क्या भारत बन सकता है वैश्विक व्यापार का नया स्तंभ ?
संदीप कुमार
| 01 Aug 2025 |
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एक समय था जब पूरी दुनिया एक ही दिशा में बढ़ती दिख रही थी — खुले बाज़ार, साझा उत्पादन प्रणालियाँ, और बहुपक्षीय संस्थाएं जो आर्थिक अलगाव को रोकने के लिए बनाई गई थीं। वैश्वीकरण कोई कल्पना नहीं, बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था की धड़कन था, जिसमें व्यापार निर्बाध रूप से बहता था और आपूर्ति श्रृंखलाएं आपस में गहराई से जुड़ी थीं। लेकिन आज वही दुनिया बदल रही है — कभी धीरे-धीरे, तो कभी भूचाल की तरह। व्यापार युद्ध, ऊर्जा राष्ट्रवाद और आपूर्ति श्रृंखलाओं का पुनर्गठन वैश्वीकरण के उन ढांचों को तोड़ रहे हैं जो कभी इसकी रीढ़ हुआ करते थे। भारत इस परिवर्तन का न केवल एक सहभागी है, बल्कि एक साक्षी भी है। यह बदलाव जितना वास्तविक है, उतनी ही इसमें संभावनाएं भी छिपी हैं।
बहुपक्षवाद की टूटती नींव
व्यापार युद्धों ने केवल माल की आवाजाही को नहीं रोका, बल्कि वैश्विक सहमति की कमजोरियों को उजागर कर दिया। अमेरिका और चीन के बीच की तनातनी इसकी शुरुआत मात्र थी — अरबों डॉलर के उत्पादों पर टैरिफ, जवाबी प्रतिबंध और WTO की समाधान प्रणाली का कमजोर पड़ना इस ओर संकेत था कि अब फैसले साझा नहीं, सौदों पर आधारित होंगे। नतीजा यह हुआ कि विश्व व्यापार संस्थाओं में विश्वास डगमगाने लगा — सिर्फ वॉशिंगटन या बीजिंग में नहीं, बल्कि पूरे विश्व की राजधानियों में।
भारत, जो हमेशा बहुपक्षीय मंचों पर सतर्क रहा है, इस बदलाव को जल्दी समझ गया। RCEP से भारत का पीछे हटना सिर्फ घरेलू उद्योग की रक्षा नहीं था — यह एक रणनीतिक निर्णय था। अगर बड़े व्यापारिक समूह शक्तिशाली देशों की मर्ज़ी पर चल सकते हैं, तो छोटे देश दोतरफा सौदों के ज़रिए अपनी शर्तें तय करना चाहेंगे। पर क्या यह द्विपक्षीय तरीका लंबे समय तक टिकाऊ होगा? या यह सिर्फ एक अस्थायी समाधान है, जब तक नया वैश्विक ढांचा आकार ले?
द्विपक्षीयता: समझौता या आत्मनिर्भरता की रणनीति?
भारत ने जिस तरह ऑस्ट्रेलिया, यूएई और यूरोपीय देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते किए हैं, वह इस बात का संकेत है कि भारत वैश्विक व्यापार से विमुख नहीं, बल्कि सतर्क हो गया है। यह साझेदारियाँ केवल आर्थिक लाभ के लिए नहीं, बल्कि रणनीतिक संतुलन साधने के लिए की जा रही हैं। लेकिन इस रास्ते में चुनौतियां भी हैं। द्विपक्षीय समझौते अक्सर ताकतवर देशों के पक्ष में झुकते हैं, जैसा कि भारत और अमेरिका के रिश्तों में दिखता है — जहां अमेरिका अब उदार सहयोगी नहीं, बल्कि सौदेबाज़ बन गया है। भारत के लिए मुश्किल यह है कि वह न तो घरेलू प्राथमिकताओं से समझौता कर सकता है, और न ही वैश्विक साझेदारों को नाराज़ कर सकता है।
आपूर्ति श्रृंखला का पुनर्गठन: अवसर या अवरोध?
कोविड महामारी ने यह सिखाया कि कुशल आपूर्ति श्रृंखलाएं लचीली नहीं थीं। जैसे ही उत्पादन ठप हुआ और ज़रूरी सामानों की किल्लत हुई, दुनिया को अहसास हुआ कि वैश्वीकरण की यह प्रणाली एक 'ताश का महल' थी — और इसका केंद्र चीन था। भारत ने इसे अवसर के रूप में देखा और तेज़ी से कदम उठाए।
PLI योजनाओं के तहत सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मा और सेमीकंडक्टर जैसे क्षेत्रों को बढ़ावा दिया। Apple और Micron जैसी कंपनियों ने भारत में निर्माण की योजनाएं बनाईं। ‘फ्रेंडशोरिंग’ का विचार — यानी भरोसेमंद देशों में निर्माण — भारत के पक्ष में जाता दिखा। लेकिन सिर्फ इंसेंटिव काफी नहीं हैं। निवेशकों को भरोसा चाहिए — नीति स्थिरता, आधारभूत ढांचा और प्रशासनिक दक्षता, जिनमें भारत को अब भी बहुत सुधार करना है। क्या भारत चीन का विकल्प बन सकता है — या वह खुद एक नई वैश्विक निर्माण शक्ति बन सकता है?
ऊर्जा राष्ट्रवाद: नई संप्रभुता की होड़
अगर व्यापार और उत्पादन ने वैश्वीकरण की नींव हिला दी, तो ऊर्जा सुरक्षा ने उसे पूरी तरह झकझोर दिया। रूस-यूक्रेन युद्ध और इसके कारण लगे प्रतिबंधों ने तेल-गैस बाज़ारों को उथल-पुथल कर दिया और राष्ट्रों को यह सिखा दिया कि ऊर्जा की संप्रभुता सबसे ऊपर है। अब सिर्फ कोयला या तेल नहीं, बल्कि सौर पैनल, बैटरियां और लिथियम जैसी खनिज संपत्तियां नई दौड़ का हिस्सा हैं।
भारत, जो 80% से ज़्यादा कच्चा तेल आयात करता है, ने यथार्थवादी रवैया अपनाया। रूस से सस्ता तेल खरीदना पश्चिम को नागवार तो गुज़रा, लेकिन भारत के लिए यह मुद्रास्फीति पर नियंत्रण और आर्थिक राहत का ज़रिया बना। साथ ही, भारत ने 2030 तक 500 GW ग्रीन एनर्जी का लक्ष्य रखा है। लेकिन इसके लिए जो कच्चा माल चाहिए — लिथियम, कोबाल्ट, रेयर अर्थ मेटल्स — वह भारत के पास सीमित है। फिर वही सवाल: क्या आत्मनिर्भरता दूसरों पर संरचित निर्भरता के ज़रिए हासिल होगी?
संरक्षणवाद की वापसी: रणनीतिक वापसी या पुरानी सोच?
संरक्षणवाद — यानी अपने घरेलू उद्योगों को बाहरी प्रतिस्पर्धा से बचाना — वैश्विक राजनीति में फिर लौट आया है, इस बार 'आत्मनिर्भरता' के नाम पर। भारत का ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान इसी सोच का हिस्सा है, जिसमें आयात प्रतिस्थापन, टैरिफ बढ़ोतरी और घरेलू उत्पादन को बढ़ावा दिया गया। लेकिन परिणाम मिश्रित रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्र में निवेश आया है, लेकिन अन्य क्षेत्रों में निर्माण धीमा है। टैरिफ दीवारें विदेशी निवेशकों को रोक भी सकती हैं। क्या भारत थोड़ी उदारता दिखाकर अमेरिका और यूरोप से निवेश व तकनीकी सहयोग हासिल कर सकता है?
दो ध्रुवों के बीच भारत: स्वतंत्र लेकिन अकेला?
भारत की विदेश नीति की नींव 'रणनीतिक स्वायत्तता' पर रही है — न किसी खेमे में जाना, न किसी के खिलाफ जाना। लेकिन अब अमेरिका-चीन के बीच खिंचती रेखाएं भारत पर दबाव बना रही हैं। भारत की रणनीति स्पष्ट है: सहयोग करो, पर गठबंधन में मत बंधो। Quad इसका उदाहरण है — अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत का साथ, लेकिन बिना किसी सैन्य संधि के। भारत रूस से तेल खरीदता है, और अमेरिका से रक्षा सौदे करता है। यह विरोधाभास नहीं, रणनीतिक संतुलन है। लेकिन इससे भारत कुछ चीजों से वंचित रह जाता है — जैसे अमेरिका के टेक्नोलॉजी फ्रेमवर्क में प्रवेश या वैश्विक मानकों के निर्धारण में भूमिका। चीन की एलएसी पर आक्रामकता और क्षेत्रीय प्रभुत्व की कोशिशें भारत के लिए खतरे बढ़ाती हैं। कब तक भारत यह संतुलन साध सकता है?
क्षेत्रीय प्रभाव: घटती साख?
दक्षिण एशिया में भारत की पारंपरिक नेतृत्व भूमिका को चीन ने चुनौती दी है — इन्फ्रास्ट्रक्चर, हथियारों और वित्त के ज़रिए। श्रीलंका, मालदीव और पाकिस्तान में चीन की पैठ भारत की चिंता का कारण है। भारत ने मुद्रा विनिमय, सैन्य अभ्यास और सहायता के ज़रिए जवाब तो दिया है, लेकिन दक्षिण एशिया आज भी विश्व का सबसे कम आर्थिक रूप से जुड़ा क्षेत्र है। यह भारत के प्रभाव को कम करता है। अगर भारत अपने पड़ोस को केवल सुरक्षा क्षेत्र न मानकर आर्थिक अवसर माने, तो स्थिति बदली जा सकती है।
तकनीकी आकांक्षाएं: क्षमता और बाधाएं
भारत की वैश्विक भूमिका तकनीक के बिना अधूरी है। AI से लेकर सेमीकंडक्टर तक, भारत उच्च मूल्य श्रृंखला में ऊपर जाना चाहता है। प्रतिभा तो है, लेकिन उत्पादन ढांचा कमज़ोर है। रक्षा उत्पादन विदेशी निर्भरता पर टिका है, और डेटा लोकलाइजेशन जैसी नीतियां निवेशकों को असहज करती हैं। आगे का रास्ता सहयोग में है — को-प्रोडक्शन, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और वैश्विक R&D में भागीदारी। लेकिन इसके लिए भारत को डिजिटल संप्रभुता और खुलेपन के बीच संतुलन साधना होगा। क्या भारत अपने डेटा की रक्षा करते हुए विकास को गति दे सकता है?
निष्कर्ष: एक बहुध्रुवीय, रणनीतिक भविष्य की ओर
वैश्वीकरण का पतन एक वापसी नहीं, बल्कि पुनर्गठन है। राष्ट्र अपने आर्थिक रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर रहे हैं, प्राथमिकताओं को बदल रहे हैं, और व्यापार तथा ऊर्जा में सुरक्षा को पहले रख रहे हैं। इस बदलती दुनिया में लचीलापन ही ताकत है। भारत की प्रतिक्रिया अब तक संतुलित रही है — बहुपक्षवाद की जगह द्विपक्षीयता, गठबंधन से बचते हुए रणनीतिक स्वायत्तता, और अंधे खुलेपन की जगह राष्ट्रीय सुरक्षा। यह वैश्वीकरण का इनकार नहीं, बल्कि उसे भारतीय शर्तों पर परिभाषित करने की कोशिश है। पर अब वक्त है सिर्फ सतर्कता नहीं, रणनीतिक साहस दिखाने का — नीतियों में ही नहीं, क्रियान्वयन में भी। दुनिया अगर खंडित लेकिन जुड़ी हुई दिशा में जा रही है, तो भारत को खुद से पूछना होगा — क्या वह प्रतिक्रिया देने वाला देश बना रहना चाहता है, या अब वह वक्त आ गया है जब वह खुद खेल के नियम लिखे?
रिया गोयल अपने कार्य में जिज्ञासा और दृढ़ विश्वास के साथ 'कल्ट करंट' में अपना योगदान देती हैं।