इज़राइल और ईरान के बीच चल रहे संघर्ष ने वैश्विक बाजारों—विशेष रूप से ऊर्जा और वित्तीय क्षेत्रों—में तुरंत और मापनीय झटके पैदा किए हैं। निवेशकों ने इस भू-राजनीतिक तनाव पर तीव्र प्रतिक्रिया दी, जिसके चलते कच्चे तेल की कीमतों में तेज़ उछाल आया और जोखिमपूर्ण परिसंपत्तियों से दूरी बना ली गई। ब्रेंट क्रूड ऑयल की कीमत इस सप्ताह $75.15 प्रति बैरल तक पहुँच गई, जो लगभग पाँच वर्षों का उच्चतम स्तर है। यह उछाल इस डर को दर्शाता है कि कहीं तेल आपूर्ति में रुकावट न आ जाए, खासकर यदि फारस की खाड़ी—जहाँ से दुनिया के कुल तेल का लगभग 20% गुजरता है—किसी सैन्य संघर्ष या नाकाबंदी का केंद्र बन जाए।
मध्य पूर्व में अस्थिरता के प्रति ऊर्जा बाज़ार पारंपरिक रूप से संवेदनशील रहे हैं, और यह टकराव भी अपवाद नहीं है। ईरान, जो पहले से ही कड़े प्रतिबंधों के अधीन है, क्षेत्रीय तेल आपूर्ति शृंखला में एक प्रमुख खिलाड़ी है। वहीं, इज़राइल की हवाई और साइबर कार्रवाइयों ने यह आशंका बढ़ा दी है कि यह संघर्ष लंबा खिंच सकता है, जिससे बुनियादी ढाँचे और परिवहन मार्ग प्रभावित हो सकते हैं। विश्लेषकों का अनुमान है कि मौजूदा तेल मूल्य वृद्धि में $8–$10 प्रति बैरल का 'भू-राजनीतिक जोखिम प्रीमियम' शामिल है, जो संघर्ष के और गहराने या क्षेत्रीय समूहों जैसे हिज़्बुल्लाह या हूथियों की भागीदारी से और बढ़ सकता है। भले ही अब तक आपूर्ति पर सीधा असर नहीं पड़ा है, लेकिन बाज़ार भविष्य की संभावित उथल-पुथल को ध्यान में रखते हुए ही व्यवहार कर रहे हैं।
इस बढ़ते अस्थिरता के जवाब में, निवेशकों ने शेयरों से हटकर 'सुरक्षित विकल्पों' की ओर रुख किया है। वैश्विक शेयर बाजारों—विशेषकर परिवहन और विनिर्माण जैसे ऊर्जा-निर्भर क्षेत्रों—में गिरावट देखी गई। वॉल स्ट्रीट का S&P 500 सूचकांक 1.2% से अधिक गिर गया, जबकि VIX वोलैटिलिटी इंडेक्स हाल के महीनों का उच्चतम स्तर छू गया। इसी दौरान सोने की कीमतें लगभग 1.5% बढ़ीं, और यह धातु एक बार फिर राजनीतिक उथल-पुथल में सुरक्षित निवेश के रूप में उभरी।
अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्ड्स की यील्ड भी घटी, जिससे उनकी कीमतें बढ़ीं—यह निवेशकों की जोखिम से बचाव की एक और स्पष्ट निशानी है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर भी इसका असर पड़ा है। भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले कई महीनों के न्यूनतम स्तर पर आ गया, जो दर्शाता है कि निवेशकों में पूँजी निकासी और आयात बिल बढ़ने की चिंता है, विशेषकर तेल पर निर्भरता के कारण। जिन देशों की ऊर्जा आयात निर्भरता अधिक है, उन्हें अगले कुछ हफ्तों में मुद्रास्फीति (महँगाई) का दबाव झेलना पड़ सकता है, जिससे केंद्रीय बैंकों को ब्याज दर या सब्सिडी नीति पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है।
इस आर्थिक अस्थिरता को दीर्घकालिक बनाने वाला पहलू है – दोनों पक्षों की कठोर बयानबाज़ी। इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने केनेस्सेट (संसद) में कहा- "हम अपने लोगों की रक्षा किसी भी कीमत पर करेंगे। ईरान की आक्रामकता को अनुत्तरित नहीं छोड़ा जाएगा।"
दूसरी ओर, ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली ख़ामेनेई ने भी चेतावनी दी- "इस्लामी गणराज्य पर किसी भी आक्रमण का विनाशकारी उत्तर दिया जाएगा।" इन बयानों से स्पष्ट है कि दोनों पक्ष पीछे हटने के मूड में नहीं हैं, जिससे संघर्ष जल्दी सुलझने की संभावनाएँ क्षीण हो जाती हैं और आर्थिक अनिश्चितता बनी रहती है।
इस भू-राजनीतिक टकराव के आर्थिक प्रभाव केवल तेल बाजार तक सीमित नहीं हैं। ऊर्जा लागत में वृद्धि वैश्विक महँगाई को और भड़का सकती है, विशेष रूप से उस समय जब कई बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ सख्त मौद्रिक नीति से संतुलित नीति की ओर बढ़ने की कोशिश कर रही हैं।
उपभोक्ताओं को आने वाले दिनों में ईंधन और परिवहन की बढ़ती लागत का सामना करना पड़ सकता है। सरकारें या तो सब्सिडी बढ़ाने के दबाव में आ सकती हैं या ऊर्जा बाज़ारों में हस्तक्षेप कर सकती हैं। यदि आपूर्ति शृंखलाओं में व्यवधान आता है, तो व्यवसायों में भी भरोसा डगमगा सकता है—खासकर तेल-निर्भर उद्योगों में।
संक्षेप में, इज़राइल-ईरान संघर्ष केवल एक भू-राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि एक गंभीर आर्थिक व्यवधान बन गया है। जब तक यह तनाव बना रहेगा और क्षेत्रीय विस्तार की आशंका बनी रहेगी, बाज़ार सतर्क रहेंगे—और सुरक्षा व जोखिम से बचाव, वृद्धि और नवाचार पर भारी पड़ेंगे। तेल अवीव और तेहरान दोनों के रूख को देखते हुए, वैश्विक बाजारों में अस्थिरता आने वाले हफ्तों में भी प्रमुख विषय बनी रहेगी।
आकांक्षा शर्मा कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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