बिहार के सीवान ज़िले के मैरवां प्रखंड में बीते दिनों प्रशांत किशोर ने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया। लेकिन यह कोई आम राजनीतिक भाषण नहीं था। न इसमें जातीय समीकरणों की बात थी, न ही खोखले वादों की बौछार। यह एक चेतावनी थी—बिहार की जड़ जमा चुकी राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती देने की—और सबसे बढ़कर, यह असली बदलाव की पुकार थी, जिसकी लोग वर्षों से उम्मीद करते आए हैं, लेकिन अब विश्वास खो बैठे हैं।
चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर अब अपने गृह राज्य में जन सुराज आंदोलन के माध्यम से सक्रिय हैं। उनका तरीका पारंपरिक राजनीति से बिलकुल अलग है। वे हेलिकॉप्टर से आकर मंच सजाकर चले नहीं जाते, बल्कि गांव-गांव पैदल चलकर लोगों के घरों में रुकते हैं, बैठकों में भाग लेते हैं और लोगों की समस्याओं को ध्यान से सुनते हैं। यही ज़मीनी जुड़ाव उनकी राजनीति को अलग बनाता है।
किशोर अपने भाषणों में मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था की खुलकर आलोचना करते हैं। वे सवाल करते हैं कि दशकों की सरकारों के बाद भी गांवों में स्कूल, अस्पताल, और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं क्यों नहीं हैं। वे किसी एक दल को नहीं, बल्कि हर उस पार्टी को कटघरे में खड़ा करते हैं जो सत्ता में रह चुकी है। यह सत्ता-विरोधी तेवर खासकर युवाओं में गूंज रहा है, जो अब जातिवाद और खोखली बयानबाज़ी से ऊब चुके हैं।
जन सुराज कोई पारंपरिक चुनावी अभियान नहीं, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन है। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और कानून-व्यवस्था जैसे मुद्दों पर ठोस चर्चा की जाती है। किशोर लोगों से कहते हैं कि वोट केवल जाति या पार्टी के नाम पर न दें, बल्कि विकास के आधार पर सवाल करें। उनका संदेश स्पष्ट है: "जब तक राजनीति नहीं बदलेगी, समाज नहीं सुधरेगा।"
बिहार की राजनीति लंबे समय से जाति-आधारित ध्रुवीकरण और पहचान की राजनीति पर टिकी रही है। जन सुराज इस ढांचे को चुनौती देता है। पारदर्शिता, स्थानीय भागीदारी और ज़मीनी समस्याओं पर केंद्रित यह आंदोलन बिहार में राजनीति का नया मॉडल पेश कर रहा है। यह व्यक्ति-पूजा नहीं, बल्कि सामूहिक समाधान की दिशा में एक प्रयास है।
मैरवां की यह रैली भले ही एक पड़ाव हो, लेकिन प्रतीकात्मक रूप से यह बहुत कुछ दर्शाती है। यह दिखाता है कि राजनीतिक संवाद अब सिर्फ एकतरफा भाषण नहीं रहा—लोग अब सवाल कर रहे हैं, चर्चा कर रहे हैं, और बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं। यही असल शुरुआत है।
बेशक, यह रास्ता आसान नहीं है। जमी-जमाई राजनीतिक संस्कृति को बदलना संघर्षपूर्ण होगा। विरोध होगा—राजनीतिक विरोधियों से, संस्थागत व्यवस्था से, और यहां तक कि उन समुदायों से भी जो पारंपरिक राजनीति के अभ्यस्त हैं। लेकिन इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि एक ग्रामीण क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में लोग विकास की बात सुनने इकट्ठा हुए—यह संकेत है कि हवा बदल रही है।
सीधे शब्दों में कहें तो प्रशांत किशोर जो कर रहे हैं, वह राजनीति से कहीं बढ़कर है। यह एक जनजागरण है, जो हर नागरिक को समाधान का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित करता है। यदि यह सोच फैली, तो बिहार शायद उस चक्रव्यूह से बाहर निकल पाए, जिसमें वह दशकों से फंसा हुआ है—और एक ऐसी राजनीति की ओर बढ़ सकेगा, जो सुनती है, काम करती है, और सचमुच जनता की होती है।
श्रेया गुप्ता कल्ट करंट की प्रशिक्षु पत्रकार है। आलेख में व्यक्त विचार उनके
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