भारत की AI क्रांति और अदृश्य आदिवासी

जलज वर्मा

 |  02 Sep 2025 |   7
Culttoday

जब भारत 21वीं सदी में एक वैश्विक तकनीकी महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा रखता है, जब उसके शहर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), सूचना प्रौद्योगिकी (IT) और फिनटेक के केंद्र के रूप में उभर रहे हैं, और जब मुंबई का दलाल स्ट्रीट देश की आर्थिक नब्ज तय करता है, तब एक मौलिक और असुविधाजनक सवाल उठता है: भारत की इस नई डिजिटल अर्थव्यवस्था में उसके मूल निवासी, आदिवासी, कहाँ खड़े हैं? यह कहानी एक गहरे विरोधाभास की है। एक ओर खरबों डॉलर के खनिज संसाधनों की भूमि पर बसा भारत का 8.6% आदिवासी समुदाय है, और दूसरी ओर एक ऐसी डिजिटल क्रांति है, जिसकी शब्दावली—निफ्टी, एल्गोरिदम, स्टार्टअप—उनके जीवन के यथार्थ से मीलों दूर है।
राजनीति, खेल और कला में अपनी पहचान बनाने के बावजूद, आदिवासी समुदाय भारत की आधुनिक आर्थिक मुख्यधारा, विशेषकर AI और IT जैसे ज्ञान-आधारित क्षेत्रों से लगभग पूरी तरह से अदृश्य है। यह केवल एक आर्थिक पिछड़ापन नहीं है, बल्कि एक संरचनात्मक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक खाई का परिणाम है, जो डिजिटल युग में और भी चौड़ी होती जा रही है। यह विश्लेषण उन जटिल कारणों की पड़ताल करता है कि क्यों भारत की AI क्रांति में आदिवासी समुदाय एक भागीदार के बजाय एक मूक दर्शक बना हुआ है, और यह जानने की कोशिश करता है कि क्या इस खाई को पाटना संभव है।
आर्थिक बहिष्कार की जड़ें: जल, जंगल, जमीन से लेकर डिजिटल डिवाइड तक
आदिवासी समुदाय का AI और IT से अलगाव कोई आकस्मिक घटना नहीं है, बल्कि यह सदियों पुराने संघर्षों और बहिष्करण का आधुनिक विस्तार है।
ऐतिहासिक संघर्ष का वर्तमान स्वरूप: 1855 के हूल विद्रोह से शुरू हुई 'जल, जंगल और जमीन' की लड़ाई आज भी आदिवासी जीवन का केंद्र है। उनका आर्थिक अस्तित्व आज भी खेती, वनोपज संग्रहण और दिहाड़ी मजदूरी जैसे असंगठित क्षेत्रों पर टिका है। जिस समुदाय ने दुनिया को लोहा गलाने की कला (असुर जनजाति) दी, वह आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। जब किसी समुदाय की ऊर्जा अपनी मूलभूत पहचान और संसाधनों को बचाने में लगी हो, तो उससे शेयर बाजार और कोडिंग की भाषा में निपुण होने की उम्मीद करना एक क्रूर विडंबना है। वे अभी तक पुरानी औद्योगिक अर्थव्यवस्था में ही पूरी तरह शामिल नहीं हो पाए हैं, ऐसे में ज्ञान-आधार-आधारित अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी एक दूर का सपना लगती है।
सांस्कृतिक और दार्शनिक भिन्नता: प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के अनुसार, बाजार की संरचना—जिसमें एक मालिक मुनाफा कमाता है और बाकी मजदूरी करते हैं—आदिवासी स्वभाव के विपरीत है। उनकी सामाजिक व्यवस्था सामुदायिकता, सहयोग और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व पर आधारित है, न कि व्यक्तिगत लालच और धन संचय पर। इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें आर्थिक तरक्की नहीं चाहिए, बल्कि यह कि आधुनिक पूंजीवाद का आक्रामक और व्यक्तिवादी मॉडल उनके जीवन दर्शन से मेल नहीं खाता। यही कारण है कि जोखिम और सट्टेबाजी पर आधारित शेयर बाजार जैसी अवधारणाएं उनके लिए न केवल अपरिचित हैं, बल्कि सांस्कृतिक रूप से विजातीय भी हैं।
डिजिटल डिवाइड: बहिष्कार का नया हथियार: भारत भले ही दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती डिजिटल अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो, लेकिन यह विकास असमान है। अधिकांश आदिवासी क्षेत्र आज भी विश्वसनीय इंटरनेट कनेक्टिविटी, डिजिटल उपकरणों और डिजिटल साक्षरता से वंचित हैं। जब ऑनलाइन शिक्षा, ई-कॉमर्स और डिजिटल वित्तीय सेवाएं ही पहुंच से बाहर हों, तो AI और मशीन लर्निंग जैसे उन्नत क्षेत्रों में कौशल विकास की कल्पना करना भी मुश्किल है। यह डिजिटल डिवाइड बहिष्कार का एक नया और शक्तिशाली रूप है, जो उन्हें आधुनिक अवसरों से और भी दूर धकेल रहा है।
नीतियों का मायाजाल: अच्छी मंशा, असफल परिणाम
ऐसा नहीं है कि सरकार ने इस समस्या को पूरी तरह से नजरअंदाज किया है। नेशनल शेड्यूल ट्राइब्स फाइनेंस एंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएसटीएपडीसी) जैसी संस्थाएं आदिवासी उद्यमियों को व्यवसाय और उच्च शिक्षा के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं। आंकड़ों के अनुसार, पिछले पांच वर्षों (2020-25) में 16,650 करोड़ रुपये का ऋण वितरित किया गया। लेकिन इन चमकदार आंकड़ों के पीछे एक निराशाजनक सच्चाई छिपी है।
असली लाभार्थी तक पहुंच का अभाव: बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के डॉ. आशीष कांत चौधरी बताते हैं कि यह फंड अक्सर उन बिचौलियों या गैर-सरकारी संगठनों के पास चला जाता है जो 'आदिवासियों के लिए' काम कर रहे हैं, न कि सीधे आदिवासियों तक। वे उदाहरण देते हैं कि कैसे बिचौलिए आदिवासियों से 100 रुपये किलो चिरौंजी खरीदकर बाजार में 1200 रुपये में बेचते हैं, जिससे असली मुनाफा उनकी जेब में जाता है।
सरकार की विरोधाभासी भूमिका: ट्राइबल चैंबर ऑफ कॉमर्स की डॉ. वासवी कीड़ो सरकार की भूमिका पर एक और गंभीर सवाल उठाती हैं। उनके अनुसार, सरकार सहकारी समितियों के माध्यम से आदिवासियों से वनोपज (जैसे चिरौंजी) 30 रुपये किलो खरीदती है और फिर बड़ी कंपनियों को नीलामी में ऊंचे दामों पर बेच देती है। इस प्रक्रिया में, जो सरकार उनकी रक्षक होनी चाहिए थी, वह स्वयं एक 'नई महाजन' की भूमिका निभाने लगती है, जो उनके संसाधनों का शोषण कर मुनाफा कमाती है।
•योजनाओं की जमीनी विफलता: योजनाओं के डिजाइन और उनकी पहुंच में भी भारी खामियां हैं। आंध्र प्रदेश का उदाहरण चौंकाने वाला है, जहाँ पिछले पाँच वर्षों में एक भी आदिवासी महिला ने एनएसटीएपडीसी की 2 लाख रुपये वाली महिला सशक्तीकरण योजना के लिए आवेदन नहीं किया। यह दिखाता है कि या तो योजनाओं की जानकारी उन तक नहीं पहुँच रही है, या प्रक्रिया इतनी जटिल है कि वे इसका लाभ नहीं उठा पा रही हैं, या फिर वे उस स्तर का जोखिम लेने में सक्षम ही नहीं हैं।
शिक्षा: समाधान या एक और बाधा?
शिक्षा को अक्सर इस खाई को पाटने के अंतिम समाधान के रूप में देखा जाता है। आदिवासी समुदाय में साक्षरता दर का कम होना निश्चित रूप से एक बड़ी बाधा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डॉ. राजकुमार सिंह गोंड बताते हैं कि जो आदिवासी शिक्षित होकर शहरों में आए हैं, उनकी प्राथमिकता भी एक सुरक्षित नौकरी पाना है, न कि शेयर बाजार जैसे जोखिम भरे क्षेत्रों में निवेश करना। उनकी पिछली पीढ़ियों ने बड़ी मुश्किल से स्थिरता हासिल की है, और वे उसे खोना नहीं चाहते।
एनएसटीएपडीसी उच्च शिक्षा के लिए ऋण प्रदान करती है, और पिछले पाँच वर्षों में लगभग 6 लाख छात्रों ने इसका लाभ उठाया है। यह एक सकारात्मक संकेत है। लेकिन केवल डिग्री हासिल करना पर्याप्त नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता, पाठ्यक्रम की प्रासंगिकता और डिजिटल कौशल का समावेश अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि शिक्षा उन्हें केवल पारंपरिक नौकरियों के लिए तैयार करती है, तो वे AI और IT की दौड़ में फिर से पीछे छूट जाएंगे।
आगे का रास्ता: एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता
आदिवासी समुदाय को भारत की AI और IT क्रांति में शामिल करने के लिए एक बहुआयामी और संवेदनशील दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो केवल वित्तीय सहायता से कहीं आगे हो।
डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण: पहला कदम आदिवासी बहुल क्षेत्रों में विश्वसनीय और सस्ती इंटरनेट कनेक्टिविटी सुनिश्चित करना है। पीएम-जनमन और अन्य योजनाओं के तहत बुनियादी ढांचे के विकास में डिजिटल कनेक्टिविटी को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
सांस्कृतिक रूप से प्रासंगिक शिक्षा: शिक्षा प्रणाली में AI, कोडिंग और डिजिटल वित्त जैसे विषयों को शामिल करना होगा, लेकिन इसे उनकी अपनी भाषा और सांस्कृतिक संदर्भ में पढ़ाया जाना चाहिए ताकि वे इसे आसानी से अपना सकें।
समुदाय-आधारित मॉडल को बढ़ावा: ज्यां द्रेज के सुझाव के अनुसार, व्यक्तिगत उद्यमिता के बजाय सहकारी  मॉडल को बढ़ावा देना अधिक प्रभावी हो सकता है। पशुपालन, जड़ी-बूटी प्रसंस्करण, और इको-टूरिज्म जैसे क्षेत्रों में AI और IT का उपयोग कर स्थानीय संसाधनों का मूल्यवर्धन किया जा सकता है। इससे समुदाय का सशक्तिकरण होगा और मुनाफा भी समुदाय के भीतर रहेगा।
बिचौलियों का उन्मूलन और सीधा बाजार लिंक: सरकार को ऐसी तकनीक-आधारित प्रणालियाँ बनानी चाहिए जो आदिवासी उत्पादकों को सीधे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों से जोड़ें, ताकि बिचौलिए उनके मुनाफे का शोषण न कर सकें।
जमशेदपुर के सफल आदिवासी उद्यमी रौशन हेम्ब्रम की बात महत्वपूर्ण है कि समुदाय को अपनी ऊर्जा शिक्षा और आर्थिक विकास पर केंद्रित करनी होगी। लेकिन यह जिम्मेदारी केवल समुदाय की नहीं है। यह सरकार, उद्योग और नागरिक समाज की भी जिम्मेदारी है कि वे एक ऐसा समावेशी पारिस्थितिकी तंत्र बनाएं जहाँ भारत की AI क्रांति का लाभ देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो हम एक ऐसी डिजिटल दुनिया का निर्माण करेंगे जो तकनीकी रूप से उन्नत तो होगी, लेकिन सामाजिक रूप से उतनी ही विभाजित और अन्यायपूर्ण होगी जितनी पुरानी दुनिया थी।


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