजोर और अकेला कर दिया है कि वह चीन का एक जूनियर पार्टनर बनने पर मजबूर हो गया है। यह जुगलबंदी आरआईसी के भीतर शक्ति संतुलन को खतरनाक रूप से चीन के पक्ष में झुका देती है। भारत के मन में यह डर स्वाभाविक है कि कहीं आरआईसी एक ऐसा मंच न बन जाए जहाँ बीजिंग और मॉस्को मिलकर नई दिल्ली पर किसी खास मुद्दे पर झुकने के लिए दबाव डालें। भारत इस त्रिकोण में तीसरा कोण बनकर रहना चाहता है, न कि दो कोणों द्वारा बनाया गया शिकार। यदि रूस अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की पहचान खो देता है और पूरी तरह से चीन की धुन पर नाचने लगता है, तो आरआईसी भारत के लिए एक फायदेमंद मंच के बजाय एक खतरनाक जाल बन सकता है।
अर्थतंत्र की उलझी डोर
इस त्रिकोण की नींव सिर्फ राजनीति ही नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था पर भी टिकी है, और यह नींव भी बहुत मज़बूत नहीं है। भारत और चीन के बीच व्यापार तो बहुत है, लेकिन यह एकतरफा है। भारत का बाज़ार चीनी सामानों से पटा पड़ा है, जबकि चीन के बाज़ार में भारतीय उत्पादों की पहुंच बहुत सीमित है। यह भारी व्यापार घाटा भारत की अर्थव्यवस्था के लिए एक सतत सिरदर्द है। यही हाल रूस के साथ भी है, जहाँ भारत भारी मात्रा में तेल और हथियार तो खरीदता है, लेकिन अपने उत्पादों के लिए रूसी बाज़ार नहीं खोल पाता।
इसके अलावा, तीनों देशों के नियम-कानून, व्यापार करने के तरीके, और तकनीकी मानक इतने अलग हैं कि एक सहज आर्थिक एकीकरण लगभग असंभव लगता है। भारत का डिजिटल डेटा कानून, चीन के सरकारी नियंत्रण वाले इंटरनेट मॉडल से मेल नहीं खाता। जब तक ये संरचनात्मक बाधाएं दूर नहीं होतीं, तब तक आरआईसी एक प्रभावी आर्थिक गुट नहीं बन सकता।
क्या यह त्रिएका रच पाएगी इतिहास?
इन तमाम चुनौतियों और कांटों के बावजूद, आरआईसी के आंगन में संभावनाओं के कुछ फूल खिलने की उम्मीद अभी बाकी है। यदि ये तीनों देश अपने मतभेदों को किनारे रखकर साझा हितों पर ध्यान केंद्रित करें, तो वे न केवल अपने लिए, बल्कि पूरे ग्लोबल साउथ के लिए एक नई सुबह ला सकते हैं।
एक नई आर्थिक व्यवस्था की नींव: भारत का यूपीआई आज दुनिया में डिजिटल भुगतान की क्रांति का प्रतीक बन चुका है। चीन के पास भी अलीपे जैसा मजबूत प्लेटफॉर्म है। यदि ये देश मिलकर एक साझा डिजिटल भुगतान प्रणाली विकसित करें, तो वे डॉलर और पश्चिमी वित्तीय प्रणालियों पर अपनी निर्भरता को काफी हद तक कम कर सकते हैं। 2025 का पनडुब्बी इंटरनेट केबल प्रोजेक्ट भी इसी दिशा में एक कदम है, जो डेटा के प्रवाह के लिए पश्चिमी बुनियादी ढांचे की गुलामी से मुक्ति दिला सकता है।
तकनीक और नवाचार में साझेदारी: चीन हरित ऊर्जा और 5जी में दुनिया का अगुआ है। भारत सौर ऊर्जा और सॉफ्टवेयर में अपनी धाक जमा चुका है। रूस के पास अंतरिक्ष और रक्षा प्रौद्योगिकी का विशाल अनुभव है। यदि ये तीनों देश मिलकर अनुसंधान और विकास में सहयोग करें, तो वे अगली पीढ़ी की प्रौद्योगिकियों में पश्चिम को कड़ी टक्कर दे सकते हैं।
वैश्विक मंचों पर बुलंद आवाज़: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाएं आज भी 1945 की दुनिया का प्रतिनिधित्व करती हैं। आरआईसी एक साथ मिलकर इन संस्थाओं में सुधार के लिए दबाव बना सकता है, ताकि भारत जैसी उभरती शक्तियों को उनका वाजिब हक मिल सके और ग्लोबल साउथ की आवाज़ को अनसुना न किया जा सके।
भारत के लिए अग्निपथ
अंततः, रूस-भारत-चीन की यह उभरती धुरी भारत के लिए एक अवसर भी है और एक चुनौती भी। यह एक ऐसा अग्निपथ है जिस पर चलकर भारत को अपनी कूटनीतिक कुशलता और राष्ट्रीय संकल्प, दोनों की परीक्षा देनी होगी।
भारत के लिए आगे की राह साफ है, लेकिन आसान नहीं। उसकी रणनीति के तीन स्तंभ होने चाहिए: 
सीमा पर फौलादी इरादे: चीन के साथ बातचीत के दरवाज़े भले ही खुले रहें, लेकिन सीमा पर किसी भी तरह की ढिलाई या कमजोरी की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। भारत को अपनी सैन्य और ढांचागत क्षमताओं को लगातार मज़बूत करते रहना होगा, क्योंकि सम्मान और सुरक्षा शक्ति से ही आती है।
बहु-संरेखण का सुरक्षा कवच: भारत को अपनी सारी उम्मीदें आरआईसी से नहीं बांधनी चाहिए। उसे अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड को भी मज़बूत करना होगा। यूरोप, आसियान और मध्य पूर्व के देशों के साथ अपने संबंधों को भी गहरा करना होगा। एक ओर आरआईसी के साथ संवाद का धागा पकड़े रखना, तो दूसरी ओर क्वाड के मंच पर अपने लोकतांत्रिक साझेदारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होना - यही वह कूटनीतिक कलाबाजी है जो आज भारत की नियति बन चुकी है। 
व्यावहारिक और मुद्दे-आधारित सहयोग: आरआईसी के भीतर, भारत को भावनात्मक नारों से बचकर शुद्ध व्यावहारिक हितों पर ध्यान देना होगा। आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, व्यापार और कनेक्टिविटी जैसे मुद्दों पर जहाँ हित मिलते हों, वहाँ सहयोग करना चाहिए, लेकिन रणनीतिक मुद्दों पर अपनी लक्ष्मण रेखा को कभी पार नहीं करना चाहिए।
ड्रैगन, भालू और हाथी की यह जुगलबंदी वैश्विक राजनीति का सबसे दिलचस्प और शायद सबसे महत्वपूर्ण नाटक है। वे शायद कभी भी एक सुर में नहीं गा पाएंगे, लेकिन दुनिया के बदलते संगीत में, उन्हें एक साथ मंच पर बने रहने का एक तरीका खोजना होगा। भारत के लिए इस नाटक में अपनी भूमिका को कुशलता से निभाना, अपनी स्वायत्तता को बनाए रखना और अपने राष्ट्रीय हितों को साधना, 21वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती है। यह एक ऐसा संघर्ष है जो दिल्ली के सत्ता के गलियारों में नहीं, बल्कि कूटनीति की वैश्विक चौसर पर लड़ा जाएगा, और इसका परिणाम ही तय करेगा कि भविष्य के इतिहास में भारत का स्थान क्या होगा।
 


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