मिड-डे मील योजना—जिसे अब प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण कहा जाता है—सिर्फ भोजन का कार्यक्रम नहीं था, बल्कि एक भरोसे का वादा था। यह वादा कि बच्चे स्कूल आएंगे, पोषण पाएंगे और उन्हें हर दिन भूख की चिंता नहीं सताएगी। लेकिन जब COVID-19 के चलते स्कूल बंद हो गए, तो यह भरोसा भी टूट गया। झारखंड में लगभग 8.39 लाख बच्चों को लॉकडाउन के दौरान न तो सूखा राशन मिला और न ही वह खाना पकाने का खर्च, जो सरकार की ओर से वादा किया गया था। सवाल उठता है—जब सब कुछ पहले से ही अस्थिर था, तब यह मूलभूत सहायता भी इतने बच्चों तक क्यों नहीं पहुंची?
राज्य सरकार ने पके हुए भोजन की जगह सूखा राशन और डायरेक्ट कैश ट्रांसफर (डीबीटी) का तरीका अपनाया। सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों के 42 लाख से ज्यादा बच्चों को इसका लाभ मिलना था। लेकिन हर पाँच में से एक बच्चा इससे वंचित रह गया। क्यों? क्योंकि रिकॉर्ड में तो बच्चे दर्ज थे, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उन्हें ढूंढा नहीं जा सका। आधार-आधारित सत्यापन के दौरान कई "घोस्ट एंट्रीज़" सामने आईं। लेकिन इन नकली नामों को हटाते समय, क्या राज्य ने उन असली बच्चों को भी मिटा दिया जो पहले से हाशिए पर हैं—जिनके पास आधार नहीं था, जो दूरदराज के या प्रवासी, आदिवासी समुदायों से थे?
सबसे गंभीर स्थिति उन ज़िलों में दिखी जहां आदिवासी आबादी अधिक है—जैसे लातेहार और पश्चिमी सिंहभूम। कुछ इलाकों में तो 30% से भी कम बच्चों को लाभ मिला। इन पहाड़ी और जंगलों से भरे इलाकों तक पहुंचना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। वहां चावल पहुंचाने में जितना खर्च होता है, सरकार उससे कम राशि देती है। राज्य ने 'डोरस्टेप डिलीवरी' की एक पायलट योजना शुरू की, लेकिन वह भी पूरे स्तर पर लागू नहीं हो सकी। इसके बाद सरकार ने पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (PDS) पर भरोसा किया, लेकिन राशन की दुकानों में या तो सामग्री नहीं थी या सप्लाई में देरी हो रही थी। अंततः, कई परिवार खुद ही इंतज़ाम करने को मजबूर हो गए।
कैश ट्रांसफर मॉडल भी दिक्कतों से भरा था। कई खातों में गड़बड़ी, बैंक विवरणों की कमी और भुगतान में देरी आम थी। कुछ जिलों में तो सिर्फ 65% बच्चों को ही समय पर पैसा मिला। और जिनके माता-पिता ने कभी बैंक खाता नहीं खुलवाया था, या जो लोग लॉकडाउन में प्रवास कर चुके थे—उनके लिए कोई ठोस वैकल्पिक व्यवस्था नहीं थी।
सबसे चिंताजनक बात यह रही कि सरकार को ज़मीनी हकीकत की पूरी जानकारी ही नहीं थी। वर्ष 2021–22 में कोई सामाजिक ऑडिट नहीं हुआ। पिछली ऑडिट 2018–19 में हुई थी, लेकिन उसकी सिफारिशों को भी नज़रअंदाज़ कर दिया गया। दुमका के एक प्रधानाध्यापक ने जब सरकारी व्यवस्था से वंचित बच्चों को अपनी जेब से खाना खिलाया, तो यह साफ हो गया कि नीति और ज़मीनी सच्चाई के बीच बहुत बड़ी खाई है।
क्या यह सिर्फ पैसे की कमी का मामला था? केंद्र-राज्य साझेदारी में झारखंड को 40% हिस्से का खर्च उठाना था, लेकिन राज्य की हिस्सेदारी में देरी ने योजना के क्रियान्वयन को प्रभावित किया। खाना पकाने की लागत—प्राथमिक छात्रों के लिए ₹4.97 और उच्च प्राथमिक के लिए ₹7.45—स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार पहले ही अपर्याप्त थी, और महामारी के समय जब ग्रामीण भारत में भोजन की असुरक्षा बढ़ रही थी, तब यह राशि और भी कम पड़ गई। और हमेशा की तरह, सबसे ज़्यादा नुकसान उन्हीं को हुआ जो सबसे कमज़ोर थे—अनुसूचित जाति, जनजाति, प्रवासी समुदायों के बच्चे, जिनके पास न आधार था, न स्थायी घर, और न ही कोई ऐसा बड़ा जो फॉर्म भर सके। उनके लिए यह सिर्फ डिलीवरी में गड़बड़ी नहीं थी—बल्कि अस्तित्व की लड़ाई थी।
अब सवाल है कि इससे हमने क्या सीखा? विशेषज्ञ डिजिटल ट्रैकिंग को बेहतर बनाने, पहचान पत्र की अनिवार्यता को कम करने, समुदाय-आधारित ऑडिट शुरू करने और फंडिंग में पारदर्शिता लाने की सलाह दे रहे हैं। लेकिन जब तक इसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होगी, तब तक ये सुझाव भी केवल कागज़ पर ही रह जाएंगे। क्योंकि असल में यह सिर्फ प्रशासनिक चूक नहीं है—यह नैतिक विफलता है। एक भूखा बच्चा सिर्फ एक मील नहीं खोता, वह सीखने, बढ़ने और सपने देखने का अवसर खो देता है। और जब 8.39 लाख बच्चे इस व्यवस्था से बाहर रह जाते हैं, तब नुकसान सिर्फ पोषण का नहीं होता—मानवता का होता है। अब असली कसौटी यही है कि क्या हम इस विफलता को याद रखते हैं, और अगली बार जब कोई संकट आए, तो क्या हम सच में किसी बच्चे को पीछे न छोड़ने के लिए तैयार होंगे?
रिया गोयल कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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