सच तो यह है कि आज समाज को मीडिया-तन्त्र जिस शैली में अपनी प्रभाव-परिधि में ले चुका है, उससे वह अब लोकतन्त्र के कथित चतुर्थ स्तम्भ से आगे छलांग लगाते हुए शीर्ष पर पहुंच चुका है; अर्थात् वह व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की सम्बन्धित भूमिका का भी अतिक्रमण कर चुका है. मीडिया-तन्त्र-द्वारा जैसे ही कोई समाचार ‘विचार’ का विग्रह धारण करने लगता है वैसे ही उसकी भूमिका संदिग्ध लक्षित होने लगती है. अपने सामाचारिक कर्म के अन्तर्गत किसी भी मीडियाकर्मी को समाचार के अन्तर्गत वैचारिक प्रस्तुति की अनुमति नहीं है किन्तु जो व्यक्ति अथवा सम्बन्धित संस्था के लोग समाचारपत्र-पत्रिकाएं, टीवी चैनल की आड़ में निहित स्वार्थ की पूर्ति करने में आकण्ठ निमग्न हैं, उन्हें इस बात की कहीं-कोई चिन्ता नहीं है कि उनका मीडिया-प्रतिष्ठान भाषा, तथ्य, कथ्य आदि के प्रति प्रस्तुति के स्तर पर कितना जागरूक है. उनकी चिन्ता मात्र यह कि ‘बाज़ारवाद‘ और ‘टीआरपी’ (टेलीविज़न रेटिंग पांइण्ट) बढ़ाने के प्रति उनका तन्त्र क्या-क्या उपक्रम कर रहा है, भले ही इस हेतु उन्हें अपने स्तर को हीन से हीनतर क्यों न करना पड़े. यही कारण है कि ‘प्रिण्ट मीडिया’ और ‘इलेक्ट्रानिक मीडिया’ हाथी की चाल चलता जा रहा है. वह गैंडे की खाल की तरह स्वयं को इतना लद्धड़ कर चुका है कि उस पर कहीं किसी का प्रभाव दृष्टिगोचर होता नहीं दिख रहा है. हां, कुछ ऐसे मीडियाकर्मी हैं, जो कुछ सार्थक और सकारात्मक चिन्तनशीलता के प्रति आग्रहशील हैं किन्तु उनपर बाज़ारवाद का इतना अधिक प्रभाव और दबाव रहता है कि उनकी रचनाशील प्रवृत्ति एक जीवित शव की भांति एक कोने में धकेल दी जाती है और वे बाध्य हो जाते हैं, बाज़ारवाद का पोषण करने के लिए. यही कारण है कि आज देश का सम्पादक गर्व के साथ कहने के लिए स्वयं को तत्पर कर चुका है-- मैं मालिक की नौकरी कर रहा हूं. फिर निरीहता के साथ इस सत्य को भी स्वीकार करता है- मैं यदि इसका विरोध करूंगा तो मुझे धक्के मारकर निकाल बाहर कर दिया जाएगा और मेरे स्थान पर जो कोई भी दूसरा व्यक्ति आयेगा, वह सब कुछ करेगा, जो प्रबन्धन-तन्त्र चाहता है, इसीलिए मैं अपने स्वामी के टुकड़े पर पलनेवाला दुम हिलाता वफ़ादार कुत्ता हूं.
सच, कितनी दुरवस्था और शोचनीय दशा है, मीडिया-प्रतिष्ठान में अपनी असंगत-संगत भूमिका के निर्वहन करनेवाले सम्पादक-समूह की! ऐसे लोगों की लाचारगी और बेचारगी का दण्ड पा रही है, हमारी प्रियातिप्रिय भाषा ‘हिन्दी’. मुझे दो-टूक विचार व्यक्त करने में सुगमता होती है और यह मुझे प्रिय है. अपनी उसी प्रियता को रेखांकित करते हुए, मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि हमारी हिन्दी के साथ सर्वाधिकार व्यभिचार और बल-प्रयोग यदि किसी ने किया है तो वह है, ‘मीडिया-तन्त्र’. वह चाहे समाचार-स्तर पर हो, संवाद-स्तर पर हो, विचार-स्तर पर हो, धारावाहिकों के स्तर पर हो, ‘लाफ्टर’ कार्यक्रम के स्तर पर हो अथवा समस्तरीय कोई कार्यक्रम हो तथा किसी भी क्रिया-प्रतिक्रिया के स्तर पर हो, हिन्दी-भाषा का बार-बार तिरस्कार किया जाता रहा है; उसकी गरिमा, पवित्रता, शुचिता को भंग करते हुए उसका मान-मर्दन बार-बार किया जाता रहा है और पराजित किया जाता रहा है और एक बड़ा वर्ग अपने गले में ‘विशुद्ध और कट्टर हिन्दी-प्रेमी’ होने का परिचय-पत्र लटकाये हुए मूक दर्शक के रूप में ‘हिन्दी के चीर-हरण का ‘साक्षी’ बनता आ रहा है. यह क्लीव-मानसिकता कैसे समाप्त होगी और एक नवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा का उदय कैसे होगा?-- ये ज्वलन्त प्रश्न हैं, जिनके उत्तर पाने के लिए नितान्त उन्मुक्त किन्तु क्रान्तिकारी विचारों की सकारात्मक उठा-पटक करने की समय-सत्य आवश्यकता है.
एक समय था, जब प्रायः प्रत्येक दैनिक समाचारपत्र में प्रत्येक रविवार को एक साप्ताहिक परिशिष्ट प्रकाशित होता था, जिसका उद्देश्य साहित्य के माध्यम से हिन्दी-भाषा का उसकी शुचिता के साथ विस्तार करना होता था और समृद्ध करना भी. उनमें गम्भीर साहित्य के साथ ‘बाल-साहित्य’ का भी संयोजन होता था. शनैः-शनैः की प्रक्रिया के अन्तर्गत वह सारा साहित्य अपने निर्धारित परिदृश्य से अन्तर्हित होता रहा. संक्रमण की ऐेसी अवस्था में एक वर्ग तो चिन्ता प्रकट करता रहा किन्तु वह चिन्ता मात्र ‘चिन्ता’ तक सीमित रह गयी थी. ऐसा इसलिए भी कि उसमें ‘मनसा-वाचा-कर्मणा‘ सामंजस्य का अभाव रहा. यही कारण है कि आज साहित्य के नाम पर सर्वत्र ‘राहित्य’ ही दृष्टिगोचर हो रहा है और इच्छाशक्ति में शिथिलता और प्रमत्तता के कारण उस तथाकथित वर्ग ने उस राहित्य-प्राबल्य के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया है.
हिंग्लिश के नाम पर जो कौतुक-क्रीड़ा किया जा रहा है, उसका विस्तार करने में सर्वाधिक कुत्सित, कुण्ठित-लुण्ठित भूमिका तथाकथित मीडिया-तन्त्र का है. सत्य तो यह है कि हिन्दी-भाषा की कठिनाइयों से बचने के लिए ‘हिंग्लिश’ नामक ‘शिखण्डी’ को पुरूषों और लम्पट पत्रकारों ने ला खड़ा किया है. यही नहीं, ऐसे पत्रकारों को समाचार के सन्दर्भ में भाषा की ज़रा भी समझ नहीं है. यदि ऐसा नहीं होता तो वह तथाकथित तन्त्र ‘‘आरोपी पकड़े गये’’, ‘‘अब समाचार विस्तार से’’, ‘‘रवीन्द्रनाथ टैगोर की जयंती मनी‘‘, ‘‘हिंदी दिवस मना’’, ‘‘खर्चे गये-खर्चाये गये’’, ‘‘धरे गये-धराये गये’’, ‘‘हत्या के आरोपी जेल भेजे गये.’’ ‘‘सुप्रीम कोर्ट ने लिया डीसीजन’’, ‘‘पीएम फारेन टूर पर’’, ‘‘एसपी ने चुनाव आयोग से की बीजेपी की शिकायत’’, ‘‘भारी मात्रा में थे वहां लोग’’, ‘‘कंजिका का प्रेसीडेंट एवार्ड को चयन’’, ‘‘भारी मतों से बहुमत देकर बनाया गया विजयी’’, ‘‘रंग-बिरंगा त्योहार’’, ‘‘चार मंज़िला बिल्डिंग गिरा’’, ‘‘सरकार ने ऐलान किया’’, ‘‘10 साल की युवती के साथ एक व्यक्ति ने गैंग रेप किया’’, ‘‘मुख्य अतिथि ने दीप प्रज्जवलित की’’, ‘‘कैदी ने बंदी को मार गिराया’’, ‘‘मृतक को मुआवजा दिया गया’’, ‘‘पांच मंज़िला इमारत गिरा’’, ‘‘दो मंज़िली इमारत हुई ध्वस्त’’, ‘‘निठारी में नर-कंकाल पाये गये’’, ‘‘विपक्षियों ने सरकार के फैसले का खिलाफत करने का किया फैसला’’ आदि गर्हित-संदूषित भाषा का प्रयोग नहीं करता.
प्रसार भारती (आकाशवाणी-दूरदर्शन)-द्वारा प्रसारित अधिकतर कार्यक्रमों के अन्तर्गत भाषा-स्तर पर जितना स्खलन है, उस पर विचार करने के लिए किसी के पास अवकाश तक नहीं है. आपका हिन्दी-संज्ञान उच्च कोटि का है तो आप लगातार एक माह तक प्रसार भारती के कार्यक्रमों को सुनना और देखना आरम्भ कर दें और उसी समय सारी विसंगतियों को लिपिबद्ध करते जाएं फिर आप पायेंगे कि महानिदेशक, निदेशक, निर्माता-निर्देशक-वाचक-उद्घोषक, कार्यक्रम-अधिकारी/ अधिशाषी/ निष्पादक आदि हिन्दी-भाषा के स्तर पर कितनी रूग्ण मानसिकतावाले-वालियां हैं. आकाशवाणी के प्रमुख चैनल और अन्य सारे चैनलों की उद्घोषक-उद्घोषिकाएं बोलती हैं-- अब आप अमुक फ़िल्म का ‘गाना’ सुनेंगे. यहां जिस रूप में ‘गाना’ शब्द का प्रयोग किया गया है, वह पूर्णतः अशुद्ध है, शुद्ध शब्द है, ‘गीत’. गीत सुना जाता है, गाना नहीं. समाचार-वाचक समाचार पढ़ता है, ‘‘सरकार ने हस्ताक्षेप करने से इंकार किया.’’ शुद्ध शब्द ‘हस्तक्षेप’ है. ‘रेडियो मिर्ची’, ‘एफ0एम0 चैनल’, ‘‘बजाते रहो’’ जैसे प्रदूषित ‘सिग्नेचर वाक्य’ सुनकर रक्त उबलने लगता है और उसके प्रति मन में वितृष्णा भर उठती है.
वास्तव में, आज विश्व में जिन तीन बातों को लेकर संघर्षण हो रहा है, वे हैं-- रूप-रूपया-रूतबा. मानो ये तीनों समस्याएं ही विश्व में समस्त राष्ट्रों के समक्ष हों. इस प्रतिस्पर्धा में भारत अभी कुछ पीछे है. भारत आरम्भ से ही एक आध्यात्मिक देश रहा है. उसने ‘रोटी‘ और ‘काम‘ की समस्या को बाद में, ‘धर्म’ और ‘संस्कृति’ को प्रथमतः अंगीकार किया है. प्राचीनकाल से चली आ रही आदर्श परम्पराओं को रूढ़िवादी और आडम्बर-युक्त कहकर अनेक चित्रों में उन पर प्रबल प्रहार किया जाता है और ये सब होता है, ‘कला’ के नाम पर’. प्रत्येक चित्रपट पर भौतिक और दैहिक सौन्दर्य का चतुर्मुखी स्पष्टीकरण किया जाता है. आज का कलाकार इसी के दिग्दर्शन में व्यस्त है.
सिनेमा-उद्योग ने हमारे देश की करोड़ों किशोर-किशोरियों, युवक-युवतियों के मनो-मस्तिष्क में अपना स्थान बना लिया है और उनकी रूचियों को किस प्रकार प्रभावित कर लिया है, इसका ज्ञान तब होता है जब हम आज-कल के सिनेमा के लिए लिखे गये संवादों और गीतों को सुनते हैं. द्विअर्थी गीत हमारी हिन्दी-भाषा को कलंकित करते हैं. सिनेमा के नाम भी हिन्दी के साथ एक क्रूर उपहास है. कुछ नामों को समझें-- ‘जब वी मेट’, ‘नशीली जवानी’, ‘मेरी प्यास बुझा दो’, ‘आओ! प्यार करें’, ‘तू नीचे मैं उपर’ आदि-आदि. एक सिनेमा के इन संवादों-प्रतिसंवादों को समझिए-- नायक के सामने बैठी नायिका चाय पी रही है. तभी नायक बोल पड़ता है, ‘‘जी करता है, पूरा-का-पूरा तुम्हारे में डाल दूं.’’ नायिका चाय की चुस्की लेते हुए बोली, ‘‘तो डाल दो न, मुझे उसकी भी आदत है.’’ फिर नायक बोला, ‘‘तो डाल दूं फिर कुछ हुआ तो शिकायत मत करना.’’ डाल दो अभी गरम है, अगर ठण्डा गयी तो मज़ा नहीं आयेगा.’’ अब इन संवादों-प्रतिसंवादों को जो कोई भी सुनेगा, वह कामपरक आचरण के सन्दर्भ में इन सारी बातों को ग्रहण करेगा, जबकि सन्दर्भ कुछ और ही है. वास्तव में, नायिका अपनी चाय में चीनी का बिलकुल प्रयोग नहीं करती थी. नायक अपनी नायिका को चिढ़ाने के उद्देश्य से उसकी चाय में चीनी डालने की बात करता है. ऐसी हिन्दी की गुणधर्मिता को विकृत करना स्वयमेव क्या सन्देश देता है, यह विचारणीय है. फ़िल्मों के अब गीत भी अपने शब्द, अर्थ, सन्दर्भ तथा सौन्दर्य खोते जा रहे हैं. ‘‘चोली के पीछे क्या है’’, ‘‘सरकाई ल्यो खटिया जाड़ा लगे.’’-- इस प्रकार के गीत क्या सन्देश दे रहे हैं. वहीं ‘‘वो बसन्ती पवन पागल न जा रे न जा रोको कोई’’, ‘‘वो सजना् बरखा बहार आयी’’, ‘‘घुंधरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं’’, ‘‘मिलती है ज़िन्दगी में मुहब्बत कभी-कभी’’ आदि-आदि के उत्कृष्ट सौन्दर्यबोध और श्रृंगारप्रियता को भी समझें.
फ़िल्मों के नाम पर देश की लोक-संस्कृति पर जिस शैली में प्रहार किया जा रहा है, वह पूर्णतः आपत्तिजनक है. इस परिप्रेक्ष्य में भोजपुरी फ़िल्मों के कथानक, संवाद, गीतों तथा दृश्यों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की अब अति आवश्यकता है. भोजपुरी गीतों में अश्लीलता का वर्णन जिस रूप में किया जा रहा है, वह असह्यनीय होता जा रहा है.
आयातित शब्दो को हिन्दी का चोला पहना कर रख देना, कला को विकृत कर देना है. हिन्दी के सुपात्र लघुकथाकारों, कहानीकारों तथा उपन्यासकारों से कथानक और संवाद तैयार कराने की आवश्यकता है. फणीश्वरनाथ रेणु की औपन्यासिक कृति ‘मैला आंचल’ पर आधारित ‘तीसरी क़सम’, मुंशी प्रेमचन्द की कृति पर आधारित ‘शतरंज’ के खिलाड़ी’; अन्य साहित्यकारों की ‘एक चादर मैली सी’ आदि कई ऐसी फ़िल्में हैं, जिनसे हमारी हिन्दी समृद्ध हुई है. इसके लिए उन्हें कहानी की सामग्री तैयार करने की पूर्ण सुविधा देनी होगी. कलात्मक पक्ष की विशेष बातें, चाहे वे बाहर से लें परन्तु उन्हें सनातन संस्कृति का ध्यान करके चलना होगा तभी राष्ट्रीय चित्रपट का निर्माण हो सकेगा. सभी सिने-निर्माता एक ही लीक पर फ़िल्मों का निर्माण न करें. सामान्य जनता और विद्यार्थियों के लिए शिक्षा-सम्बन्धी, ऐतिहासिक, भौगोलिक, वैज्ञानिक आदिक फ़िल्मों के निर्माण की ओर रूचि विकसित करने की आवश्यकता है. अहिन्दी भाषा-भाषी राज्यों को इस ओर ध्यान करना चाहिए. हमारे राज्यों की बहुत-सी विशेषताएं अभी तक फ़िल्मों के माध्यम से उभर कर नहीं आ पायी हैं. हमारी श्रेष्ठ संस्कृति की रक्षा भी उनके द्वारा ही होती है. हमारे यहां प्राकृतिक दृश्यों का इतना बड़ा संग्रह है कि हमें कहीं दूर जाने की आवश्यकता ही नहीं है. हिन्दी भाषा-भाषी राज्यों में उसकी आत्मा को पहचाननेवाले अनेक सर्जनधर्मी हैं. आवश्यकता है, ऐसे सारस्वत हस्ताक्षरों की पहचान कर, उन्हें रेखांकित करने की.
(लेखक भाषाविद मीडिया अध्ययन के विशेषज्ञ हैं.)