मिज़ोरम में एक ऐसा संकट गहराता जा रहा है जिसे भारत का बाकी हिस्सा अब भी नाम देने से हिचक रहा है। इस छोटे-से उत्तर-पूर्वी राज्य में म्यांमार और बांग्लादेश से आए लगभग 40,000 शरणार्थी और मणिपुर में जातीय संघर्ष से विस्थापित हुए 5,500 से अधिक लोग शरण लिए हुए हैं—जिनमें से अधिकांश के पास न कोई कानूनी दर्जा है, न राष्ट्रीय नीति का सहारा, और न ही केंद्र सरकार की आर्थिक मदद। सवाल यह है कि जब एक राज्य की नैतिक इच्छा क़ानून की चुप्पी से टकराती है, तब नीति की गैरहाज़िरी में करुणा कब तक टिक सकती है?
म्यांमार में फरवरी 2021 के सैन्य तख्तापलट के बाद चिन राज्य में, जो मिज़ोरम से गहरे जातीय और भाषाई संबंध रखता है, सशस्त्र विद्रोह और सेना की बर्बर कार्रवाई ने तबाही मचाई है। 4 जुलाई 2025 तक के हालिया संघर्षों ने एक बार फिर 3,600 से अधिक लोगों को भारत में शरण लेने पर मजबूर किया है। आज मिज़ोरम लगभग 50,000 विस्थापित लोगों को आश्रय दे रहा है—जिसमें बांग्लादेश के चिटगाँग हिल ट्रैक्ट्स से आए 2,200 बाव्म शरणार्थी और मणिपुर से भागे हजारों कुकी-जो समुदाय के लोग शामिल हैं। यह मिज़ोरम की कुल आबादी का 3% से भी अधिक है—बिना किसी औपचारिक पंजीकरण, कानूनी अधिकार या राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा के।
लेकिन सबसे अहम है प्रतिक्रिया की भावना। जहाँ केंद्र सरकार ने राज्यों को “अवैध घुसपैठ” रोकने के निर्देश दिए हैं, वहीं मिज़ोरम ने इंसानियत का रास्ता चुना है। मुख्यमंत्री लालदुहोमा की सरकार और ज़ो रीयूनिफिकेशन ऑर्गनाइज़ेशन (ZORO) जैसी संस्थाओं ने शरणार्थियों को भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा मुहैया कराई है—वह भी कई बार गृह मंत्रालय की नीतियों की अनदेखी करते हुए। मगर अब ये नैतिक मजबूती प्रशासनिक थकावट से टकरा रही है। मिज़ोरम में शरणार्थी शिविरों में नहीं, बल्कि 111 जगहों पर बिखरे घरों, किराए के कमरों और स्कूलों में रह रहे हैं। इस बिखराव के कारण राहत पहुंचाना और भी मुश्किल हो गया है। सीमावर्ती इलाकों जैसे जोखावतार में संसाधनों की कमी, अस्पतालों में भीड़, और बढ़ते अपराध को लेकर स्थानीय लोग चिंता में हैं—विशेषकर अब जब मानसून का मौसम बीमारियों के फैलाव का खतरा बढ़ा रहा है।
यह केवल मानवीय संकट नहीं, एक कानूनी शून्यता का भी मामला है। भारत 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और 1967 के प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है। यहां कोई राष्ट्रीय शरणार्थी कानून नहीं है, इसलिए चिन, रोहिंग्या या बाव्म—सभी को 'अवैध प्रवासी' माना जाता है। इसका अर्थ है कि इन्हें न पहचानपत्र मिलते हैं, न कानूनी सुरक्षा, और न ही भविष्य की कोई स्पष्टता। जब भारत जैसा लोकतंत्र खुद शरणार्थियों को ‘शरणार्थी’ कहने से भी कतराए, तब यह सवाल उठना लाज़मी है—क्या भारत शरण की गरिमा को नकार रहा है?
नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) भी इस बहिष्कार को और स्पष्ट करता है—यह केवल पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नागरिकता देता है। म्यांमार से आए चिन या रोहिंग्या जैसे मुस्लिम समूह इसमें शामिल नहीं हैं। वहीं UNHCR का दखल मिज़ोरम में सीमित है—वे केवल पहचानपत्र जारी कर सकते हैं, ठोस संरक्षण नहीं दे सकते। आर्थिक सवाल भी अहम है—इस पूरे संकट का खर्च कौन उठा रहा है? जवाब है: मिज़ोरम की अपनी जेब और वहां के लोगों की दयालुता। केंद्र से कोई ठोस वित्तीय सहयोग नहीं मिल रहा। पहले जो ‘फ्री मूवमेंट रीजीम’ सीमा पार के ज़ो लोगों को बिना वीज़ा आने-जाने की छूट देता था, वह 2024 में रोक दिया गया। अब केंद्र सरकार द्वारा सीमा पर बाड़ लगाने की योजना स्थानीय व्यापार और पारिवारिक संबंधों को भी प्रभावित कर सकती है।
और ये सब उस वक्त हो रहा है जब म्यांमार की स्थिति और बिगड़ रही है—बमबारी, हवाई हमले और अस्पतालों पर हमले जारी हैं। ऐसे में वापसी का विकल्प फिलहाल अस्तित्व में नहीं है। सवाल है—फिर दीर्घकालिक योजना क्या है? क्या केवल संवेदना ही काफी है? भारत को अब एक ठोस नीति की जरूरत है। 2021 का लंबित शरण विधेयक (Asylum Bill) एक आधार बन सकता है। अस्थायी पहचान-पत्र, अंतरराष्ट्रीय सहायता, मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम और कौशल विकास योजनाएं—ये सभी मिज़ोरम जैसे सीमावर्ती राज्यों पर बोझ कम कर सकते हैं और विस्थापितों को गरिमा से जीने का अधिकार दे सकते हैं।
अंत में, मिज़ोरम का यह कदम हमें एक सच्चाई से रूबरू कराता है: मान्यता भले न मिले, लेकिन सहानुभूति और एकता ज़िंदा है। पर अगर भारत इस संकट को अनदेखा करता रहा, तो वह सिर्फ शरणार्थियों से नहीं, बल्कि अपने ही लोकतांत्रिक मूल्यों से भी गद्दारी करेगा। क्या भारत केवल सीमावर्ती राज्यों पर करुणा का बोझ डालता रहेगा?
रिया गोयल कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।