भारत की वैश्विक कूटनीतिः नेहरू की विरासत या मोदी की दृष्टि?
संदीप कुमार
| 30 Jun 2025 |
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1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति की जटिल दुनिया में एक संतुलित और विवेकपूर्ण विदेश नीति अपनाई है, जो उसके ऐतिहासिक अनुभवों, भौगोलिक-राजनीतिक यथार्थों और वैश्विक प्रभाव की आकांक्षाओं से प्रेरित रही है। भारत की विदेश नीति को लेकर वैश्विक स्तर पर सदैव उत्सुकता रही है कि यह देश अपनी संप्रभुता की रक्षा करते हुए अंतरराष्ट्रीय शक्तियों से किस प्रकार संवाद स्थापित करता है। शीत युद्ध के समय में भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति की शुरुआत ने भारत को महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा से दूर रखते हुए नव-स्वतंत्र और तीसरी दुनिया के देशों की आवाज बनने का मंच प्रदान किया।
हालांकि हाल के दशकों में वैश्विक संघर्षों के प्रति भारत का दृष्टिकोण बदलता हुआ दिख रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत की वर्तमान तटस्थ स्थिति नेहरूवादी गुटनिरपेक्षता की पुनरावृत्ति है या फिर आर्थिक और भूराजनीतिक हितों से प्रेरित रणनीतिक राष्ट्रवाद की एक व्यावहारिक दिशा?
नेहरूवादी गुटनिरपेक्षता: उत्पत्ति और सिद्धांत
शीत युद्ध के दौर में जब विश्व दो ध्रुवों—अमेरिका और सोवियत संघ—में बँटा हुआ था, उस समय नव-स्वतंत्र भारत ने अपनी संप्रभुता और विकास के लक्ष्यों की रक्षा के लिए किसी भी गुट से न जुड़ने का निर्णय लिया। नेहरू ने इस नीति को यूगोस्लाविया के तितो और मिस्र के नासिर के साथ मिलकर 1961 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के रूप में औपचारिक रूप दिया।
गुटनिरपेक्षता का उद्देश्य केवल सैन्य गुटों से दूरी बनाए रखना नहीं था, बल्कि सभी देशों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाते हुए किसी भी प्रकार के संघर्ष में पड़ने से बचना भी था। भारत ने इस नीति के अंतर्गत अमेरिका और सोवियत संघ दोनों के साथ सहयोग बनाए रखा। उदाहरणस्वरूप, 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय भारत ने अमेरिका से सहायता मांगी, वहीं 1971 में भारत-सोवियत मैत्री संधि पर भी हस्ताक्षर किए। इससे स्पष्ट होता है कि गुटनिरपेक्षता में लचीलापन था, जहां राष्ट्रीय सुरक्षा को विचारधारा पर प्राथमिकता दी गई।
यह नीति गांधी के शांति और अहिंसा के सिद्धांतों तथा भारत के औपनिवेशिक संघर्ष से प्रेरित पंचशील के पांच मूल सिद्धांतों—संप्रभुता का सम्मान, आक्रामकता से दूर रहना, आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, समानता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व—पर आधारित थी। गुटनिरपेक्षता अलगाव नहीं थी, बल्कि यह रणनीतिक स्वतंत्रता और वैश्विक शांति की दिशा में एक कदम थी।
इस नीति ने भारत को लचीलापन, स्वतंत्रता और नैतिक नेतृत्व का मंच दिया। भारत ने नवस्वतंत्र देशों के पक्ष में आवाज उठाकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक नैतिक नेतृत्व की भूमिका निभाई। हालांकि आलोचकों ने इसे “अवसरवाद” और “आदर्शवाद” करार दिया, और चीन जैसी शक्तियों के उदय के समय इसे खतरे से निपटने में अक्षम बताया।
भारत की विदेश नीति का विकास: गुटनिरपेक्षता से बहुपक्षीय साझेदारी तक
1990 के दशक के बाद भारत की कूटनीति ने एक नए यथार्थवादी और व्यावहारिक रास्ते पर कदम रखा। सोवियत संघ के विघटन ने उस गुटनिरपेक्ष आधार को हिला दिया जिस पर भारत की विदेश नीति टिकी हुई थी। इसके साथ ही 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव द्वारा शुरू किए गए आर्थिक उदारीकरण ने भारत को वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था से जोड़ दिया। अब द्विध्रुवीय दुनिया के लिए बनी गुटनिरपेक्ष नीति पुरानी और सीमित लगने लगी थी।
1990 का दशक: रणनीतिक संक्रमण
1990 के दशक में भारत की विदेश नीति अधिक व्यवहारिक और हित-आधारित होती चली गई। इसका स्पष्ट संकेत 1998 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा पोखरण परमाणु परीक्षण के निर्णय में मिला, जिसने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।
इस समय तक चीन का विस्तार और पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को समर्थन भी भारत को अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी की ओर ले जाने लगे। 2008 का भारत-अमेरिका परमाणु समझौता भारत की पूर्ववर्ती हिचकिचाहट से हटकर एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। इससे भारत को वैश्विक स्तर पर परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता मिली और अमेरिका के साथ सहयोग का नया अध्याय खुला।
भारत ने इस दौर में आसियान, जी-15 जैसे बहुपक्षीय मंचों में सक्रियता दिखाई और क्षेत्रीय प्रभाव भी बढ़ाया। “रणनीतिक स्वायत्तता” (Strategic Autonomy) का विचार गुटनिरपेक्षता की जगह लेने लगा। इसका लाभ यह हुआ कि भारत अब अमेरिका, रूस, ईरान और इज़राइल जैसे विभिन्न स्वभाव वाले देशों के साथ समानांतर संबंध बना सका।
मोदी सिद्धांत: बहुपक्षीय संरेखण की ओर रुझान
साल 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति में एक नए, अधिक सक्रिय और बहुआयामी दृष्टिकोण का उदय हुआ। इसे अक्सर "मल्टी-अलाइनमेंट" या "सर्व-संरेखण" कहा जाता है, जो एक साथ कई वैश्विक शक्तियों के साथ संबंध बनाने और बनाए रखने की रणनीति पर आधारित है। इस नीति के मूल में भारत का राष्ट्रीय हित, आर्थिक विकास और सुरक्षा प्राथमिकता पर है — न कि पुराने वैचारिक झुकावों पर।
मोदी की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएं:
विविध रणनीतिक साझेदारियाँ: भारत ने भौगोलिक और वैचारिक सीमाओं से परे मजबूत संबंध बनाए हैं। अमेरिका के साथ उसने रक्षा सहयोग को ‘क्वाड’ जैसे मंचों और LEMOA तथा COMCASA जैसे समझौतों के माध्यम से गहरा किया है। साथ ही रूस के साथ भी रक्षा खरीद और ऊर्जा क्षेत्र में परंपरागत रूप से मजबूत संबंध बनाए रखे हैं। वहीं चीन के साथ, चल रहे सीमा तनावों के बावजूद, भारत BRICS और SCO जैसे बहुपक्षीय मंचों के माध्यम से सतर्क कूटनीति के तहत संवाद करता रहा है।
सिद्धांत आधारित तटस्थता: रूस-यूक्रेन युद्ध के प्रति भारत का रुख इस बात का उदाहरण है कि वह शक्ति खेमों में बँधने से इनकार करता है। संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ प्रस्तावों से भारत का दूरी बनाए रखना और बातचीत व शांति की वकालत करना इसकी मिसाल है। यह संतुलित रुख भारत को रूस के साथ ऊर्जा और रक्षा मामलों में संबंध बनाए रखने की अनुमति देता है, वहीं पश्चिमी देशों के साथ संवाद भी जारी रखता है।
वैश्विक दक्षिण की आवाज: प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत ने विकासशील देशों के नेता के रूप में अपनी भूमिका को नया आयाम दिया है। 2023 में जी-20 की अध्यक्षता के दौरान अफ्रीकी संघ को स्थायी सदस्य बनवाने में भारत ने प्रमुख भूमिका निभाई। 'प्रोजेक्ट मौसम' और 'एक्ट ईस्ट पॉलिसी' जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से भारत ने क्षेत्रीय और सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने की दिशा में कदम उठाए हैं।
आर्थिक और सुरक्षा हितों पर केंद्रित: मोदी सरकार ने आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रमुखता दी है। ‘आत्मनिर्भर भारत’ पहल विशेष रूप से रक्षा क्षेत्र में विदेशी निर्भरता को कम करने का प्रयास है। इसके अतिरिक्त, इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) जैसे बुनियादी ढांचे परियोजनाओं में भागीदारी भारत की यूरेशियाई व्यापार और संपर्क में केंद्रीय भूमिका निभाने की मंशा को दर्शाती है।
लचीला और मुद्दा आधारित सहयोग: विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने भारत की मौजूदा नीति को “मुद्दा-आधारित संरेखण” (Issue-based alignment) के रूप में परिभाषित किया है। इसका अर्थ है कि भारत किसी स्थायी गुटबंदी के बजाय मुद्दों के अनुसार साझेदार चुनता है — इंडो-पैसिफिक रणनीति में अमेरिका के साथ काम करता है, ऊर्जा मामलों में रूस के साथ, तो निवेश और श्रमिक हितों में खाड़ी देशों के साथ भागीदारी करता है।
मोदी युग की यह विदेश नीति रणनीतिक राष्ट्रवाद (Strategic Nationalism) को दर्शाती है — एक ऐसा दृष्टिकोण जिसमें भारत का राष्ट्रीय हित कूटनीति के हर निर्णय का केंद्र बिंदु है। यह नीति नेहरू के नैतिक सार्वभौमिकता और आदर्शवाद से अलग है, जो गुटनिरपेक्षता का आधार था। आज के बहुध्रुवीय और अनिश्चित वैश्विक परिवेश में भारत पहले की तुलना में अधिक आत्मविश्वास के साथ अपने हितों की रक्षा करता है, और अपनी आर्थिक ताकत, सैन्य क्षमता तथा जनसांख्यिकीय लाभ को वैश्विक मंचों पर प्रभावी रूप से प्रस्तुत करता है।
पूर्व और वर्तमान विदेश नीति सिद्धांतों की तुलना
वैश्विक मामलों में भारत की वर्तमान तटस्थता, विशेषकर रूस-यूक्रेन संघर्ष जैसे मुद्दों पर, एक महत्वपूर्ण प्रश्न को जन्म देती है—क्या यह पंडित नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति की वापसी है या फिर राष्ट्रीय हितों पर आधारित एक नई रणनीति?
नेहरूकालीन गुटनिरपेक्षता गहराई से वैचारिक थी—यह उपनिवेशवाद विरोध, शांति और न्याय के मूल्यों पर आधारित थी। भारत ने उस समय नैतिक नेतृत्व की भूमिका निभाने का प्रयास किया, शीतयुद्ध के गुटों से दूरी बनाए रखी और वैश्विक समानता की पैरवी की। इसके विपरीत, मोदी सरकार की नीति व्यावहारिक है, जिसमें आर्थिक और सुरक्षा हितों को प्राथमिकता दी गई है—even अगर इसके लिए पुराने आदर्शों से हटना पड़े। उदाहरणस्वरूप, रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत द्वारा रूस से तेल की निरंतर खरीद, वैश्विक आलोचनाओं की परवाह किए बिना, ऊर्जा सुरक्षा को प्राथमिकता देने का संकेत देती है।
शीतयुद्ध के दौरान भारत ने दोनों महाशक्तियों से औपचारिक दूरी बनाए रखी, हालांकि समय-समय पर उसने सोवियत संघ की ओर झुकाव भी दिखाया। आज भारत ‘मल्टी-अलाइनमेंट’ की राह पर है, जहाँ वह कई देशों से अलग-अलग विषयों पर साझेदारी कर रहा है। यह नीति नेहरू की सतर्क कूटनीति से हटकर मुद्दा-आधारित, विविध साझेदारियों की ओर बढ़ी है।
भारत की तटस्थता का उद्देश्य भी अब अलग है। नेहरू के समय यह नैतिक कूटनीति और मध्यस्थता का माध्यम था, जैसे कोरियाई युद्ध के दौरान। वहीं, मोदी सरकार की वोटिंग से दूरी की नीति का उद्देश्य संतुलन साधना और रणनीतिक हितों की रक्षा करना है।
नेतृत्व के लक्ष्य भी समय के साथ बदले हैं। नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अगुवाई कर ग्लोबल साउथ को एकजुट करने की कोशिश की थी। जबकि आज भारत वैश्विक शक्ति बनने का लक्ष्य रखता है—जिसे G20 की अध्यक्षता और संयुक्त राष्ट्र सुधार की मांग के जरिए रेखांकित किया गया है। अब एकजुटता से अधिक ज़ोर प्रभाव और नेतृत्व पर है।
आगे के अवसर
चुनौतियों के बावजूद, भारत की यह रणनीति कई संभावनाओं के द्वार खोलती है:
• आर्थिक प्रगति: जापान, अमेरिका और खाड़ी देशों के साथ संबंध निवेश, प्रौद्योगिकी और बाज़ारों तक बेहतर पहुंच प्रदान करते हैं।
• रक्षा तत्परता: क्वाड क्षेत्रीय सुरक्षा समन्वय को सुदृढ़ करता है, जबकि घरेलू रक्षा कार्यक्रमों से आयात पर निर्भरता घटती है।
• वैश्विक प्रतिष्ठा: जी-20 की अध्यक्षता के दौरान भारत का नेतृत्व और वैश्विक दक्षिण के हितों की वकालत, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी प्रभावशीलता को बढ़ाती है।
निष्कर्ष
आज की भारत की विदेश नीति नेहरूवादी गुटनिरपेक्षता की पुनरावृत्ति नहीं है, बल्कि यह एक पुनर्परिभाषित रणनीतिक राष्ट्रवाद का रूप है। जहाँ गुटनिरपेक्षता वैचारिक तटस्थता और नैतिक नेतृत्व पर आधारित थी, वहीं वर्तमान नीति सोच-समझकर की गई कूटनीति पर आधारित है, जो राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखती है।
रिया गोयल अपने कार्य में जिज्ञासा और दृढ़ विश्वास के साथ 'कल्ट करंट' में अपना योगदान देती हैं।