बीते बुधवार को देशव्यापी भारत बंद, जिसे विभिन्न केंद्रीय श्रमिक संगठनों ने आयोजित किया, भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण मोड़ का संकेत देता है। यह केवल औद्योगिक शक्ति का प्रदर्शन नहीं था, बल्कि सरकार की आर्थिक और श्रम नीतियों के खिलाफ व्यापक प्रतिरोध का समन्वित संदेश था।
ट्रांसपोर्ट, बैंकिंग, कृषि, विनिर्माण, शिक्षा और सार्वजनिक सेवाओं जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों से जुड़े अनुमानित लाखों श्रमिकों की भागीदारी ने यह स्पष्ट कर दिया कि यह आंदोलन केवल ट्रेड यूनियनों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक व्यापक जन असंतोष को दर्शाता है।
इस बंद का मूल कारण हाल ही में लागू किए गए चार नए श्रम संहिताएं (Labor Codes) हैं, जिन्हें व्यापक रूप से यह कहकर आलोचना का शिकार होना पड़ा है कि वे श्रमिकों के अधिकारों को कमजोर करती हैं, यूनियन गतिविधियों को सीमित करती हैं, और नौकरी की सुरक्षा को खतरे में डालती हैं। ट्रेड यूनियनों और कई विश्लेषकों का मानना है कि यह सुधार एक ऐसी आर्थिक दिशा का हिस्सा हैं जिसमें 'व्यवसाय में सुगमता' को 'श्रमिक सुरक्षा' से ऊपर रखा गया है।
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो भारत बंद, संगठित श्रम शक्ति और सरकार के बीच बढ़ती खाई को रेखांकित करता है। कोविड-19 के बाद की अवधि में बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, और ठहरी हुई मजदूरी ने इस असंतोष को और गहरा किया है।
इस बंद का समय भी राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। आगामी राज्यों के विधानसभा चुनाव और 2029 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के संदर्भ में यह आंदोलन एक प्रेशर पॉइंट के रूप में उभरता है। पारंपरिक रूप से वामपंथी और विपक्षी विचारधारा से जुड़े श्रमिक संगठन अब राष्ट्रीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता पुनः स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं — और यह बंद इस दिशा में एक ठोस कदम है।
खास बात यह रही कि इस बंद को केवल ट्रेड यूनियनों का समर्थन नहीं मिला, बल्कि किसान संगठनों, छात्र समूहों और कई सामाजिक संगठनों ने भी समर्थन दिया। यह संकेत है कि श्रम से जुड़े मुद्दे अब केवल औद्योगिक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहे, बल्कि वे एक व्यापक जन-विरोध और सत्ता-विरोधी मनोभाव का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
इस आंदोलन ने यह भी उजागर किया कि सरकार और श्रमिक संगठनों के बीच संवाद की संस्थागत प्रक्रिया लगभग समाप्त हो चुकी है। ट्रेड यूनियनों का दावा है कि उन्होंने बार-बार संवाद की अपील की, लेकिन या तो उनकी बातों को अनसुना किया गया या फिर केवल औपचारिक प्रतिक्रियाएं दी गईं। 'इंडियन लेबर कॉन्फ्रेंस' जैसे मंचों की निष्क्रियता और त्रिपक्षीय संवाद की कमी यह दर्शाती है कि सरकार वास्तविक संवाद की इच्छुक नहीं दिख रही। इसका परिणाम यह हुआ है कि श्रमिक संगठन नीति संवाद के बजाय प्रतिरोध की राह पर हैं — जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक गंभीर संकेत है।
कुछ राज्यों में विरोध को दबाने के लिए की गई प्रशासनिक कार्रवाई — जैसे कि रोकथाम हेतु गिरफ्तारियां और इंटरनेट बंदी — ने लोकतांत्रिक अधिकारों के सिमटने और असहमति के प्रति असहिष्णुता की चिंताओं को और गहरा किया है। विपक्षी दलों ने इन कदमों को ‘सत्तावाद’ की ओर बढ़ते कदम बताया है और इसे अपने चुनावी नैरेटिव में शामिल किया है।
रणनीतिक रूप से देखा जाए तो भारत बंद ने विपक्षी दलों को यह अवसर दिया कि वे श्रमिकों के संघर्ष से जुड़कर खुद को जनता के पक्ष में खड़ा दिखा सकें। कांग्रेस, भाकपा (माक्र्सवादी), और कई क्षेत्रीय दलों ने बंद को समर्थन देकर सरकार की आर्थिक नीतियों पर सीधा हमला बोला। हालांकि भाजपा का तर्क है कि ये श्रम सुधार निवेश को बढ़ावा देंगे और अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धात्मकता को मजबूत करेंगे, लेकिन आलोचकों का कहना है कि इस मॉडल से न तो रोजगार के अवसर बढ़े हैं और न ही श्रमिकों की स्थिति में कोई ठोस सुधार आया है।
यदि सरकार ने श्रम नीतियों पर पुनर्विचार नहीं किया और ट्रेड यूनियनों के साथ गंभीर संवाद शुरू नहीं किया, तो वह एक बड़े और राजनीतिक रूप से सक्रिय वर्ग को स्वयं से दूर कर देगी। इस संदर्भ में भारत बंद केवल प्रतिरोध का प्रतीक नहीं, बल्कि एक संभावित मोड़ बन सकता है — जो आगामी आम चुनावों के पूर्व राजनीतिक विमर्श को नई दिशा दे सकता है, और श्रम न्याय, आय विषमता और समावेशी आर्थिक विकास जैसे मुद्दों को केंद्र में ला सकता है।
आकांक्षा शर्मा कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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