15 जुलाई 2025 को, नाटो के महासचिव मार्क रुटे वाशिंगटन में एक चेतावनी के साथ खड़े थे—यह चेतावनी किसी सैन्य अभियान की नहीं, बल्कि आर्थिक दबाव की थी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अगर भारत, चीन और ब्राज़ील रूस से तेल और गैस खरीदना जारी रखते हैं, तो उन्हें “100% सेकेंडरी सैंक्शंस” (द्वितीयक प्रतिबंधों) का सामना करना पड़ सकता है। यह बयान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हालिया टैरिफ धमकियों के साथ मिलकर उस कूटनीतिक मोड़ को दर्शाता है जहां अब युद्ध टैंकों से नहीं, व्यापारिक तालिकाओं पर लड़ा जा रहा है।
भारत इस वैश्विक खिंचाव के केंद्र में आ खड़ा हुआ है। देश अपनी ज़रूरत का 80% से अधिक कच्चा तेल आयात करता है, और 2022 के बाद से रूस से मिलने वाले रियायती तेल ने भारत की ऊर्जा ज़रूरतों को राहत दी है। अकेले 2022–23 में भारत ने रूस से करीब $46 अरब डॉलर का ईंधन आयात किया, जिससे घरेलू पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें काबू में रहीं और आर्थिक स्थिरता बनी रही। लेकिन क्या यह फायदेमंद सौदा अब भारत के लिए कूटनीतिक बोझ बनता जा रहा है?
भारत की विदेश नीति हमेशा रणनीतिक स्वायत्तता पर आधारित रही है। उसने रूस की आलोचना करने वाले संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों से परहेज़ करते हुए अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड के ज़रिए गहरे संबंध भी बनाए रखे। अब ट्रंप ने जब युद्ध को 50 दिनों में ख़त्म करने की डेडलाइन दी है, और नाटो भी इसी सख्ती के साथ बोल रहा है, तो भारत के सामने सवाल खड़ा है: क्या अब समय आ गया है कि उसे एक पक्ष चुनना पड़े?
रुटे की चेतावनी राजनीतिक थी, कानूनी नहीं। नाटो कोई आर्थिक प्रतिबंध लगाने वाला निकाय नहीं है, और भारत के कूटनीतिज्ञों ने इस बात को साफ़ किया। पूर्व राजदूत के.बी. फेबियन ने रुटे की टिप्पणी को “गंभीर अज्ञानता” बताया। वहीं सोशल मीडिया पर आम भारतीयों ने इसे “औपनिवेशिक मानसिकता” की संज्ञा दी। क्या नाटो जैसे संगठन किसी संप्रभु देश को व्यापार के लिए निर्देश दे सकते हैं—जबकि खुद उसके सदस्य जैसे हंगरी और तुर्की रूस से ऊर्जा खरीदते रहे हैं? इसमें विडंबना भी है। एक ताज़ा यूरोपीय संघ रिपोर्ट के मुताबिक, जून 2025 में यूरोपीय देशों ने रूस को अब भी €1.2 अरब यूरो की ऊर्जा राशि चुकाई। तो फिर यह प्रतिबंध नैतिक हैं या केवल राजनीतिक हथियार?
भारत की प्रतिक्रिया संतुलित रही है—न तो ज़्यादा आक्रामक और न ही नरम। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अमेरिकी सीनेटर लिंडसे ग्राहम से इस मुद्दे पर बात की, जबकि पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने भरोसा जताया कि भारत ब्राज़ील, कनाडा और गुयाना जैसे देशों से तेल का आयात बढ़ा सकता है। भारत पहले से ही 2022 में वैकल्पिक स्रोतों की योजना पर काम शुरू कर चुका था। हालांकि, चुनौतियाँ बनी हुई हैं। यदि अमेरिका ने सेकेंडरी सैंक्शंस लागू किए, तो भारत की दवा, आईटी और वस्त्र क्षेत्रों की अमेरिकी बाज़ार तक पहुंच पर असर पड़ सकता है। ट्रंप के समर्थक कुछ सीनेटरों ने तो रूस से व्यापार करने वाले देशों पर 500% आयात शुल्क लगाने का सुझाव दिया है। फिर भी भारत का हाथ कमज़ोर नहीं है। ब्रिक्स और ग्लोबल साउथ में भारत की सक्रियता उसे कूटनीतिक ताकत देती है। यदि दबाव बढ़ा, तो भारत डॉलर्स से परे व्यापार, वैकल्पिक ऊर्जा गठबंधन और दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा दे सकता है। लेकिन क्या यह सब आर्थिक नुकसान के बिना संभव है?
एक और रास्ता है—कूटनीति का। भारत ने हमेशा रूस-यूक्रेन संघर्ष के समाधान के लिए संवाद की वकालत की है। प्रधानमंत्री मोदी की संतुलित पहल, चाहे वह ज़ेलेंस्की से बातचीत हो या पुतिन से संपर्क, भारत को एक संभावित मध्यस्थ की भूमिका में रखती है। लेकिन क्या पश्चिम भारत की तटस्थता को स्वीकार करेगा? यह सिर्फ व्यापार का मामला नहीं है—यह भारत की संप्रभुता की परीक्षा है। क्या भारत बहुध्रुवीय दुनिया में अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को बनाए रख सकता है? या उसे अमेरिकी दबाव के सामने झुकना पड़ेगा? इन सवालों के जवाब आने वाले दिनों में तय होंगे। लेकिन आज, भारत के पास अवसर भी है और विकल्प भी—शर्त बस इतनी है कि वह अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट और आत्मविश्वास से सामने रखे।
रिया गोयल कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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