2025 के मानसून सत्र की शुरुआत के साथ, संसद अब केवल एक विधायी मंच नहीं रह गई है—it अब एक ऐसे राष्ट्र का दर्पण है जो भीतर से उलझा हुआ है। बाहर दिल्ली की बारिश बिना रोक-टोक बरस रही है, लेकिन संसद भवन के भीतर जवाबों पर चुप्पी की चादर तनी हुई है। सरकार ने भले ही बहस के लिए 17 विधेयकों की सूची तैयार की हो, पर असल बेचैनी उन सवालों को लेकर है जो या तो पूछे नहीं जा रहे या फिर पूछे जाने के बाद भी टाल दिए गए हैं।
तीन महीने हो चुके हैं जब पहलगाम हमले के जवाब में ऑपरेशन ‘सिंदूर’ शुरू किया गया था। 26 निर्दोष लोगों की मौत पर देश ने शोक जताया, लेकिन उसके बाद से सरकार की चुप्पी लगातार खल रही है। सरकारी बयान इसे "रणनीतिक और त्वरित" कार्रवाई बताते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री ने अब तक संसद में एक शब्द भी नहीं कहा। इस बीच, विदेशी ड्रोन, जवाबी हवाई हमलों और अचानक हुए संघर्षविराम की खबरें सामने आ चुकी हैं। सवाल उठता है—क्या यह वाकई भारत की अपनी इच्छाशक्ति से किया गया ऑपरेशन था, या फिर यह किसी अंतरराष्ट्रीय दवाब का नतीजा था?
यह सवाल तब और गंभीर हो उठता है जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बयानबाज़ी को देखा जाए। ट्रंप दावा कर चुके हैं कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच “व्यापारिक दबाव” डालकर 48 घंटे में शांति स्थापित करवाई। चाहे उनके दावे अतिशयोक्तिपूर्ण लगें, लेकिन भारत सरकार की ओर से इस पर अब तक कोई स्पष्ट खंडन नहीं आया है। यदि उनके दावों में थोड़ी भी सच्चाई है, तो फिर भारत की लंबे समय से चली आ रही ‘शिमला समझौते’ की द्विपक्षीय नीति का क्या होगा? क्या अब कूटनीति केवल व्यापारिक सौदेबाज़ी बनकर रह गई है? या फिर इससे भी चिंताजनक बात यह है कि हमारी सैन्य रणनीति संसद से परे, विदेशों में तय हो रही है?
INDIA गठबंधन, जो अब भी गठबंधन से ज़्यादा जुगाड़ जैसा दिखता है, इन सवालों को लेकर संसद में ज़ोर पकड़ रहा है। कांग्रेस सांसदों ने नियम 267 के तहत ऑपरेशन सिंदूर और उससे जुड़े अंतरराष्ट्रीय संदर्भों पर संपूर्ण बहस की मांग की है। लेकिन इसी सत्र के बीच प्रधानमंत्री मोदी के ब्रिटेन और मालदीव दौरे पर निकलने की योजना है—ऐसे में क्या ये बहस एक और बहाना बनकर रह जाएगी? क्या लोकतंत्र में संसद की चुप्पी मतदाता के जानने के अधिकार का अपमान नहीं है?
बाहरी हस्तक्षेप की आशंका जितनी गंभीर है, भीतर से लोकतांत्रिक ढांचे की क्षति उतनी ही भयावह। बिहार में मतदाता सूची की ‘विशेष पुनरीक्षण प्रक्रिया’ ने देशभर में हलचल मचा दी है। 41 लाख मतदाता ‘संदिग्ध’ घोषित किए गए हैं, और 11,000 से ज़्यादा को ‘गायब’ दिखाया गया है। पूरे ज़िलों से रिपोर्ट आ रही हैं कि दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों के नाम एकतरफा तरीके से हटाए गए हैं। एक प्रशासनिक प्रक्रिया अब एक गुप्त निष्कासन योजना जैसी लग रही है—क्या यह चुनाव से पहले ‘असुविधाजनक मतदाताओं’ को चुपचाप हटाने की कोशिश है? विपक्ष इसे ‘बैकडोर NRC’ कह रहा है—क्या यह भारत के मताधिकार पर एक सांकेतिक हमला है?
इस बीच INDIA गठबंधन खुद अपने अंतर्विरोधों से जूझ रहा है। आम आदमी पार्टी बाहर है, ममता बनर्जी ने बैठक में हिस्सा नहीं लिया, और CPI राहुल गांधी की हालिया टिप्पणी से खुद को अलग कर चुकी है। क्या ऐसा गठबंधन, जिसमें दरारें इतनी साफ़ दिख रही हों, सरकार से ईमानदारी से जवाबदेही की मांग कर सकता है? या फिर यह सत्र भी शोर, बहिर्गमन और खोए हुए अवसरों की सूची में जुड़ जाएगा?
आखिर में सवाल सिर्फ एक ऑपरेशन की सच्चाई या किसी पूर्व राष्ट्रपति के दावे की प्रमाणिकता का नहीं है। असली सवाल यह है—क्या संसद अब भी इस गणराज्य की आत्मा की रखवाली करने में सक्षम है? क्या वह सरकार को जवाबदेह ठहरा सकती है, जब मुद्दा राष्ट्रीय सुरक्षा या चुनावी पवित्रता का हो? या फिर सत्ता का संतुलन अब इतना बिगड़ चुका है कि संसद के भीतर सच बोलने से पहले भी अनुमति लेनी पड़े?
रिया गोयल कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।