आठवीं अनुसूची में भाषाओं को शामिल करने का वाकया जब पूर्व शिक्षामंत्री डॉ. कर्ण सिंह के समक्ष आया तो उन्होंने कहा कि संविधान में आठवीं अनुसूची होनी ही नही चाहिए. इससे खामखा बखेड़ा खड़ा होता है. उन्होंने देश की सारी भाषाओं को वही अधिकार देने की बात कही जो किसी एक भाषा को प्राप्त है. डॉ केदारनाथ सिंह के हवाले से एक जानकारी मिली कि एक छोटी सी भाषा जारवा, जिसे कुछ सौ लोग बोल रहे हैं, आज पूर्णतया समाप्त होने के कगार पर है. यह अत्यंत दुर्भाग्पूर्ण स्थिति है क्योंकि हम अभी भी यह तय नही कर पा रहे हैं कि किस भाषा को सबसे ज्यादा संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता है? उसे जो कमजोर है, मरणासन्न है जो ज़िंदा रहने और अपने को बचाने की जद्दोजहद में है या उसे जो पक्षपाती सरकारी अनुदानों के खाद पानी की बदौलत अमरबेल की तरह छायी है और अनावश्यक स्थान घेर रही है.
भाषाई मुद्दे पर पूर्व सरकारें कितनी उदासीन और लचर रही हैं यह इस बात से साबित होता है कि 1950 में बोलियों को अनुसूची में मान्यता देने के लिए कोई मापदण्ड तय नही किया था. इस अनुसूची 13 भाषाओं, असमिया,बांग्ला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मराठी, मलयालम, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलुगु को रखने पर आम सहमति बनी तो पंडित जवाहरलाल नेहरु ने इसमें उर्दू को और जोड़ने को कहा और उसका आधार स्वयं को उर्दूभाषी के रूप में दिया इस तरह जाने अनजाने में वह हिन्दी और उर्दू के बीच अलगौझे को संस्थात्मक रूप दे बैठे . अब यह अलगौझा विस्तृत आकार ले चुका है. सरकार को इस समस्या का फौरी समाधान भाषाई दबाव समूहों की बात मानने में मिला और इस हेतु वर्ष 2003 में आठवीं अनुसूची के अंतर्गत बोली भाषा उपभाषा विभाषा इत्यादि को शामिल करने के लिए करने के लिए डॉ. सीताकांत महापात्रा समिति का गठन किया. इस समिति की संस्तुतियों को अंतर मंत्रालयी समिति को विचारणार्थ भेजा जाता है जो आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने हेतु प्रस्तावित भाषाओं के विकास एवं प्रयोग पर अध्ययन करके एक प्रतिवेदन सरकार को देती है. उसके बाद ही ये बोलियाँ, भाषायें , उपभाषाएँ, विभाषायें आठवीं अनुसूची में शामिल की जा सकती हैं. वर्तमान में भारत सरकार के पास इस संदर्भ में भोजपुरी , छत्तीसगढ़ी, भोटी , लेप्चा , लिम्बू , कोड़व और टुलु, मिजो, राजस्थानी, टेंयीडी, भोटी समेत आठ आवेदन समीक्षा के लिए सरकार के पास पड़ें हैं . किन्तु यह एक सैद्धांतिक बात थी परदे के पीछे की बात कुछ अलहदा रहे जिसके निहितार्थ भाषा के व्याकरण उसके सौष्ठव के मापदंडों से कहीं अलग थे.
भारत की जनगणना के अनुसार हिन्दी के अन्तर्गत 49 भाषा-बोलियां आती हैं. वर्तमान में जो हालात बन रहे हैं उनको देखकर लगता है कि आठवी अनुसूची को भोजपुरी राजस्थानी और भोटी भाषाएं मिलने जा रही हैं किन्तु इस मान्यता के साथ ही एक बड़ा आन्दोलन भी फूटने के कगार पर है अवधी, बुंदेली को भी इस अनुसूची में शामिल करने की मांग धीरे धीरे जोर पकड रही है. बिहार में उमेश राय ने मैथिली और भोजपुरी के साथ-साथ बिहार की बज्जिका, अंगिका, और मघई को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की है. छत्तीसगढ़ी के लिए भी ऐसी ही मांग की जा रही है. यह कहना कठिन नहीं कि ऐसी ही मांग कन्नौजी, ब्रज, पहाड़ी, गढ़वाली, कुम़ांऊनी तथा हरियाणवी भाषा भाषी अथवा उनके रहनुमाओं के मन में पल रही होगी. चुनावी राजनीति को देखते हुए तमाम भाषाई दबाव समूह भाषागत मुद्दे को लेकर सरकार से सौदेबाजी करेगे यह तय है और सरकार को कोई न कोई आश्वासन भी देना पडेगा साथ ही अमल भी करना पडेगा किन्तु असली सवाल तो तब भी यही है कि जारवा जैसी भाषाओं के जिनके कुछ सौ वोट हैं लेकिन जिनकी भाषा संस्कृति हजारों हजार साल पुरानी है उनके लिए सरकार क्या करेगी?
तुष्टिकरण किसी समस्या का समाधान नही वरन अपने आप में ही समस्याओं का बड़ा स्रोत है . कल्याणकारी राज्य की अवधारणा तुष्टिकरण में नही बल्कि समष्टिकरण में निहित है. भोजपुरी भाषा या किसी भी क्षेत्रीय भाषा को अनुसूची में शामिल करने को लेकर चले आन्दोलन को मुकाम तक पहुँचते देख तमाम भाषाविदों की ओर से हिन्दी को बांटने और कमजोर करने के दिए गये तर्क अप्रासंगिक और आधारहीन हैं. निश्चित रूप से इस आन्दोलन से अन्य बोली भाषाओं को एक नई ऊर्जा मिलेगी जैसा कि मैंने पहले भी कहा पर रूपये और वोट से भाषाओं में समृद्धता आएगी यह एक अस्वीकार्य तथ्य है. आज सबसे ज्यादा आवश्यकता जिस बात की है वह यह है कि आठवीं अनुसूची के विशेषाधिकार को समाप्त कर सभी बोली भाषाओं के लिए “एक समान भाषा नीति” का निर्माण हो और उनकी जरूरत के हिसाब से सुविधाएं मुहैया करवाई जाएँ चाहे उस भाषा को एक व्यक्ति बोल रहा हो या एक करोड़. प्रजातांत्रिक व्यवस्था न्यायपूर्ण और समान वितरण के आधार पर निर्मित होता है. अगर सरकार को लगे कि किसी बोली भाषा को बचाने के लिए अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए तो उसके लिए भाषाई आरक्षण की व्यवस्था भी सुनिश्चित कि जानी चाहिए. लेकिन इस आरक्षण का आधार तार्किक और तात्कालिक हो.
हिन्दी को केन्द्रीय भाषा के रूप दर्जा अधिकार दिया जाए ताकि पूरे देश में हिन्दी को राजकाज की भाषा, न्याय की भाषा, व्यापार, रोजगार और शिक्षा की भाषा के रूप में लिखा पढ़ा जाए साथ ही साथ क्षेत्रीय भाषाओं को अधिकार मिले ताकि उनको विस्तृत आकार लेने का आकाश उपलब्ध हो. इससे हिन्दी को और भी विस्तार मिलेगा. भारत की सभी लिखित परीक्षाओं एवं साक्षात्कार में अंग्रेजी की वरीयता ख़त्म हो एवं देश में हिन्दी तथा क्षेत्रीय भाषाओं के लिये समुचित रोजगार व्यवस्था विद्यार्थियों के लिए सुनिश्चित किया जाय I अब वक्त आ गया है कि सरकार इस संदर्भ कुछ ठोस कदम उठाये नही तो देश भाषाई आधार पर एक और त्रासदी के मुहाने पर खडा है.
(लेखक आई पी विश्वविद्यालय से जुड़े एक महाविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)