क्या पद्मश्री के काबिल हैं कैलाश खेर?

जलज वर्मा

 |  28 Jan 2017 |   107
Culttoday

जोशी-पवार को पद्म विभूषण मिला, तो इन लोगों को मिलना ही चाहिए, क्योंकि ये इनके हकदार हैं. हालांकि पवार को यह पुरस्कार क्यों मिला, इस पर उद्धव ठाकरे ने सवाल उठाये हैं. उनका मानना है कि उन्हें यह पुरस्कार गुरु दक्षिण के रूप में मिला है. लेकिन मैं फिलहाल पवार पर कुछ नहीं कहना चाहता, क्योंकि वे पचास सालों से इस फील्ड में है, तो उन्हें मिल सकता है. हां, मैं पद्मश्री मिलनेवालों पर जरूर कुछ कहना चाहूंगा. पद्मश्री की लिस्ट में बॉलीवुड से अनुराधा पौडवाल, कैलाश खेर और संजीव कपूर शामिल हैं. अब अगर बात करें अनुराधा पौडवाल की, तो उन्हें मेरा मानना यही है कि पद्मश्री बहुत पहले ही दे देना चाहिए था, क्योंकि उनका बॉलीवुड में बहुत बड़ा योगदान रहा है. अनुराधा 1973 से ऐक्टिव हुर्इं. मराठी, हिंदी, बांग्ला और कन्नड़ में वह चालीस सालों से गा रही हैं. आशिकी में वह ‘नजर के सामने’ गीत से पॉपुलर हुर्इं, जो कि 1991 में आई. लेकिन उन्हें 2006 तक इस सम्मान के लिए तरसना पड़ा, जबकि हमारे कैलाश खेर का गीत ‘तेरी दीवानी’ 2006 में आई और लोगों ने खूब पसंद भी किया, लेकिन उन्हें दस साल के अंदर ही सम्मान मिल गया. यह भेदभाव क्यों? संजीव कपूर भी पिछले 20 सालों से सम्मान पाने के लिए दुनिया भर को खाना खिला दिया, लेकिन उन्हें अब जाकर मिला है. चलिए यहां तक तो ठीक है, लेकिन कैलाश खेर को केवल 10 साल में! क्यों उनमें सुर्खाब के पर लगे हुए हैं या फिर उन्होंने कुछ ऐसा कमाल कर दिया, जिसके बारे में आम आदमी को पता नहीं. क्यों दिया गया यदि यह मैं जानना चाहूं, तो क्या जूड़ी के मेम्बरान हमें यह समझा सकते हैं कि क्यों और किस रूप में सम्मानित किया गया. 

आश्चर्य की बात है. घोर आश्चचर्य? शायद यह इसलिए भी ऐसा हुआ होगा, क्योंकि उन्होंने कई पार्टियों के लिए गाया और अनुराधा ने पार्टियों के लिए नहीं गाया था. सवाल यह उठता है कि केवल इक्का-दुक्का गीत गाकर ही वह पॉपुलर हो गये. ऐसा लगता है कि सम्मान के नाम पर रेवड़ियां बांट दी गर्इं. जिस तरह से श्मशान जाने से पहले रेवड़ियां बांटी जाती हैं, ठीक उसी तरह यहां भी रेवड़ियां बांट दी गर्इं. अच्छा चलिए, कुमार शानू से तुलना करते हैं. एक समय था जब शानू एक एक शिफ्ट में 25 गाने रिकॉर्ड करते थे. वह 1990 से गा रहे हैं और उन्हें पद्मश्री का सम्मान हजारों गाने गाने के बाद 2009 में मिला. यानी लगभग 20 साल बाद.

तो सवाल उठेगा न भाई कि कैलाश जी को 10 साल में यह सम्मान क्यों? नेताओं को खुश कर दिया उनकी आवाज ने या फिर पर्दे के पीछे कुछ और बात है. येसुदास को क्यों नहीं मिला. येसुदास को 30 साल के बाद 2002 में पद्म भूषण के सम्मान से सम्मानित जरूर किया गया, लेकिन अरसे बाद. शायद येसुदास को इसलिए भी समय रहते सम्मान नहीं मिला, क्योंकि वह कर्णाटक के सिंगर हैं. थोड़ा भेदभाव तो भाषा के मामले में होता ही रहता है. क्यों सच बोला या झूठ?

आशा भोंसले को 2008 में पद्म विभूषण मिला. लगभग पचास साल लग गये. शायद इसलिए भी लगे, क्योंकि उन्होंने भी किसी पार्टी, या वर्ग विशेष के लिए नहीं गाया. स्वर्गीय मुकेश दर्द भरे गीतों के बादशाह माने जाते हैं, लेकिन वह सम्मान से वंचित रह गये, जबकि आज भी जितने शोज होते हैं, उनकी आवाज कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, चाहे वह विज्ञापन की दुनिया में ही क्यों न हो, सुनाई दे ही जाती है. वाह सरकार वाह. यह कमाल तो ‘कमल’ वाले ही कर सकते हैं. गंदगी में भी आप अगर चढ़ जाएं, तो कमल खिल ही जाएगा.

चौदहवीं का चांद हो, रंग और नूर की बारात किसे पेश करूं, कोई जब राह न पाए मेरे संग आए, चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे आदि गीतों के गायक मोहम्मद रफी आज हमारे बीच नहीं हैं. 26000 गीत वह गा चुके हैं जनाब. 26000 गीत. मजाक नहीं, सच है. गिनीज बुक में रिकॉर्ड है. 

क्या आप जानते हैं कि हिंदी के अलावा असमी, कोंकणी, भोजपुरी, ओड़िया, पंजाबी, बंगाली, मराठी, सिंधी, कन्नड़, गुजराती, तेलुगू, माघी, मैथिली, उर्दू, के साथ साथ इंग्लिश, फारसी, अरबी और डच भाषाओं में भी मोहम्मद रफी ने गीत गाए हैं. 

हिंदी सिनेमा के इतिहास में जब भी गानों का जिक्र होता है तो एक नाम जरूर स्वर्णिम अक्षरों में दिखाई पड़ता है, और वह है मोहम्मद रफी. 29 दिसंबर को रफी साहब जन्मे. एक ऐसा फनकार जिसे आज भी लोग उनके गानों के माध्यम से याद करते हैं. चाहे नीचे के सुर हो या ऊपर वाले गीत, मोहम्मद रफी को हर तरह के गीत गाने में महारथ हासिल थी. 

उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया 1967 में, यानी पच्चीस साल बाद. क्या ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’ कैलाश खेर गाकर दिखा देंगे. क्या कैलाश खेर में सुर, लय, ताल, आरोह और अवरोह का सम्यक ज्ञान है? कैलाश खेर केवल एक ही सुर में गाते हैं. आरोप अवरोह के साथ गाने में उन्हें मैं जहां तक समझता हूं, दिक्कत तो होती ही है. वैसे सुफी गीतों के उस्ताद हैं. यह मानना पड़ेगा.

आइए लता दीदी की बात करते हैं. 1969 में पद्म भूषण और 1999 में पद्म विभूषण मिला. वह सन 1945 से गा रही हैं. उन्होंने तीस से ज्यादा भाषाओं में गाने गाये हैं. उन्हें पद्म भूषण लगभग 25 साल बाद मिला. दुनिया में लता न कभी पैदा हो सकती हैं और न होंगी. लेकिन उनको भी तीस साल लग गये, जबकि  कैलाश खेर को केवल 10 साल. क्या किस्मत पाई है. 

गीता दत्त 1930 में आर्इं. 1946 से गाना शुरू कर दिया. ‘बाबू जी धीरे चलना, प्यार में जरा संभलना’ (विज्ञापन भी बन चुका है), ‘मेरा नाम चिन चिन चू’, ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया’ गाने वाली सिंगर को नहीं मिला कोई सम्मान. एक से बढ़कर एक हिट गीत उन्होंने गाये हैं, लेकिन उनके बारे में जूरी ने कभी नहीं सोचा. दिल्ली या मुंबई से नहीं आई थीं, शायद इसलिए या फिर उन्होंने समझौता नहीं किया. 

मन्ना डे ने 3500 से ज्यादा गीत गाये हैं. इन्हें पद्श्री, पद्म भूषण तो मिला, लेकिन 25 साल इस उधेड़बुन में जूड़ी के मेंबरों को लग गये कि इस बांग्ला भाषी को सम्मान दिया जाए या नहीं. रफी के निधन के बाद जब जूड़ी पर प्रेसर पड़ा, तो इन्हें सम्मान तो मिल गया, लेकिन पद्म विभूषण नहीं मिला. जिंदगी कैसी है पहेली (आनंद), तू प्यार का सागर है (सीमा), लागा चुनरी में दाग आदि गीतों को हम आज भी भुला नहीं सकते. क्या कैलाश खेर लागा चुनरी में दाग, छुपाऊं कैसे गाकर दिखा सकते हैं?

आइए बात करते हैं हेमंत कुमार की. संगीतकार गायक, फिल्म निर्माता. रवींद्र संगीत के अग्रगण्य गायक हैं हेमंत दा. बांग्ला, हिंदी, मराठी में उन्होंने असंख्य गीत गाये हैं. जाने वे कैसे लोग थे जिनको प्यार से प्यार मिला, इस गीत के लिए उन्हें नेशनल अवार्ड तो मिला, लेकिन उन्हें परखने में भी लगता है जूड़ी से चूक हो गई. शायद यह भी वजह रही हो कि वह बांग्ला भाषी थे. गैर हिंदी भाषियों को पुरस्कृत करना जरा जोखिम भरा काम है और यह जोखिम सरकार मोल लेना नहीं चाहती थी, शायद इसलिए भी वह सम्यक सम्मान से सम्मानित नहीं हो सके.

तलत महमूद को भूल ही गये. गजल की दुनिया में उन्हें शहंशाह-ए-गजल कहा जाता है. 1924 में जन्मे तलत साहब 1998 तक जीवित रहे. इस दौरान उन्होंने असंख्य गीत और गजलों से कभी हमारे दुखी मन को शांत किया, तो कभी अशांत मन को तरोताजा कर दिया. इतना ना न मुझसे प्यार बढ़ा, जलते हैं जिनके लिए, तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती, जाएं तो जाएं कहां आदि गीतों से हमें कभी रुलाया, तो कभी हमारे अंदर जीने की तमन्ना जगा दी. उन्हें कभी किसी ने सम्मान देने की बात ही नहीं सोची. इसीलिए शायद वे यह गाते हुए चले गये कि ऐ मेरे दिल कहीं और चल, गम की दुनिया से दिल भर गया, ढूंढ ले तू कोई और जहां ...

महेंद्र कपूर की बात ही निराली है. उन्होंने कम गाने जरूर गाये हैं, लेकिन जो भी गाये, वे आज भी याद किये जाते हैं. ऐ नीले गगन के तले, चलो एक बार फिर से, मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती, रामचंद्र कह गये सिया से आदि. उनके गाये सभी गीतों में एक पैगाम है, प्यार है, देश के लिए मर मिटने का जज्बा और जुनून है. उन्हें 1972 में पद्मश्री जरूर मिला, लेकिन उसके बाद 2008 तक कुछ भी नहीं मिला. बता दें कि इन्होंने भी किसी पार्टी के लिए कभी गाने नहीं गाये. शायद यही इनकी कमजोरी रही. मतलब यह कि इन्हें भी लगभग 20 साल लग गये पद्मश्री सम्मान मिलने में. 

आइए गायिका सुरैया की बात भी कर लें. 1990 में जन्मी सुरैया 2008 तक जीवित रहीं. अनगिनत गाने गाये. लोगों ने खूब पसंद किया. दिल ए नादां तुझे हुआ क्या है, यह कैसी अजब दास्तां है आदि गाकर वह भी चली गर्इं. किसी ने नहीं पूछा, क्योंकि वह अपनी मार्केटिंग नहीं कर पार्इं. मार्केटिंग का जमाना है, वह समझ नहीं पार्इं. नासमझ थीं, केवल गाती रहीं.

थोड़ा नूरजहां के बारे में भी जानें. 1904 में जन्मी नूरजहां 1947 तक जीवित रहीं. 1935 से 1961 तक वह लगातार गाती रहीं. लता से पहले वह आर्इं, लेकिन लता ने इन्हें पचास के दशक में पीछे छोड़ दिया. हालांकि इनके गाये गीत आवाज दे कहां है, शाम ए गम की कसम आज भी याद आते हैं. 

सबसे बाद में आपको के एल सैगल के बारे में बताते हैं. 1904 में आए और हमें 1947 में छोड़ कर चले गये. इस दौरान उनकी तूती बोलती थी. रफी से पहले के एल सैगल की आवाज चारों ओर गूंजती थी. कहते हैं कि सैगल साहब के बिना एक बार नौशाद साहब ने संगीत देने से मना कर दिया था. जब उन्होंने एक महफिल में यह गीत गाया --- जब दिल ही टूट गया, तो जी कर क्या करेंगे, तो उस हॉल में आये सभी श्रोता उठकर खड़े हो गये. और इस गीत पर सैगल साहब को सैलूट किया. मैं क्या जानूं, क्या जादू है जब वह गाते थे, तो चारों ओर से वाह वाह की ध्वनि फूट पड़ती थी. एक गाना उनका और हिट हुआ था -- दो नैना मतवारे, निहारे, हम पर जुल्म करे. 

विवेकानंद ने अपने शिष्यों से कहा था कि जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो. उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो. इसीलिए मैं सच लिखने का साहस कर रहा हूं. विवेकानंद को मानता हूं, इसीलिए यहां थोड़ा साहब जुटा ही लिया. दरअसल, हमें कोई व्यक्ति या सरकार कितना ही महान क्यों न हो, उसके पीछे पीछे आंखें मूंद कर नहीं चलना चाहिए. हमें बचपन से यही सिखाया जाता है कि किसी की निंदा ना करें, लेकिन यहां हम सरकार की निंदा कर रहे हैं. गलत है, जानता हूं, लेकिन क्या करूं, आदत से मजबूर हूं. वैसे, यह निंदा नहीं, आलोचना कर रहे हैं. जरा नासमझ हूं, संगीत का ज्ञान हमें नहीं है, सुर, लय ताल का ज्ञान हमें नहीं है. बस हम थोड़ा बहुत लिख पढ़ लेते हैं. कृपया हमें बताएं कि किस आधार पर कैलाश खेर को यह सम्मान मिला. बस हम इतना ही जानना चाहते हैं. याद रखें, सत्य को यदि हम हजार तरीकों से भी बताएं, तो भी वह सत्य ही होगा. 

(लेखक दैनिक ‘राष्ट्रीय उजाला’ के कार्यकारी संपादक है, उपरोक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक  के हैं, इससे कल्ट करंट का सहमत होना आवश्यक नहीं है)


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