द्वी-राष्ट्र समाधानः‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ का क्षण
संतु दास
| 30 Sep 2025 |
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मध्य-पूर्व का इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष केवल एक क्षेत्रीय विवाद नहीं, बल्कि दशकों से अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति, मानवाधिकार और वैश्विक भू-राजनीति की एक जटिल पहेली बना हुआ है। 1967 के अरब-इज़रायली युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा प्रस्ताव 242 पारित किया गया, जिसने 'भूमि के बदले शांति और सुरक्षा' के सिद्धांत की नींव रखी। इस सिद्धांत के अनुसार, इज़रायल को युद्ध में जीते गए क्षेत्रों को स्थायी शांति और अपनी सुरक्षा की गारंटी के बदले में वापस करना था। आधी सदी से अधिक समय बीत जाने के बावजूद, यह सिद्धांत कागजों तक ही सीमित रहा है और दोनों पक्ष किसी सार्थक समाधान पर पहुंचने में विफल रहे हैं। आज यह संघर्ष एक ऐसे निर्णायक मोड़ पर खड़ा है, जहाँ एक टिकाऊ समझौते की दिशा में प्रगति का जो छोटा सा अवसर बचा है, वह भी तेज़ी से समाप्त हो रहा है। समाधान के मार्ग में खड़ी राजनीतिक और भौतिक बाधाएँ जल्द ही उस बिंदु को पार कर सकती हैं, जहाँ से वापसी असंभव हो जाएगी।
इस वैश्विक द्वंद्व के भारतीय परिप्रेक्ष्य में, यह संघर्ष न केवल मध्य-पूर्व की स्थिरता, बल्कि व्यापक वैश्विक शांति के लिए भी गहरा महत्व रखता है। भारत ने ऐतिहासिक रूप से फिलिस्तीनी लोगों के आत्मनिर्णय और एक स्वतंत्र राज्य के अधिकार का पुरजोर समर्थन किया है, जबकि पिछले कुछ दशकों में इज़रायल के साथ अपने रणनीतिक, आर्थिक और रक्षा संबंधों को भी अभूतपूर्व रूप से मजबूत किया है। इस जटिल संतुलन में, एक गहन विश्लेषण की आवश्यकता है जो शांतिपूर्ण समाधान की संभावनाओं को उजागर करे। यह आलेख इस केंद्रीय तर्क पर आधारित है कि एक स्वतंत्र और संप्रभु फिलिस्तीनी राज्य का निर्माण केवल फिलिस्तीनियों की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ही नहीं, बल्कि स्वयं इज़रायल की दीर्घकालिक सुरक्षा, वैश्विक सम्मान, आर्थिक समृद्धि और उसके लोकतांत्रिक एवं यहूदी चरित्र को बनाए रखने के लिए भी अनिवार्य है। यह एक 'अभी नहीं तो कभी नहीं' वाला क्षण है, जहाँ इज़रायल को एक साहसी और दूरदर्शी विकल्प चुनना होगा। इस संदर्भ में, भारत की विदेश नीति, जो फिलिस्तीनी राष्ट्र के लिए अपने ऐतिहासिक समर्थन और इज़रायल के साथ बढ़ती रणनीतिक साझेदारी को सफलतापूर्वक संतुलित करती है, इस जटिल वैश्विक समीकरण को समझने और सुलझाने के लिए एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक पाठ प्रस्तुत करती है।
इज़रायल की सुरक्षा का भ्रम और बदलती वैश्विक वास्तविकता
पहली नज़र में, इज़रायल आज अपनी सुरक्षा की दृष्टि से एक मजबूत स्थिति में प्रतीत होता है। अपनी उन्नत सैन्य क्षमताओं, अत्याधुनिक खुफिया तंत्र और प्रभावी सीमा सुरक्षा के बल पर उसने अपनी सीमाओं पर और पूरे क्षेत्र में कई पारंपरिक खतरों को काफी हद तक नियंत्रित कर लिया है। आतंकवादी समूहों और शत्रुतापूर्ण पड़ोसी राज्यों से उत्पन्न होने वाली चुनौतियाँ, यद्यपि समाप्त नहीं हुई हैं, फिर भी प्रबंधनीय लगती हैं। व्हाइट हाउस में एक दृढ़ सहयोगी की उपस्थिति इस सुरक्षा की भावना को और बल देती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि इज़रायल ने फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद की राजनीतिक चुनौती का सामना करने के लिए एक अभेद्य सैन्य दीवार खड़ी कर दी है।
परन्तु, क्या यह सुरक्षा स्थायी है? इतिहास इस बात का गवाह है कि केवल सैन्य शक्ति किसी गहरी राजनीतिक समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकती। विशेषज्ञों का मानना है कि यह 'शांति' एक अस्थायी भ्रम मात्र है और यह अनुकूल सुरक्षा वातावरण हमेशा के लिए नहीं बना रह सकता। भले ही वर्तमान में अमेरिकी समर्थन अटूट प्रतीत होता हो, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। यदि इज़रायल को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में देखा जाने लगा जो अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना करता है और दूसरे लोगों के अधिकारों का दमन करता है, तो दीर्घकालिक अमेरिकी और यूरोपीय समर्थन की गारंटी नहीं दी जा सकती। दुनिया भर में, विशेषकर युवा पीढ़ी के बीच, इज़रायल की नीतियों के प्रति बढ़ती आलोचना इस बदलते वैश्विक दृष्टिकोण का स्पष्ट प्रमाण है। इज़रायल आज एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ उसे फिलिस्तीनियों के साथ एक न्यायसंगत समझौते और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की दिशा में आगे बढ़ना होगा, या फिर उस अंतर्राष्ट्रीय समर्थन को खोने का जोखिम उठाना होगा जो उसके अस्तित्व और कल्याण के लिए अनिवार्य है। एक स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य का विचार कई इज़रायलियों के लिए असहज हो सकता है, लेकिन यही उनकी सुरक्षा और समृद्धि के लिए सबसे ठोस उम्मीद भी है।
अतीत की असफलताएँ और वर्तमान की गहरी होती बाधाएँ
इज़रायल और फिलिस्तीनी नेतृत्व कई मौकों पर 'भूमि के बदले शांति' के सिद्धांत पर आधारित समझौते के बहुत करीब आए। ओस्लो समझौते से लेकर कैंप डेविड शिखर वार्ता तक, आशा की किरणें कई बार जगीं, लेकिन हर बार वे निराशा के अंधकार में विलीन हो गईं। इस दशकों लंबी कूटनीतिक विफलता के पीछे कई जटिल कारण हैं। फिलिस्तीनी नेताओं, जिनमें यासिर अराफात और उनके उत्तराधिकारी शामिल हैं, को यरूशलेम की स्थिति, फिलिस्तीनी शरणार्थियों की वापसी के अधिकार और क्षेत्रीय रियायतों जैसे संवेदनशील मुद्दों पर समझौता करने में भारी राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ा। उनकी आंतरिक राजनीतिक कमजोरियों और हमास जैसे कट्टरपंथी समूहों के उदय ने उन्हें साहसिक निर्णय लेने से रोका, जो एक यहूदी राज्य के अस्तित्व को ही अस्वीकार करते हैं।
इस गतिरोध की मानवीय कीमत भयावह रही है। आज वेस्ट बैंक और गाजा में पांच मिलियन से अधिक फिलिस्तीनी इज़रायली नियंत्रण में रहने को मजबूर हैं, जो उनके आत्मनिर्णय के अधिकार का हनन है। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि ज़मीनी हकीकत इतनी बदल चुकी है कि आज एक राजनयिक समाधान तक पहुँचना अतीत की तुलना में कहीं अधिक कठिन हो गया है। इसमें सबसे बड़ी बाधा वेस्ट बैंक में इज़रायली बस्तियों का अनियंत्रित विस्तार है। लगभग 140 सरकार द्वारा अधिकृत बस्तियाँ और 200 से अधिक अनधिकृत चौकियाँ, जिनमें 500,000 से अधिक इज़रायली बस चुके हैं, एक व्यवहार्य और सन्निहित फिलिस्तीनी राज्य के निर्माण के मार्ग में विशाल भौतिक और राजनीतिक अवरोधक बन गई हैं। हर नई बस्ती के निर्माण के साथ इस समाधान के प्रति राजनीतिक प्रतिरोध बढ़ता है और भविष्य में किसी भी समझौते की लागत भी बढ़ जाती है।
इसके साथ ही, इज़रायली राजनीति में भी एक गहरा संरचनात्मक बदलाव आया है। राजनीतिक वामपंथी दल, जो कभी शांति प्रक्रिया के ध्वजवाहक थे, कमजोर पड़ गए हैं, जबकि दक्षिणपंथी और अति-दक्षिणपंथी शक्तियों का प्रभुत्व बढ़ा है। 7 अक्टूबर, 2023 को हमास द्वारा किए गए क्रूर हमले ने इस प्रवृत्ति को और तेज कर दिया है। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की वर्तमान गठबंधन सरकार, जो अति-दक्षिणपंथी धार्मिक राष्ट्रवादियों के समर्थन पर टिकी है, इस बदलाव का प्रतीक है। आज, कई इज़रायली, जिनमें नेतन्याहू के युद्ध संचालन के आलोचक भी शामिल हैं, एक फिलिस्तीनी राज्य का दृढ़ता से विरोध करते हैं। उन्हें डर है कि यह आतंकवादियों के लिए एक नया अड्डा बन जाएगा। इन सब के परिणामस्वरूप, दो-राज्य समाधान की मृत्यु की घोषणा एक आम बात हो गई है, और यह कहना गलत नहीं होगा कि यह समाधान फिलहाल जीवन-रक्षक प्रणाली पर है।
इज़रायल के अपने हित में क्यों है एक स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य?
इन निराशाजनक परिस्थितियों के बावजूद, दो-राज्य समाधान अभी भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। एक व्यवहार्य, स्वतंत्र, संप्रभु और असैन्यीकृत फिलिस्तीनी राज्य, जो इज़रायल के लिए सुरक्षा खतरा पैदा न करे, दोनों पक्षों के लिए सबसे बेहतर विकल्प बना हुआ है। इसके कई रणनीतिक लाभ स्वयं इज़रायल के लिए हैं:
सुरक्षा और जवाबदेही: आज हमास जैसे आतंकवादी समूह बिना किसी जवाबदेही के काम करते हैं, क्योंकि वे किसी क्षेत्र या अर्थव्यवस्था के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। इसके विपरीत, एक संप्रभु फिलिस्तीनी सरकार को इज़रायल पर होने वाले किसी भी हमले के सैन्य और आर्थिक परिणामों का सामना करना होगा। ऐसे हमले आतंकवादी कार्य नहीं, बल्कि युद्ध के कार्य माने जाएंगे, जिससे एक जिम्मेदार सरकार को ऐसे कृत्यों से बचने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।
अंतर्राष्ट्रीय अलगाव से बचाव: 7 अक्टूबर के हमले के बाद मिली शुरुआती अंतर्राष्ट्रीय सहानुभूति, गाजा में हजारों फिलिस्तीनी नागरिकों की मौत और मानवीय संकट के कारण लगभग समाप्त हो गई है। एक फिलिस्तीनी राज्य के निर्माण की दिशा में कदम उठाने से इज़रायल इस वैश्विक अलगाव से बच सकता है और अपनी अंतरराष्ट्रीय वैधता को पुनः स्थापित कर सकता है।
क्षेत्रीय एकीकरण और अब्राहम समझौते: फिलिस्तीनी मुद्दे का समाधान अरब देशों, विशेष रूप से सऊदी अरब के साथ इज़रायल के संबंधों को सामान्य बनाने की कुंजी है। सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने स्पष्ट किया है कि इज़रायल के साथ पूर्ण संबंध तभी संभव हैं जब फिलिस्तीनी राज्य की दिशा में ठोस प्रगति हो।
लोकतांत्रिक और यहूदी पहचान का संरक्षण: एक स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य इज़रायल को उस दुविधा से मुक्त करेगा कि वह एक लोकतंत्र और एक यहूदी राज्य दोनों एक साथ कैसे बना रह सकता है। लाखों फिलिस्तीनियों पर अनिश्चित काल तक शासन करना इज़रायल के लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करता है, जबकि उन्हें समान अधिकार देना उसके यहूदी चरित्र को खतरे में डाल सकता है।
गाजा से बाहर निकलने की रणनीति: दो-राज्य समाधान की दिशा में एक स्पष्ट राजनीतिक मार्ग प्रस्तुत करना ही गाजा में इज़रायली कब्जे को समाप्त करने, एक अरब स्थिरीकरण बल को तैनात करने और हमास के राजनीतिक एकाधिकार को तोड़ने का एकमात्र व्यावहारिक तरीका है। यह शेष बंधकों की वापसी का मार्ग भी प्रशस्त करेगा।
समाधान की दिशा में एक व्यावहारिक दृष्टिकोण: 'कम ही अधिक है'
वर्तमान राजनीतिक वास्तविकताओं को देखते हुए, तत्काल एक अंतिम समझौते पर पहुँचना असंभव लगता है। इसलिए, निकट भविष्य का उद्देश्य अधिक महत्वाकांक्षी कूटनीति की संभावना को जीवित रखना और ऐसी परिस्थितियाँ बनाना होना चाहिए जो भविष्य में इसे सफल होने का अवसर दें। इस नीति के दो आयाम होने चाहिए: परिहार और सृजन।
पहला, बाहरी शक्तियों को फिलिस्तीनी राज्य को एकतरफा मान्यता देने से बचना चाहिए। ऐसा करना हमास जैसे कट्टरपंथी समूहों को पुरस्कृत करने जैसा होगा और यह इस विचार को कमजोर करेगा कि राज्य का दर्जा बातचीत और आपसी समझौते के माध्यम से ही हासिल किया जा सकता है।
दूसरा, इज़रायली एकतरफावाद का भी कड़ाई से विरोध किया जाना चाहिए। यहाँ संयुक्त राज्य अमेरिका की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। अमेरिका को नई बस्तियों, चौकियों के निर्माण और फिलिस्तीनी क्षेत्र के किसी भी विलय के प्रति अपने विरोध को स्पष्ट करना चाहिए। वाशिंगटन को यह संदेश देना होगा कि यदि इज़रायल अमेरिकी प्राथमिकताओं की अनदेखी करता है, तो वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने वीटो का उपयोग करके उसे हमेशा नहीं बचा पाएगा।
इसके साथ ही, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय और अरब देशों को मिलकर एक बड़ी राजनयिक प्रक्रिया की सार्वजनिक दृष्टि प्रस्तुत करनी चाहिए। उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि वे दोनों पक्षों से क्या उम्मीद करते हैं और बदले में उन्हें क्या मिलेगा। इसमें इज़रायल को सुरक्षा आश्वासन और एक नए फिलिस्तीनी राज्य को राष्ट्र-निर्माण के लिए आर्थिक और तकनीकी सहायता प्रदान करना शामिल होगा।
भारत की 'संतुलन साधती' विदेश नीति: एक अनुकरणीय मॉडल
इस जटिल भू-राजनीतिक परिदृश्य में भारत की विदेश नीति एक अद्वितीय और अनुकरणीय मॉडल प्रस्तुत करती है। दशकों तक, भारत ने अपने उपनिवेशवाद-विरोधी इतिहास और गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में फिलिस्तीनी राष्ट्र के आत्मनिर्णय के अधिकार का दृढ़ता से समर्थन किया। जवाहरलाल नेहरू के समय से ही यह भारत की नैतिक और ऐतिहासिक प्रतिबद्धता का हिस्सा रहा है।
हालांकि, शीत युद्ध की समाप्ति और 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत की विदेश नीति में एक व्यावहारिक मोड़ आया। 1992 में इज़रायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंधों की स्थापना इस बदलाव का एक महत्वपूर्ण प्रतीक थी। शुरुआत में, ये संबंध कृषि, जल प्रबंधन और प्रौद्योगिकी पर केंद्रित थे, लेकिन जल्द ही इनका विस्तार रक्षा और रणनीतिक सहयोग तक हो गया। आज भारत इज़रायल के सबसे बड़े रक्षा ग्राहकों में से एक है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इज़रायल के साथ अपने संबंधों को गहरा करते हुए भी, भारत ने फिलिस्तीनी मुद्दे पर अपनी मूल स्थिति को नहीं छोड़ा है।