व्यावहारिक शिक्षा शास्त्र के जनक महामना मदनमोहन मालवीय

जलज वर्मा

 |   03 Feb 2017 |   8
Culttoday

अध्यात्म-शिक्षा-संस्कृति-साहित्य-पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में महामना मदनमोहन मालवीय जी का सम्पूर्ण योगदान सराहनीय रहा है. यही कारण है कि इलाहाबाद में जहां तक भी हमारी दृष्टि जाती है, मालवीय जी की पगचाप कानों में गूंजने लगती है.

  25 दिसम्बर, 1861 को इलाहाबाद के अहियापुर में गौड़-परिवार में जन्म लेनेवाले मालवीय जी की वास्तविक कर्मभूमि इलाहाबाद ही रही है. धर्म-परायणा मातु-श्री मूना देवी और संस्कृत-विद्-कर्मकाण्डी ब्राह्मण पण्डित ब्रजनाथ व्यास के इस सुयोग्य पुत्र ने अपनी आरम्भिक शिक्षा घर से ही ग्रहण की थी. कुछ समय के बाद उन्होंने घर के ही समीप स्थित ‘श्रीमद्अक्षर पाठशाला’ से अध्ययन करने के पश्चात् यहीं के एक अॅंगरेज़ी स्कूल में प्रवेश किया था. चूंकि उनकी रग-रग में भारतीय संस्कृति-परम्परा तथा जीवन-मूल्य के अवयव प्रचुर मात्रा में सम्पूरित थे अतः अॅंगरेज़ियत का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सका था.

   देश की परतन्त्र दशा को देखकर उनके मन में बराबर एक संघर्ष चला आ रहा था. वे अपनी जन्मभूमि को स्वतन्त्र देखने के लिए व्याकुल थे. पहला विचार दूसरे विचार से संघर्षण कर रहा था किन्तु कोई भी विचार पूर्ण आकार नहीं ले पा रहा था. इसके लिए उन्हें एक मंच की आवश्यकता थी; प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने अपने कुछ सहयोगियों के साथ मिलकर ‘वाग्वर्द्धिनी सभा’ का गठन किया था.

    शिक्षा के महत्त्व को समझते हुए उन्होंने उच्चशिक्षा की ओर अपने क़दम बढ़ाये. ‘म्योर सेण्ट्ल कालेज’, इलाहाबाद से 1884 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् आर्थिक दुरव्यस्था के कारण उनकी शिक्षा की गति ठहर गयी थी. आजीविका की व्यवस्था को प्राथमिकता देते हुए, 1885 में वे गवर्मेंट स्कूल में अध्यापन का दायित्व-निर्वहन करने लगे.

मालवीय जी का क्रान्तिकारी विचार परिपक्व हो चुका था; परिणामतः वे परतन्त्रता के विरोध में आ खड़े हुए. यही कारण था कि मात्र 25 वर्ष की अवस्था में वे 1886 में कलकत्ता में आयोजित ‘कांग्रेस अधिवेशन’ में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में पहली बार देश के राजनेताओं को सम्बोधित किया था. एक मुखर वक्ता होने के कारण सहयोगियों के परामर्श पर उन्होंने कलकत्ता से विधि की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् इलाहाबाद के ज़िला न्यायालय में उन्होंने अभिभाषक के रूप में कार्य आरम्भ कर दिया था.

   शिक्षा-साहित्य-पत्रकारिता उनके प्रिय विषय थे. वे एक अच्छे कवि भी थे. तब वे ‘मकरन्द’ उपनाम से कविता की रचना करते थे. उन्हीं दिनों उन्होंने ‘राधिका रानी’ शीर्षक का एक गीत भारतेन्दु हरिश्चन्द के पास प्रकाशनार्थ भेजी थी. उनकी काव्यकला से प्रभावित होकर भारतेन्दु जी ने उसका सपरिचय प्रकाशन किया था. उस रचना की कुछ पंक्तियां देखें:--

‘‘इन्दु सुधा बरस्यो नलिनीन पै,

वे न बिना रबि के हरखानी.

त्यें रबि तेज दिखयो तउ बिन,

इन्दु कुमोदिनी ना बिकसानी.’’

  अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को गति देने के लिए इलाहाबाद में ही उन्होंने ‘लिटरेरी इंस्टिट्यूट’ का गठन किया था. 1885 में उन्होंने यहीं से ‘इण्डिया युनियन’ नामक अॅंगरेज़ी साप्ताहिक का प्रकाशन किया था तथा 1889 में एक अॅंगरेज़ी दैनिक समाचारपत्र ‘इण्डियन ओपिनियन’ से भी सम्बद्ध हुए थे. वे देवनागरी को उन्नत अवस्था में देखना चाहते थे; फलतः उन्होंने हिन्दी-साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ का प्रकाशन किया था, जिसका मूल उद्देश्य था, ‘भारत के लिए स्वराज’. इस समाचारपत्र के माध्यम से उन्होंने देश के सामान्य नागरिक तक अपने क्रान्तिकारी विचारों का सम्प्रेषण किया था. इस समाचारपत्र की लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इससे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं0 प्रतापनारायण मिश्र, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, अयोध्या प्रसाद सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ आदि साहित्यिक हस्ताक्षर इस पत्रिका से जुड़े थे. इसी अंक में उन्होंने ‘भगत सिंह’ और ‘सुभाषचन्द्र बोस’ नामक अति विप्लवी अंक प्रकाशित कर, अॅंगरेज़ों को खुली चुनौती दी थी. प्रतिक्रियास्वरूप अॅंगरेज़ी हुक़ूमत ने दोनों अंकों को ज़ब्त कर लिया था. 1900 में ‘हिन्दुस्तान रिव्यू’, 1903 में ‘इण्डियन पीपुल्स’ और 1909 में उन्होंने यहीं से ‘दी लीडर’ समाचारपत्र का प्रकाशन किया था. उसी समय पत्रकारों के लिए ‘न्यूजपेपर्स लिमिटेड’ नामक एक संस्था का गठन किया था. 1910 में यशस्वी मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘मर्यादा’ का प्रकाशन किया था.

  इलाहाबाद में कई शैक्षिक-सामाजिक संस्थानों की स्थापना करने-कराने का श्रेय महामना को जाता है. 1884 में ‘हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि-सभा’, जो आगे चलकर 1893 में ‘काशी नागरी प्रचारिणी-सभा’ के नाम से प्रसिद्ध हुई है. 1904 में ‘गौरी पाठशाला’ की स्थापना, ‘हिन्दू बोर्डिंग हाउस’ वर्तमान में ‘हिन्दू छात्रावास’, ‘अखिल भारतीय सेवा समिति’, ‘सेवा समिति विद्या मन्दिर’, ‘गंगानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ’ आदि सम्मिनित हैं.

  अन्ततः इलाहाबाद के गौरव, इस महामानव ने 12 नवम्बर, 1964 को काशी में अपना शरीर-त्याग किया.देश के शीर्षस्थ नागरिक अलंकरण ‘भारतरत्न’ से मृत्युपरान्त समलंकृत करने की घोषणा पर इलाहाबाद विशेष रूप में गर्व करता है.   

(लेखक भाषाविद, मीडिया अध्ययन के विशेषज्ञ हैं.)


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