2025 के विधानसभा चुनावों से पहले बिहार में चुनाव आयोग द्वारा शुरू की गई "विशेष सघन पुनरीक्षण प्रक्रिया" (SIR) ने राज्य की राजनीति और न्यायपालिका में उबाल ला दिया है। चुनाव आयोग का दावा है कि इस प्रक्रिया का उद्देश्य मतदाता सूची को साफ और अद्यतन करना है, लेकिन विपक्षी दल और नागरिक समाज संगठन इसे हाशिए के समुदायों को मतदान से वंचित करने की ‘छुपी हुई साजिश’ बता रहे हैं।
क्या है यह प्रक्रिया?
25 जून 2025 से शुरू हुई इस प्रक्रिया में बूथ स्तर के अधिकारी (BLO) और लगभग एक लाख गणनाकार घर-घर जाकर मतदाता सूची का सत्यापन कर रहे हैं।
1 अगस्त तक प्रारूप सूची प्रकाशित की जाएगी और अंतिम सूची 30 सितंबर को जारी की जानी है।
लेकिन इस बार दस्तावेज़ी प्रक्रिया ने भारी चिंता खड़ी कर दी है।
2003 के बाद मतदाता सूची में शामिल सभी नागरिकों को अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए 11 विशेष दस्तावेज़ों में से कोई एक देना अनिवार्य किया गया है — जैसे जन्म प्रमाण पत्र, मूल निवास प्रमाणपत्र, पासपोर्ट, या शिक्षा संबंधी अभिलेख जिनमें जन्मस्थान हो।
हैरत की बात यह है कि आधार कार्ड, पैन कार्ड और राशन कार्ड जैसे आम प्रचलित दस्तावेजों को अस्वीकार कर दिया गया है।
2003 से पहले के मतदाताओं को केवल एक साधारण फॉर्म भरना होगा, लेकिन नए मतदाताओं और युवाओं के लिए यह प्रक्रिया कहीं अधिक कठिन बना दी गई है।
वोट काटने की साजिश?
विपक्षी पार्टियों ने इस प्रक्रिया को ‘राजनीतिक चाल’ करार दिया है।
राजद नेता तेजस्वी यादव का कहना है कि यह "अव्यवहारिक और राजनीतिक रूप से प्रेरित" है, जिससे लगभग 4 करोड़ मतदाताओं के प्रभावित होने की आशंका है।
ग्रामीण इलाकों, अशिक्षित वर्गों, प्रवासी मजदूरों, महिलाओं और मुस्लिम समुदायों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ रहा है।
शादी के बाद नाम बदल चुकी महिलाओं, बिहार से बाहर रह रहे छात्रों और कामगारों के पास जरूरी दस्तावेज़ नहीं हैं — और 25 जुलाई की तय समय-सीमा तक उन्हें ये दस्तावेज़ जमा करने हैं।
कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस प्रक्रिया को ‘वोटबंदी’ कहा है — ठीक वैसे ही जैसे 2016 की नोटबंदी — एक प्रशासनिक कदम जो दिखने में पारदर्शिता के लिए है, लेकिन असल में लाखों लोगों को अधिकार से वंचित कर सकता है।
न्यायपालिका और नागरिक समाज की प्रतिक्रिया
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (PUCL) और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) जैसे संगठनों ने इसे मतदाता दमन की योजना बताया है और सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ दायर की गई हैं।
हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल प्रक्रिया पर रोक नहीं लगाई है, लेकिन मामले को सुनवाई के लिए स्वीकार किया है। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि भारतीय नागरिकता साबित करने की यह बाध्यता संविधान के अनुच्छेद 326 का उल्लंघन करती है, जो सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की गारंटी देता है।
इसके साथ ही, चुनाव आयोग पर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम करने का भी आरोप है, क्योंकि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत इस तरह की कठोर नागरिकता जाँच का प्रावधान नहीं है।
राजनीतिक मायने और 2025 के चुनाव
इस पूरी कवायद का समय और पैमाना 2025 के विधानसभा चुनावों पर गहरा असर डाल सकता है।
विपक्ष का मानना है कि यह अभ्यास विशेष वर्गों के वोटरों को बाहर करके सत्ता पक्ष को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है।
चुनाव आयोग पारदर्शिता और शुचिता की बात करता है, लेकिन बड़ा सवाल यह है — क्या लोकतंत्र की रक्षा कुछ को बाहर करके की जा सकती है?
यदि सुप्रीम कोर्ट ने जल्द हस्तक्षेप नहीं किया, तो बिहार में बड़े पैमाने पर जन आक्रोश, कानूनी अनिश्चितता और शायद चुनाव बहिष्कार जैसी स्थितियाँ बन सकती हैं, जो लोकतंत्र की जड़ों को हिला सकती हैं।
जमीन से आती आवाज़ें
दरभंगा, पूर्णिया और गया जैसे जिलों से नागरिकों और सामुदायिक नेताओं की ओर से भ्रम, जागरूकता की कमी और निराशा की खबरें सामने आ रही हैं।
अररिया की 58 वर्षीय रज़िया खातून कहती हैं, “मैं 2009 से वोट डाल रही हूँ, अब मुझसे स्कूल सर्टिफिकेट माँगा जा रहा है, जो मेरे पास है ही नहीं।”
स्वयं BLO भी स्वीकार करते हैं कि निर्देश “अस्पष्ट और असंगत” हैं, जिससे भ्रम की स्थिति बन रही है।
निष्कर्ष: तकनीकी अभ्यास या लोकतंत्र का संकट?
‘विशेष सघन पुनरीक्षण’ एक तकनीकी प्रक्रिया के रूप में शुरू हुआ था, लेकिन अब यह एक राजनीतिक रूप से संवेदनशील और सामाजिक रूप से गंभीर मुद्दा बन चुका है।
चुनावी प्रक्रिया की शुचिता जरूरी है, लेकिन इसकी कीमत यदि लाखों वैध मतदाताओं को बाहर करने से चुकाई जाए, तो यह लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार है।
अब यह सुप्रीम कोर्ट पर है कि वह यह तय करे —
क्या भारत अपने लोकतंत्र की सुरक्षा करते हुए सभी नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है?
या फिर बिहार में होने वाला यह “सुधार” 2025 के चुनावों की वैधता को ही सवालों के घेरे में ले आएगा?
आकांक्षा शर्मा कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
निजी हैं और कल्ट करंट का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।