पूर्वी मोर्चा, गहराता भू-संकट

संतु दास

 |  01 Dec 2025 |   6
Culttoday

दक्षिण एशिया का भू-राजनीतिक मानचित्र इस समय एक अभूतपूर्व और विस्फोटक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। भारत के पूर्वी पड़ोस में स्थित बांग्लादेश, जिसे कभी 1971 के मुक्ति संग्राम के बाद धर्मनिरपेक्षता और भाषाई राष्ट्रवाद का एक मॉडल माना जाता था, आज अपनी ही पहचान के अस्तित्वगत संकट से जूझ रहा है। ढाका में सत्ता परिवर्तन के बाद जिस तरह की अराजकता, कट्टरपंथ और भारत विरोधी भावनाओं का ज्वार उठा है, उसने नई दिल्ली के साउथ ब्लॉक में खतरे की घंटी बजा दी है। शेख हसीना को सुनाई गई मौत की सजा और अवामी लीग के नेतृत्व के खिलाफ चल रहा प्रतिशोध का दौर केवल एक आंतरिक राजनीतिक घटनाक्रम नहीं है, बल्कि यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक गंभीर चुनौती का संकेत है। इस बदलते परिदृश्य में, जहां एक ओर बांग्लादेश में पाकिस्तान और अन्य विदेशी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर भारत ने अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सिलीगुड़ी कॉरिडोर से लेकर चटगांव तक एक नई और आक्रामक रणनीतिक बिसात बिछाना शुरू कर दिया है।
बांग्लादेश का आंतरिक पतन और कट्टरपंथ का नया अध्याय
वर्तमान में बांग्लादेश जिस दौर से गुजर रहा है, उसे केवल राजनीतिक अस्थिरता कहना स्थिति की गंभीरता को कम करके आंकना होगा। यह एक वैचारिक तख्तापलट है। शेख हसीना की सरकार के पतन के बाद बनी अंतरिम सरकार, जिसका नेतृत्व मोहम्मद यूनुस कर रहे हैं, देश को स्थिरता प्रदान करने के बजाय कट्टरपंथी तत्वों के हाथों की कठपुतली बनती दिख रही है। 2013 की प्रत्यर्पण संधि का हवाला देकर शेख हसीना की वापसी की मांग करना एक कूटनीतिक दबाव की रणनीति है, लेकिन इसके पीछे की मंशा प्रतिशोध से प्रेरित है। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि बांग्लादेश में प्रतिबंधित संगठन हिज्ब-उत-तहरीर जैसे समूह अब खुलेआम ढाका की सड़कों पर 'खिलाफत' की मांग करते हुए रैलियां निकाल रहे हैं। जमात-ए-इस्लामी, जो कभी हाशिये पर थी, अब मुख्यधारा की राजनीति और छात्र संगठनों के साथ तालमेल बिठाकर अपनी जड़ें जमा रही है।
इस कट्टरपंथ का सबसे पहला और आसान शिकार वहां का अल्पसंख्यक समुदाय, विशेषकर हिंदू, बन रहा है। अगस्त 2024 से जून 2025 के बीच 2400 से अधिक हेट-क्राइम के मामले दर्ज होना यह दर्शाता है कि राज्य मशीनरी या तो लाचार है या फिर इन तत्वों को मूक समर्थन दे रही है। बांग्लादेश की स्थापना जिस धर्मनिरपेक्षता के आधार पर हुई थी, उसे सुनियोजित तरीके से ध्वस्त किया जा रहा है। यह सामाजिक और जनसांख्यिकीय परिवर्तन भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के लिए सीधा खतरा है, क्योंकि इतिहास गवाह है कि जब भी ढाका में कट्टरपंथ हावी हुआ है, उसका सीधा असर भारत में घुसपैठ और उग्रवाद के रूप में देखने को मिला है।
पाकिस्तान की वापसी और विदेशी शक्तियों का अखाड़ा
भारत के लिए सबसे बड़ी सामरिक चिंता बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच बढ़ते प्रगाढ़ संबंध हैं। 1971 के घावों को भुलाकर, या यूं कहें कि एक नए भारत-विरोधी एजेंडे के तहत, पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई ने ढाका में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। पिछले एक वर्ष में पाकिस्तानी सेना के उच्च अधिकारियों, जिनमें ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी के चेयरमैन और नौसेना प्रमुख शामिल हैं, उनका बांग्लादेश दौरा करना सामान्य कूटनीतिक शिष्टाचार नहीं है। यह एक रणनीतिक धुरी  का निर्माण है। अतीत में पाकिस्तान ने बांग्लादेश की भूमि का उपयोग भारत के पूर्वोत्तर उग्रवादियों को पनाह देने और आतंकी गतिविधियों को संचालित करने के लिए 'लॉन्चपैड' के रूप में किया था। अब आईएसआई की वापसी और ढाका में सीआईए, तुर्की के इंटेलिजेंस और चीनी एजेंसियों की बढ़ती गतिविधियों ने बांग्लादेश को एक अंतरराष्ट्रीय खुफिया अखाड़े में तब्दील कर दिया है। यह भारत को घेरने की एक बड़ी साजिश का हिस्सा प्रतीत होता है, जहां बांग्लादेश की जमीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ 'छद्म युद्ध' के लिए किया जा सकता है।
सिलीगुड़ी कॉरिडोर: भारत की 'चिकन नेक' पर संकट
इस भू-राजनीतिक अस्थिरता के केंद्र में भारत का सिलीगुड़ी कॉरिडोर है, जिसे सामरिक भाषा में 'चिकन नेक' कहा जाता है। यह संकरा गलियारा भारत की मुख्य भूमि को उसके पूर्वोत्तर राज्यों से जोड़ता है। हाल ही में मोहम्मद यूनुस द्वारा 'ग्रेटर बांग्लादेश' की अवधारणा को हवा देना और नक्शे में पूर्वोत्तर भारत के हिस्सों को बांग्लादेश के प्रभाव क्षेत्र में दिखाना, भारत की संप्रभुता पर सीधा प्रहार है। यह केवल एक नक्शा नहीं है, बल्कि यह उस महत्वाकांक्षा का प्रदर्शन है जो सिलीगुड़ी कॉरिडोर को काट कर भारत को उसके पूर्वोत्तर भाग से अलग करने का सपना देख रही है।
इस खतरे को भांपते हुए भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान अब रक्षात्मक मुद्रा से बाहर निकलकर आक्रामक तैयारी में जुट गया है। सिलीगुड़ी में पिछले कुछ दिनों से चल रही उच्च-स्तरीय बैठकें सामान्य नहीं हैं। इन बैठकों में सशस्त्र बलों के शीर्ष अधिकारी, मिलिट्री इंटेलिजेंस, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग और इंटेलिजेंस ब्यूरो  के अधिकारियों की मौजूदगी यह बताती है कि भारत किसी भी दुस्साहस का जवाब देने के लिए पूरी तरह तैयार है। सिलीगुड़ी और उसके आसपास के क्षेत्रों में राफेल, सुखोई-30 एमकेआई लड़ाकू विमानों, एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम और ब्रह्मोस मिसाइलों की तैनाती यह संदेश देती है कि भारत अब केवल कूटनीतिक विरोध दर्ज कराने तक सीमित नहीं रहेगा। ईस्टर्न कमांड के मुख्यालय सुकना में बढ़ी हुई हलचल और जनवरी तक चलने वाले निरंतर सैन्य अभ्यास इस बात का प्रमाण हैं कि भारत 'चिकन नेक' की सुरक्षा के लिए 'जीरो टॉलरेंस' की नीति अपना रहा है।
भारत का जवाबी दांव: 'टू-नेक' रणनीति 
यदि बांग्लादेश या वहां सक्रिय विदेशी शक्तियां भारत की 'चिकन नेक' (सिलीगुड़ी) को दबाने की कोशिश कर रही हैं, तो भारत ने भी जवाबी कार्रवाई के लिए बांग्लादेश की दो दुखती रगों—रंगपुर और चटगांव—को चिन्हित कर लिया है। इसे हम भारत की 'टू-नेक' रणनीति कह सकते हैं। भू-राजनीतिक विश्लेषकों और सुरक्षा एजेंसियों के आकलन के अनुसार, यदि सिलीगुड़ी कॉरिडोर पर दबाव बढ़ता है, तो भारत के पास चटगांव और रंगपुर डिवीजन में सक्रिय असंतोष का लाभ उठाने का रणनीतिक विकल्प मौजूद है।
चटगांव, जो ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से भारत के पूर्वोत्तर से गहरा जुड़ाव रखता है, वर्तमान में अपनी ही आंतरिक समस्याओं और स्वायत्तता की मांगों से जूझ रहा है। वहां के स्थानीय लोगों में ढाका के प्रशासन और चीनी प्रभाव के प्रति गहरा असंतोष है, विशेषकर बंदरगाह को लीज पर देने की खबरों को लेकर। भारत के लिए चटगांव एक रणनीतिक अवसर है। यदि चटगांव भारत के प्रभाव क्षेत्र में आता है या वहां भारत समर्थक माहौल बनता है, तो यह त्रिपुरा और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों के लिए समुद्र तक सीधी पहुंच प्रदान कर सकता है। इससे न केवल पूर्वोत्तर का 'लैंडलॉक्ड' होने का अभिशाप समाप्त होगा, बल्कि क्षेत्र की आर्थिक तस्वीर भी बदल जाएगी। त्रिपुरा मोथा जैसे संगठन पहले से ही चटगांव के साथ एकीकरण या गहरे संबंधों की वकालत करते रहे हैं।
इसी प्रकार, रंगपुर डिवीजन, जो भारत की सीमा से सटा हुआ है, सांस्कृतिक रूप से उत्तर बंगाल और असम के अधिक निकट है। भारत की रणनीति यह हो सकती है कि यदि ढाका सिलीगुड़ी पर बुरी नजर डालता है, तो भारत रंगपुर और चटगांव के रास्तों को अपने नियंत्रण या प्रभाव में लेकर बांग्लादेश को उसी की भाषा में जवाब दे। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा का यह बयान कि 'सिलीगुड़ी पर नजर मत डालो, वरना तुम्हारे दोनों गर्दन हम ले लेंगे,' महज एक राजनीतिक बयान नहीं है। यह भारत के बदलते सुरक्षा सिद्धांत का परिचायक है, जो अब सीमाओं के बदलने की संभावनाओं से इनकार नहीं करता। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का सिंध के संदर्भ में दिया गया बयान कि 'बॉर्डर कभी भी बदल जाया करते हैं,' पाकिस्तान के साथ-साथ बांग्लादेश के लिए भी एक स्पष्ट चेतावनी है।
सुरक्षा सर्वोपरि और कूटनीति का नया दौर
बांग्लादेश में फरवरी में होने वाले संभावित चुनावों तक स्थिति और अधिक अस्थिर होने की संभावना है। भारत के लिए अब 'पड़ोसी प्रथम' की नीति का अर्थ बदल गया है। अब यह नीति 'सुरक्षा प्रथम' में परिवर्तित हो चुकी है। जिस प्रकार बांग्लादेश की जमीन पर भारत विरोधी ताकतों का जमावड़ा हो रहा है और जिस तरह से वहां की अंतरिम सरकार भारत के रणनीतिक हितों को चुनौती दे रही है, उसे देखते हुए भारत ने अपनी तैयारियों को धार देना शुरू कर दिया है।
सिलीगुड़ी कॉरिडोर में सुरक्षा एजेंसियों का अभूतपूर्व समन्वय और सैन्य तैनाती यह स्पष्ट करती है कि भारत अब किसी भी 'सरप्राइज' के लिए तैयार नहीं रहना चाहता। लाल मुनीरहाट एयरबेस पर रडार की तैनाती हो या सीमा पार से घुसपैठ की कोशिशें, भारत हर गतिविधि पर पैनी नजर बनाए हुए है। एसआईआर जैसी प्रक्रियाओं के माध्यम से आंतरिक सुरक्षा को सुदृढ़ करना और सीमा पर बाड़बंदी को मजबूत करना इसी व्यापक रणनीति का हिस्सा है।
अंततः, भारत का दृष्टिकोण अब स्पष्ट है—यदि बांग्लादेश एक मित्र पड़ोसी की तरह रहता है, तो भारत सहयोग का हाथ बढ़ाएगा, लेकिन यदि वह भारत की अखंडता और सुरक्षा के लिए खतरा बनता है, तो भारत सिलीगुड़ी की रक्षा के लिए चटगांव और रंगपुर जैसे रणनीतिक विकल्पों का उपयोग करने से नहीं हिचकिचाएगा। यह दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन का एक नया अध्याय है, जहां भारत अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए अपनी सीमाओं से परे जाकर भी रणनीतिक गहराई बनाने के लिए तैयार है। यह नया भारत है, जो अपनी 'चिकन नेक' को दबाने वाले का हाथ मरोड़ने की क्षमता और इच्छाशक्ति दोनों रखता है।


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