भारत@2047 : रणनीति का दुर्ग

संदीप कुमार

 |  02 Sep 2025 |   6
Culttoday

21वीं सदी का तीसरा दशक एक ऐसे भू-राजनीतिक भूचाल से परिभाषित हो रहा है, जहाँ दशकों पुराने वैश्विक व्यापार के नियम टूट रहे हैं और आर्थिक प्राथमिकताएँ रणनीतिक अनिवार्यताओं के अधीन होती जा रही हैं। राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा भारत सहित दुनिया भर से होने वाले आयातों पर लगाए गए दंडात्मक टैरिफ, रूस-यूक्रेन संघर्ष के बाद बदलती ऊर्जा आपूर्ति शृंखला, और अमेरिका-रूस के बीच पनपते अप्रत्याशित संबंध—ये सभी घटनाएँ एक ऐसे वैश्विक तूफान का निर्माण कर रही हैं, जिसमें हर देश अपनी नाव बचाने की जुगत में लगा है। इस उथल-पुथल के बीच, भारत एक दर्शक मात्र नहीं है; वह एक सचेत और महत्वाकांक्षी रणनीति के साथ अपनी दिशा स्वयं तय कर रहा है।
यह रणनीति पारंपरिक निर्यात-आधारित विकास मॉडल से एक निर्णायक प्रस्थान है। यह एक 'दुर्ग' रणनीति है—एक ऐसी नीति जो बाहरी झटकों से बचाव के लिए पहले अपनी आंतरिक नींव को अभेद्य बनाती है, ताकि वह इस मजबूत आधार से दुनिया के साथ अपनी शर्तों पर जुड़ सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'दाम कम, दम ज़्यादा' का नारा केवल एक आर्थिक सूत्र नहीं, बल्कि इस नई राष्ट्रीय मानसिकता का प्रतीक है: एक ऐसा भारत जो केवल कम लागत पर उत्पादन नहीं करेगा, बल्कि गुणवत्ता, नवाovar और आत्मनिर्भरता के 'दम' पर वैश्विक मंच पर अपनी जगह बनाएगा। यह विश्लेषण भारत की इसी बहु-आयामी दुर्ग रणनीति की पड़ताल करता है, जो 'आत्मनिर्भर भारत' के दर्शन को 'विकसित भारत 2047' के लक्ष्य के साथ जोड़ती है, और यह समझने का प्रयास करता है कि क्या यह रणनीति भारत को इस अनिश्चित युग में एक अग्रणी शक्ति के रूप में स्थापित कर सकती है।
वैश्विक शतरंज की बिसात पर भारत 
भारत की इस रणनीतिक धुरी को समझने के लिए उन बाहरी दबावों को समझना आवश्यक है, जो इसे आकार दे रहे हैं। ट्रंप के 'लिबरेशन डे' टैरिफ केवल संरक्षणवाद का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि यह व्यापार के शस्त्रीकरण  का एक स्पष्ट उदाहरण है, जहाँ आर्थिक नीतियों का उपयोग भू-राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है। भारत, जिसका अमेरिका के साथ एक महत्वपूर्ण व्यापार अधिशेष है, इस नीति के सीधे निशाने पर है। यह स्थिति भारत को अपनी निर्यात-निर्भरता पर पुनर्विचार करने और घरेलू बाजार को विकास के प्राथमिक इंजन के रूप में देखने के लिए मजबूर करती है। इसी तरह, रूस-यूक्रेन संघर्ष ने ऊर्जा की वैश्विक राजनीति को नया मोड़ दिया है। रूस से रियायती दरों पर ऊर्जा आयात करना भारत के लिए एक आर्थिक आवश्यकता थी, विशेषकर जब पारंपरिक आपूर्तिकर्ताओं ने यूरोप की ओर रुख कर लिया था। हालाँकि, यह निर्णय भारत को एक जटिल कूटनीतिक स्थिति में डालता है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के दबाव के बीच, भारत ने अपनी 'रणनीतिक स्वायत्तता' पर जोर दिया है, यह तर्क देते हुए कि उसका ऊर्जा आयात आवश्यक है, जबकि पश्चिम का रूस के साथ व्यापार गैर-आवश्यक वस्तुओं में जारी है। 65 बिलियन डॉलर तक पहुँचता रूस-भारत व्यापार, भारत की ऊर्जा सुरक्षा की मजबूरी को दर्शाता है, लेकिन साथ ही यह उसे पश्चिमी प्रतिबंधों की परिधि में भी लाता है। इन बाहरी झटकों ने नई दिल्ली में एक आम सहमति बनाई है: भारत अपनी आर्थिक नियति को पूरी तरह से वैश्विक ताकतों के भरोसे नहीं छोड़ सकता; उसे अपनी आंतरिक शक्तियों का निर्माण करना होगा।
'दुर्ग' का निर्माण व आत्मनिर्भरता के स्तंभ
भारत की प्रतिक्रिया केवल रक्षात्मक नहीं, बल्कि एक सुविचारित, आक्रामक और बहु-आयामी निर्माण की है। इस 'दुर्ग' की नींव भारत के विशाल और बढ़ते हुए घरेलू बाजार पर टिकी है। 2025 तक आधी से अधिक आबादी का 30 वर्ष से कम आयु का होना और सकल घरेलू उत्पाद में निजी उपभोग का 61.4% हिस्सा होना भारत को एक अद्वितीय रणनीतिक गद्दी प्रदान करता है जो वैश्विक मंदी और व्यापार युद्धों के झटकों को सह सकती है। 2030 तक 7.5 करोड़ मध्यम-आय और 2.5 करोड़ संपन्न परिवारों का अनुमान एक ऐसे उपभोक्ता आधार का निर्माण करेगा जो न केवल घरेलू विकास को गति देगा, बल्कि भारतीय कंपनियों को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के लिए आवश्यक पैमाना भी प्रदान करेगा।
इस 'दुर्ग' के निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव  योजना है। यह पारंपरिक सब्सिडी मॉडल से अलग है क्योंकि यह केवल निवेश को प्रोत्साहित नहीं करती, बल्कि उत्पादन और बिक्री को सीधे तौर पर पुरस्कृत करती है। 1.76 ट्रिलियन रुपये का निवेश आकर्षित कर चुकी यह योजना कंपनियों को भारत में न केवल निर्माण करने, बल्कि यहाँ से दुनिया के लिए बेचने के लिए प्रेरित करती है। यह 'मेक इन इंडिया' और 'मेक फॉर द वर्ल्ड' के दर्शन का व्यावहारिक रूप है। यह रणनीति भारत को वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं का एक अभिन्न अंग बनाने का लक्ष्य रखती है, लेकिन एक आयातक के रूप में नहीं, बल्कि एक मूल्य-वर्धित निर्माता के रूप में।
यह रणनीति केवल कुछ औद्योगिक क्षेत्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि जीवन के हर पहलू में आत्मनिर्भरता और क्षमता निर्माण का एक राष्ट्रीय अभियान है। 'ऑपरेशन सिंदूर' जैसे अभियानों में स्वदेशी हथियारों का उपयोग और आतंकवाद के प्रति 'असह्यता' की नीति यह दर्शाती है कि भारत अपनी सुरक्षा के लिए बाहरी निर्भरता को तेजी से कम कर रहा है। ऊर्जा क्षेत्र में, सौर क्षमता में 30 गुना वृद्धि, 10 नए परमाणु रिएक्टर, और गहरे पानी में तेल/गैस की खोज भारत को ऊर्जा आयातक से एक आत्मनिर्भर ऊर्जा शक्ति में बदलने की महत्वाकांक्षा को दर्शाते हैं। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, राष्ट्रीय महत्वपूर्ण खनिज मिशन और छह नई घरेलू सेमीकंडक्टर इकाइयों की स्थापना यह सुनिश्चित करने की दिशा में कदम हैं कि भविष्य की लड़ाइयाँ चिप्स और खनिजों पर लड़ी जाएँ तो भारत कमजोर न पड़े। गगनयान और 300 से अधिक अंतरिक्ष स्टार्टअप भारत की तकनीकी छलांग का प्रतीक हैं। यह दुर्ग केवल कंक्रीट और मशीनों का नहीं, बल्कि लोगों का भी है। डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) के माध्यम से 25 करोड़ लोगों तक सामाजिक सुरक्षा पहुँचाना, 'लखपति दीदी' के माध्यम से महिला उद्यमिता को बढ़ावा देना, और 'विकसित भारत रोजगार योजना' के तहत रोजगार सृजन करना यह सुनिश्चित करता है कि विकास समावेशी हो और देश की मानवीय पूंजी को मजबूत करे।
चुनौतियाँ और आगे का मार्ग
यह महत्वाकांक्षी रणनीति चुनौतियों से रहित नहीं है। 'दुर्ग' की दीवारों के भीतर अभी भी कई कमजोरियाँ हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है। कमजोर बुनियादी ढांचा, जटिल नियामक प्रक्रियाएँ और कुशल श्रमिकों की कमी अभी भी बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण की राह में रोड़े हैं। UPI और JAM ट्रिनिटी जैसी डिजिटल सफलताएँ भारत की नवाचार क्षमता को दर्शाती हैं, लेकिन इस सफलता को जटिल विनिर्माण क्षेत्र में दोहराना नीतियों के सतत और कुशल क्रियान्वयन पर निर्भर करेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आत्मनिर्भरता का अर्थ अलगाववाद नहीं होना चाहिए। भारत को संरक्षणवाद और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के बीच एक नाजुक संतुलन साधना होगा। 'वोकल फॉर लोकल' का नारा वैश्विक गुणवत्ता मानकों और विदेशी निवेश की आवश्यकता को नजरअंदाज नहीं कर सकता।
2047 का महा-रणनीतिक दाँव
भारत की वर्तमान आर्थिक और विदेश नीति एक अल्पकालिक प्रतिक्रिया नहीं है; यह 'विकसित भारत 2047' के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक महा-रणनीतिक दाँव  है। यह एक ऐसी दुनिया की तैयारी है जो कम एकीकृत, अधिक प्रतिस्पर्धी और कहीं अधिक अप्रत्याशित होगी। 'दुर्ग' रणनीति का सार यह है कि एक अस्थिर दुनिया में, सबसे विश्वसनीय सहयोगी आपकी अपनी आंतरिक शक्ति ही होती है। यह रणनीति भारत को एक ऐसी स्थिति में लाने का प्रयास है जहाँ वह वैश्विक तूफानों का सामना कर सके, अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रख सके, और अंततः एक ऐसे बिंदु पर पहुँच सके जहाँ वह वैश्विक नियमों को केवल स्वीकार न करे, बल्कि उन्हें आकार देने में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाए। इस 'दुर्ग' की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि भारत अपनी आंतरिक कमजोरियों को कितनी तेजी से दूर करता है और नवाचार की गति को बनाए रखता है। यदि यह सफल होता है, तो यह न केवल भारत के लिए, बल्कि एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिए एक नया विकास मॉडल प्रस्तुत करेगा—एक ऐसा मॉडल जो राष्ट्रीय हितों को वैश्विक जुड़ाव के साथ संतुलित करता है।


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