अमेरिका का पाकिस्तान मोह: एक भ्रामक रणनीति
संदीप कुमार
| 30 Jun 2025 |
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हाल ही में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर के प्रति दिखाई गई गर्मजोशी ने नई दिल्ली में कूटनीतिक हलकों में हलचल पैदा कर दी । यह मुलाकात केवल एक औपचारिक राजनयिक शिष्टाचार नहीं थी, बल्कि एक गहरी रणनीतिक योजना का हिस्सा थी, जिसे भारत ने गंभीरता से देखा है। क्या यह अमेरिका की ओर से एक कुशल रणनीतिक चाल थी, या फिर शीतयुद्ध काल की पुरानी गलतफहमियों की पुनरावृत्ति?
हाल ही में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर के बीच हुई मुलाकात केवल एक सामान्य कूटनीतिक घटना नहीं थी। इसे एक ऐसी रणनीतिक चाल के रूप में देखा जाना चाहिए जो दिखने में आकर्षक, परंतु भीतर से अत्यंत सतही और खतरनाक है। ट्रंप ने इस मुलाकात को ‘सम्मान की बात’ बताया और यह कहा कि पाकिस्तानी ईरान को बाकियों की अपेक्षा बेहतर जानते हैं। यह कथन केवल एक औपचारिक प्रशंसा नहीं थी; यह एक स्पष्ट संकेत था कि अमेरिका एक बार फिर पाकिस्तान को पश्चिम एशिया में अपने रणनीतिक हितों के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करना चाहता है।
भारत की नजरों से अमेरिका-पाकिस्तान समीकरण
भारत इस पूरे घटनाक्रम को एक ठंडे और साफ दिमाग से देख रहा है। न तो किसी हड़बड़ी में प्रतिक्रिया दी गई, न ही सार्वजनिक रूप से कोई तीखा विरोध। भारत समझता है कि पाकिस्तान की असल ताकत उसकी लोकतांत्रिक सरकार में नहीं, बल्कि उसकी सेना में निहित है। यही कारण है कि अमेरिका की ओर से बार-बार सेना प्रमुखों को तवज्जो दी जाती है, न कि निर्वाचित नेताओं को। ट्रंप द्वारा मुनीर को व्हाइट हाउस में भोज पर बुलाना इस प्रवृत्ति का ताजा उदाहरण है।
यह अमेरिका की पुरानी आदत है - 1950-60 के दशक में जनरल अयूब खान से लेकर 1980 के दशक में जनरल ज़िया-उल-हक़ तक — अमेरिका ने हमेशा पाकिस्तान की सेना को अपने रणनीतिक एजेंडे में प्राथमिकता दी है। परंतु भारत जानता है कि इन सैन्य गठबंधनों ने कभी भी दीर्घकालिक शांति या स्थायित्व नहीं लाया। उल्टे, ये अस्थिरता, आतंकवाद, और अविश्वास की नींव बने।
ईरान और इज़राइल की पृष्ठभूमि में पाकिस्तान की भूमिका
ट्रंप का यह कथन कि 'पाकिस्तान ईरान को बेहतर समझता है', केवल एक सामान्य कूटनीतिक टिप्पणी नहीं, बल्कि पश्चिम एशिया में एक संभावित सैन्य समीकरण की ओर संकेत करता है। अमेरिका और इज़राइल, दोनों की नजरें इस समय ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर हैं। ऐसे में पाकिस्तान की सेना को, जिसकी सार्वजनिक छवि इस्लामी एकजुटता की समर्थक है, अमेरिका एक ऐसे 'गुप्त सहयोगी' के रूप में देख रहा है जो पर्दे के पीछे से सहयोग कर सकता है।
परंतु यह दृष्टिकोण अत्यंत खतरनाक है। पाकिस्तान की जनता में ईरान को लेकर सहानुभूति है, और इज़राइल के प्रति विरोध की भावना है। ऐसे में पाक सेना की कोई भी संभावित साझेदारी, देश के अंदर सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल का कारण बन सकती है। ट्रंप प्रशासन या उनके रणनीतिकार यदि यह सोच रहे हैं कि मुनीर जैसे जनरल ईरान के खिलाफ किसी गोपनीय गठजोड़ में अमेरिका का साथ देंगे, तो यह उनकी बड़ी भूल हो सकती है।
एक सैन्य जनरल को मानसिक बढ़त देना
ट्रंप और मुनीर के बीच भोज महज़ एक औपचारिक मुलाकात नहीं थी, बल्कि एक प्रकार का मानसिक तुष्टीकरण था। ट्रंप का उद्देश्य साफ था — मुनीर की अहंकार-तुष्टि कर उसे एक उपयोगी रणनीतिक मोहरे में बदलना। ट्रंप भले ही खुद को भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध टालने वाला 'नायक' बताते रहें, पर सच्चाई यह है कि भारत ने उनके इस दावे को तुरंत खारिज कर दिया। भारत को किसी मध्यस्थता की आवश्यकता नहीं है — विशेषकर तब, जब वह आत्मनिर्भर रणनीतिक स्थिति में है।
इस मुलाकात का समय भी चिंताजनक है। पश्चिम एशिया में अगर इज़राइल कोई बड़ा सैन्य अभियान शुरू करता है, तो ट्रंप पाकिस्तान को इस योजना में एक 'सहायक कड़ी' के रूप में देख सकते हैं। ऐसे में भारत को सतर्क रहना होगा कि कहीं यह नया समीकरण दक्षिण एशिया में अस्थिरता न फैला दे।
भारत के लिए रणनीतिक संकेत
इस घटनाक्रम से भारत के लिए कुछ स्पष्ट रणनीतिक संदेश निकलते हैं:
- पाकिस्तान की सेना आज भी देश का सबसे संगठित और प्रभावशाली तंत्र है, जो विदेश नीति, आंतरिक सुरक्षा, और परमाणु कार्यक्रमों पर एकाधिकार रखती है।
- अमेरिका, विशेषकर ट्रंप जैसे नेता, अब भी पाकिस्तान को एक 'सुविधाजनक साझेदार' के रूप में देखते हैं — भले ही उसका लोकतंत्र, मानवाधिकार, या आतंकी संबंध कितने भी संदिग्ध क्यों न हों।
- भारत को यह समझना होगा कि अमेरिका की विदेश नीति अवसरवादी और अल्पकालिक लक्ष्यों पर आधारित रहती है। ट्रंप जैसे नेता अपनी शर्तों पर गठबंधन करते हैं, जिनमें दीर्घकालिक स्थिरता का कोई स्थान नहीं होता।
इसके अतिरिक्त, भारत को यह भी स्पष्ट समझ होना चाहिए कि अमेरिका का यह रुख सिर्फ पाकिस्तान के संदर्भ में ही नहीं है, बल्कि उसकी वैश्विक कूटनीति में एक व्यापक प्रवृत्ति को दर्शाता है — जिसमें वह चीन को संतुलित करने के प्रयास में किसी भी देश का तात्कालिक उपयोग कर लेता है। यही कारण है कि भारत को पश्चिम की 'रणनीतिक गारंटी' पर पूरी तरह निर्भर न रहकर आत्मनिर्भर सुरक्षा नीति विकसित करनी होगी।
भारत की रणनीति: आत्मविश्वास और वैश्विक सहयोग
भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अब पाकिस्तान के साथ किसी भी प्रकार की 'समानता' को नकारता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ट्रंप के भ्रामक बयानों को सिरे से खारिज करना यही दर्शाता है कि भारत अब ‘पाकिस्तान-भारत’ समीकरण से ऊपर उठ चुका है। दोनों देशों में अब केवल भौगोलिक सामीप्य है, न कि कोई राजनीतिक या रणनीतिक समानता।
भारत को अब और भी गंभीरता से वैश्विक सहयोग को मजबूत करना होगा — अमेरिका पर पूर्ण निर्भरता की बजाय यूरोपीय संघ, फ्रांस, जापान, खाड़ी देशों, और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ बहुपक्षीय साझेदारी को बढ़ावा देना ज़रूरी है। इसके साथ-साथ दक्षिण एशिया में बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल और भूटान जैसे पड़ोसी देशों के साथ भी स्थायी आर्थिक-सामरिक सहयोग की नींव डालनी होगी, ताकि क्षेत्रीय संतुलन भारत के पक्ष में बना रहे। साथ ही, अमेरिका और पश्चिम को यह समझाना आवश्यक है कि यदि वे वास्तव में चीन के प्रभाव का संतुलन चाहते हैं, तो पाकिस्तान जैसे अस्थिर और सैन्य-प्रभुत्व वाले देश पर नहीं, बल्कि भारत जैसे लोकतांत्रिक और संस्थागत रूप से मजबूत देश पर भरोसा करना होगा।