ब्रह्मोस युग: भारत की रणनीतिक छलांग

संदीप कुमार

 |  15 Jul 2025 |   40
Culttoday

जब भारतीय सेना ने हाल ही में पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत बेहद सटीक और सीमित हमले किए, तो सबकी नज़रें एक ही हथियार पर टिक गईं। भारत-रूस की संयुक्त ताक़त, ब्रहमोस सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल पर। इस मिशन ने दुनिया को दिखा दिया कि भारत अब केवल हथियार ख़रीदने वाला देश नहीं, बल्कि भविष्य में एक बड़ा रक्षा निर्यातक बनने की काबिलियत रखता है। ऑपरेशन सिंदूर में ब्रहमोस का ताबड़तोड़ इस्तेमाल एक रणनीतिक संदेश भी था कि भारत अब सिर्फ़ कागज़ी चेतावनी नहीं, बल्कि टेक्नोलॉजी के दम पर जवाब देने को तैयार है।

ब्रहमोस मिसाइल कोई साधारण हथियार नहीं। 1998 में भारत और रूस की साझेदारी से जन्मा यह सिस्टम दुनिया के सबसे तेज़ सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइलों में गिना जाता है। 2001 में पहली टेस्टिंग के बाद से ही इसकी रफ़्तार (मच 2.8–3) और सटीकता ने भारतीय सेना, नौसेना और वायुसेना को नई धार दी। जब ऑपरेशन सिंदूर में इसे पाकिस्तान के सीमावर्ती एयरबेस और आतंकी लॉन्चपैड्स पर इस्तेमाल किया गया तो इसकी स्ट्राइक एक्यूरेसी 1 मीटर से भी कम की बताई गई। यह अपने आप में काबिल-ए-गौर है। इस कार्रवाई के बाद भारत के रक्षा निर्यात की संभावनाएँ भी नई ऊँचाई पर पहुँची हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने साफ कहा है कि ऑपरेशन सिंदूर के बाद ब्रहमोस को खरीदने में अचानक कई देशों की रुचि तेज़ी से बढ़ी है। पहले ही फिलीपींस के साथ करीब 375 मिलियन डॉलर का सौदा हो चुका है—  जिसने अप्रैल 2024 में पहली खेप हासिल भी कर ली। अब वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, यूएई, सऊदी अरब और ब्राज़ील जैसे देश भी चर्चा में हैं। वियतनाम के साथ तो 700 मिलियन डॉलर से ऊपर के संभावित सौदे की बात चल रही है।

ब्रहमोस की ताक़त सिर्फ़ मिसाइल टेक्नोलॉजी में नहीं, बल्कि इसके पीछे की Indo-Russian स्ट्रेटेजिक केमिस्ट्री में भी छुपी है। यह मिसाइल भारत-रूस रक्षा सहयोग का सबसे चमकदार उदाहरण बन चुकी है। लेकिन यही बात कुछ पश्चिमी देशों के लिए चिंता का सबब भी है, ख़ासकर अमेरिका और चीन के लिए। चीन इस साझेदारी को अपने ‘CPEC’ और सीमा सुरक्षा के लिए चुनौती मानता है, जबकि अमेरिका रूस से जुड़ी टेक्नोलॉजी पर पाबंदियों का हवाला देता रहता है। फिर भी, भारत ने साफ कर दिया है कि ब्रहमोस पूरी तरह से वैश्विक नियमों के तहत एक्सपोर्ट किया जाएगा और किसी भी अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं होगा।

इस बीच, ब्रहमोस भारत के ‘मेक-इन-इंडिया’ रक्षा सेक्टर का फेस बन रहा है। हाल के आँकड़ों के मुताबिक़, 2023–24 में भारत का रक्षा निर्यात 15,000 करोड़ से बढ़कर 21,000 करोड़ रुपये के पार पहुँच गया है — जिसमें ब्रहमोस का बड़ा हिस्सा है। यह पहली बार है कि भारत साउथ ईस्ट एशिया और अरब देशों को एडवांस्ड मिसाइल सिस्टम बेचने की लाइन में खड़ा है।

लेकिन तस्वीर में चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद रूस से कुछ अहम पुर्जों की सप्लाई चेन पर सवाल खड़े हुए हैं। चीन-पाकिस्तान लॉबी इस मिसाइल को भारत की ‘आक्रामक नीति’ बताकर इंटरनेशनल मंचों पर विरोध कर सकती है। फिर भी, फिलहाल तो दुनिया के कई देश ब्रहमोस को अपने कोस्टल डिफेंस और नेवल सिक्योरिटी के लिए बेहद भरोसेमंद विकल्प मान रहे हैं — क्योंकि यह तेज़, सटीक और दुश्मन की रडार पकड़ से भी तेज़ भाग निकलने में माहिर है।

नतीजतन, ऑपरेशन सिंदूर ने ब्रहमोस को सिर्फ़ एक टैक्टिकल हथियार से उठाकर एक कूटनीतिक कार्ड बना दिया है। अब भारत के सामने मौका है कि वह इस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल सिर्फ़ स्ट्राइक के लिए नहीं, बल्कि अपनी रक्षा निर्यात नीति को मज़बूत करने और Indo-Pacific में रणनीतिक संतुलन बनाने के लिए करे।

आख़िर में सवाल वहीक्या ब्रहमोस भारत कोडिफेंस सुपरमार्केटबना पाएगा या geopolitics के मोर्चे पर नई चुनौतियाँ भी साथ लाएगा? वक्त इसका जवाब देगा, पर ऑपरेशन सिंदूर ने दिखा दिया है कि अब भारत चुप रहने वाला नहीं।

श्रेया गुप्ता कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।


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