तीन सालः मोदी सरकार, अल्पसंख्यक बेकरार

श्रीराजेश

 |   31 May 2017 |   6
Culttoday

 

मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर सरकार के कार्यों का आकलन किया जाने लगा है, विश्लेषक अलग-अलग तरीके से सरकार के कार्यों का आंक रहे हैं. इस क्रम में अल्पसंख्यों को तीन सालों में मोदी सरकार से क्या मिला इस पर भी बहस शुरू हो गयी है. इस संदर्भ में 2017-18 का बजट प्रस्तुत किए जाने के बाद केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने दावा किया था कि बहुत वर्षों के बाद अल्पसंख्यक कल्याण का बजट 395 करोड़ रुपए से भी अधिक बढ़ गया है. जबकि उनका दावा पूर्ण रूप से सही नहीं है.

सबसे पहली बात तो यह है कि मोदी सरकार ने तीन वर्षों के दौरान चार बजट प्रस्तुत किए, जिनमें उनका पहला बजट उनके सत्ता में आने के तुरंत बाद का था. 2014-2015 के लिए इस अंतरिम बजट में अल्पसंख्यकों के लिए दी गई राशि 3089 करोड़ रुपए, उसी साल के पूर्व के मनमोहन सिंह सरकार के अंतरिम बजट में दी गई राशि 3511 करोड़ रुपए से 422 करोड़ रुपए अर्थात 16.76 प्रतिशत कम थी.

जहां तक मोदी सरकार द्वारा शेष तीन बजटों में अल्पसंख्यकों के लिए दी गई राशि के हर साल बढ़ाए जाने की बात है, वह तो मनमोहन सिंह सरकार के दौर में भी होता था. महत्वपूर्ण बात यह है कि अल्पसंख्यकों के लिए जो राशि दी जा रही है वह अन्य पिछड़े वर्गों एवं क्षेत्रों की तुलना में भी बहुत कम है. उल्लेखनीय है कि 2017-18 के केंद्रीय बजट में देश के कुल 19 प्रतिशत अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए जो राशि आवंटित की गई है, वो कुल बजट का मात्र 0.2 प्रतिशत है.  महज इसकी बुनियाद पर अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण की बात सोचना खाम़ख्याली और धोखा है.

इन सब का नतीजा यह है कि अल्पसंख्यक सामूहिक रूप से जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ते चले गए. एनजीओ सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज़ (उएड) की इंडिया एक्सक्लुज़िव रिपोर्ट 2016 को देखने पर और भी मायूसी होती है. एक शख्स ये जानकर हैरान रह जाता है कि चार पब्लिक गुड्‌स अर्थात जन क्षेत्रों जैसे वृद्धों के लिए पेंशन, डिजीटल तकनीक तक पहुंच, कृषि एवं अंडरट्रायल्स के लिए क़ानूनी इंसा़फ के मामलों में अल्पसंख्यकों की पहुंच नहीं के बराबर है. वे दलितों, आदिवासियों एवं शारीरिक रूप से असमर्थों के साथ इन सहूलियतों से वंचित हैं.

जब मोदी सरकार गत तीन वर्षों में अपनी उपलब्धियों के दावे करते नहीं थक रही है, ऐसे में यह रिपोर्ट सरकार का मुंह चिढ़ा रही है. इस रिपोर्ट के अनुसार, इस समय 52.60 प्रतिशत मुसलमान भूमिहीन हैं. इस दौरान किए गए भूमि सुधारों से उन्हें कोई लाभ नहीं मिला है. इन वंचित वर्गों की पहुंच डिजीटल तक नहीं के बराबर है. यही कारण है कि गत वर्ष के अंत में मोदी सरकार द्वारा कैशलेस अर्थव्यवस्था पर जोर डालने के बावजूद डिजीटल सहूलियत से वंचित यह तबका पैसे के लिहाज से बुरी तरह से प्रभावित हुआ है. इसका इनकी अर्थव्यवस्था पर भी बुरा प्रभाव पड़ा है.

अल्पसंख्यकों के विकास के दौर में पिछड़ जाने का अहसास   एक ऐसे दौर में हुआ है, जब उनके सशक्तिकरण के लिए विभिन्न योजनाएं पहले से लागू हैं. सच तो यह है कि किसी भी योजना, विशेषकर अल्पसंख्यकों से जुड़ी योजनाओं की घोषणा के बाद उसके क्रियान्वयन तक एक लंबा समय बीत जाता है.

एक सवाल यह भी है कि अल्पसंख्यकों की शिक्षण संस्थाएं चाहे वो साधारण हों, औद्योगिक या फिर तकनीकी, उनकी निगरानी कौन करेगा? यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अल्पसंख्यकों से संबंधित दो महत्वपूर्ण आयोग बहुत ही कठिन दौर से गुजर रहे हैं. इनमें से एक राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग है, तो दूसरा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग. मोदी सरकार के आते-आते पहला आयोग बिना अध्यक्ष का हो गया. जस्टिस सोहैल एजाज़ सिद्दीक़ी का कार्यकाल समाप्त हो जाने के बाद से ही लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं, लेकिन इन तीन वर्षों में किसी नए अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हुई है.

जाहिर है कि अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों से संबंधित मामलों को देखना विशेष आयोग का काम है. अध्यक्ष की अनुपस्थिति में इसका काम बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है. दूसरा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग है. सात सदस्यीय इस आयोग में भी इस समय न कोई अध्यक्ष है और न ही कोई सदस्य. सभी की सदस्यता की अवधि समाप्त हो चुकी है. इस वर्ष के आरंभ में अध्यक्ष नसीम अहमद एवं अंतिम सदस्य दादी ई मिस्त्री, जो कि पारसी हैं, के रिटायर हो जाने के बाद संसद के कानून से बना यह राष्ट्रीय आयोग यतीम हो गया है.

प्रश्न यह है कि इस स्थिति में अल्पसंख्यकों की सामूहिक स्थिति एवं अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों की खोज-खबर कौन लेगा और इनसे संबंधित समस्याओं को कौन देखेगा? उपरोक्त मंत्री महोदय कहते हैं कि इन दोनों आयोगों एवं अल्पसंख्यकों से संबंधित अन्य मुद्दों को लेकर उनका अल्पसंख्यक मंत्रालय सरकार को समय-समय पर सूचित करता रहता है. ये तमाम मुद्दे उसके विचाराधीन हैं.

जहां तक अल्पसंख्यकों से संबंधित योजनाओं का मामला है, उसकी सूची इतनी लंबी है कि इसे देखकर आप दंग रह जाएंगे. अल्पसंख्यक मंत्रालय के दावों का मामला तो और भी पेचीदा है. इन दावों के अनुसार जमीनी सतह पर कोई विकास या इम्पावरमेंट बिल्कुल ही नहीं दिखाई पड़ता है.

उदाहरण के तौर पर मल्टीसेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम (चडऊझ) एवं प्रधानमंत्री के 15 बिन्दुओं वाली योजना के अंतर्गत अल्पसंख्यकों के लिए बजट में दी गई राशि के विश्लेषण से यह बात सामने आती है कि दी गई राशि का बड़ा भाग अल्पसंख्यकों के शिक्षा सशक्तिकरण को जाता है. आश्चर्य की बात यह है कि इसके बावजूद अन्य समुदायों की तुलना में अल्पसंख्यक समुदाय में शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर ड्रॉप आउट अब भी बड़े पैमाने पर हो रहे हैं. अल्पसंख्यकों में मुसलमान ड्रॉप आउट में सबसे आगे हैं.

अल्पसंख्यक मंत्रालय के अंतर्गत सामाजिक न्याय से संबंधित विभागीय समिति अपनी 32वीं रिपोर्ट में इस पर चिंता व्यक्त कर चुकी है कि आखिर स्कॉलरशिप प्रोग्राम, एमएसडीपी एवं 15 बिन्दुओं वाले प्रधानमंत्री प्रोग्राम के 10 वर्षों से चलने के बावजूद यह पिछड़ापन बढ़ता क्यों जा रहा है? इसके अलावा नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइज़ेशन (छडडज) ने भी स्कूल न जाने वाले बच्चों के बारे में अपनी 575 वीं रिपोर्ट में जो संख्या बताई है, वो बेहद चौंकाने वाली है.

सबसे आश्चर्यजनक बात तो ये है कि गत तीन वर्षों से जो बजट प्रस्तुत किया जा रहा है, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे पता चले कि सच्चर कमिटी की सिफारिशों को लेकर सरकार कितनी गंभीर है. सच्चर कमिटी की सिफारिशों में मुसलमानों से संबंधित विशिष्ट समस्याओं से निपटने के लिए शिक्षा, आर्थिक विकास एवं बुनियादी सहूलियतों  पर विशेष ध्यान देने को कहा गया था.

इस कमिटी ने इस सिलसिले में नेशनल डाटा बैंक, समान अवसर आयोग एवं डायवर्सिटी  इंडेक्स की भी सिफारिश की थी, ताकि सरकारी संस्थाओं में नौकरी से वंचित मुसलमानों को विकास के दायरे में लाया जा सके. परन्तु इस संबंध में भी कुछ काम नहीं हो सका है. इन सभी तथ्यों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सबका साथ सबका विकास नारे की पोल खुल जाती है. साथ ही यह सच सामने आता है कि तमाम योजनाओं के बावजूद सरकार अल्पसंख्यकों के विकास एवं सशक्तिकरण को लेकर गंभीर नहीं है.

भारत में मदरसों के आधुनिकीकरण योजना का ध्येय यह है कि आधुनिक तक़ाजों के अनुसार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जाए. मोदी सरकार का दावा है कि इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए उसने बड़ा बजट रखा, जो 2016-17 में 294 करोड़ तक जा पहुंचा और जिसके नतीजे में देश के मदरसों में 77.85 प्रतिशत आधुनिकीकरण हुआ है. जबकि चौथी दुनिया की खोज से यह पता चलता है कि सच कुछ और ही है. इस आधुनिकीकरण से अधिकतर मदरसे अब भी वंचित हैं.

मदरसों की शिक्षा को बेहतर बनाने और उसके आधुनिकीकरण को लेकर सभी सरकारें सोचती रही हैं. इन सरकारों की सोच यह रही है कि मदरसों का आधुनिकीकरण कर छात्रों को आधुनिक ज्ञान से जोड़ा जाए, ताकि ये छात्र मुख्यधारा में शामिल हो सकें. इस ध्येय के लिए 2009-10 में डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकार ने मदरसों की शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए 46 करोड़ रुपए की मंजूरी दी थी, जिसेे मोदी सरकार ने बढ़ाकर 2015-16 में 108 करोड़ रुपए एवं 2016-17 में 294 करोड़ रुपए कर दिया था.

2014 के संसदीय चुनाव के समय नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि वो मुसलमान के एक हाथ में कुरआन देखना चाहते हैं तो दूसरे हाथ में कंप्यूटर. प्रधानमंत्री का यह कथन भारतीय मुसलमानों के लिए बहुत ही दिलचस्पी का विषय बना था. प्रधानमंत्री ने अपने 15 बिन्दुओं वाली योजना में इसको बड़े महत्व के साथ शामिल किया है.

इन्होंने इन मदरसों को आधुनिक बनाने के लिए न सिर्फ विशेष ध्यान दिया, बल्कि इसके लिए बड़ी राशि भी आवंटित की है. सरकार के इस दावे की सच्चाई जानने के लिए चौथी दुनिया ने सांसद एवं अल्पसंख्यक संसदीय समिति के सदस्य मौलाना असरारूल हक क़ासमी से पूछा कि मदरसों के संबंध में सरकारी घोषणा की ज़मीनी हक़ीक़त क्या है? तब उन्होंने कहा कि इन तीन वर्षों में मात्र घोषणाएं ही हुई हैं, जमीनी सतह पर काम नहीं हुआ है.

उन्होंने यह भी कहा कि हमने इस संदर्भ में केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से पूछा तो ये जवाब मिला कि बिहार के एदारा शरिया के अंतर्गत चल रहे पटना के मात्र एक मदरसे को फंड दिया गया है. अब जरा सोचिए कि जिस राज्य में हजारों मदरसे हैं, वहां मात्र एक मदरसे को फंड देकर ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि मदरसों का आधुनिकीकरण हो रहा है.

उन्होंने कहा कि सरकार के दावों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि सीमांचल में 204 मदरसे हैं. मनमोहन सरकार के दौरान मेनस्ट्रीम ग्राम (चडऋृ) के अंतर्गत उस समय के अल्पसंख्यक मंत्री के रहमान खान के नेतृत्व में 149 मदरसों में निर्माण कार्य हुआ. बाक़ी मदरसों में कोड ऑफ कंडक्ट के कारण काम पूरा नहीं हो सका. इसके बाद मोदी की सरकार आ गई. हमने इन बाकी कामों को पूरा करने के लिए कई बार अपील की, लेकिन आज तक कुछ भी काम नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि हमने वर्तमान बजट सेशन में भी मदरसों को फंड जारी करने के लिए कहा, मगर इस पर भी ध्यान नहीं दिया गया.

सच तो यह है कि मोदी सरकार ने दावे तो खूब किए, मगर जमीनी स्तर पर इन दावों पर अमल नहीं हो रहा है. जब चौथी दुनिया ने यही सवाल पूर्व एमपी मोहम्मद अदीब से पूछा तो उन्होंने कहा कि व्यावहारिक रूप से कहीं भी सरकार का दावा सही नहीं दिख रहा है. गत तीन वर्षों में मोदी सरकार ने 90 प्रतिशत घोषणाएं ही की हैं, जिसका जमीनी सतह पर कोई अस्तित्व नहीं है. उन्होंने ये भी कहा कि सरकार अगर वास्तव में मदरसों के आधुनिकीकरण को लेकर गंभीर है, तो वह मदरसों में कम्प्यूटर एवं अंग्रेजी शिक्षकों को बहाल करे. परन्तु इन मदरसों के शासन को अपने हाथों में न ले.

इस संबंध में बंबई के अंजुमनुल इस्लाम के अध्यक्ष ताज मोहम्मद खां कहते हैं कि सरकारों का सारा ध्यान मदरसों के आधुनिकीकरण की ओर है. इसके नाम पर किसी मदरसे को एक दो कम्प्यूटर सेट देकर यह मान लिया जाता है कि सरकार ने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है. इस बार मदरसा आधुनिकीकरण योजना की खूब चर्चा हुई कि भाजपा सरकार ने दिल खोलकर फंड दिया है, लेकिन यह भी एक रिकॉर्ड है कि आज तक इस फंड के पूरे पैसे कभी इस्तेमाल नहीं हुए.

हाल में औरंगाबाद के आजाद अली शाह एजुकेशन सोसायटी के अंतर्गत चलने वाले सात मदरसों में से एक मदरसा हज़रत हज़ीमा जो कि हरसलू में स्थित है, के एक अधिकारी साजिद पाशा ने बताया कि मदरसा आधुनिकीकरण स्कीम के अंतर्गत इन्होंने सरकार को समय-समय पर कई सुझाव दिए थे, लेकिन उन्हें कोई मदद नहीं दी गई.प

नई रौशनी अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए लीडरशिप डेवलपमेंट का प्रोग्राम है, जिसे 2012-13 में प्रारंभ किया गया था. इसे गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा चलाया जाना था मगर यह संस्था फंड की कमी की वजह से कोई उल्लेखनीय काम नहीं कर पाई. इस संबंध में नीति आयोग एवं एवैल्युएशन ऑर्गनाइजेशन (ऊचएज) ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि एक महत्वपूर्ण रुकावट यह रही कि नई रोशनी के अंतर्गत ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाने के लिए अनुभवी गैर सरकारी संस्थाओं का चयन नहीं किया गया. उपरोक्त आयोग की रिपोर्ट के अनुसार चयन की गई गैर सरकारी संस्थाओं में से 55 प्रतिशत गैर सरकारी संस्थाओं के पास मात्र एक से दो वर्ष का अनुभव था एवं सिर्फ 30 प्रतिशत ही तीन वर्ष की शर्त को पूरा कर रहे थे.

उपरोक्त रिपोर्ट से यह मालूम होता है कि नई रौशनी योजना विकट स्थिति में है. इस योजना का लक्ष्य यह था कि मुस्लिम महिलाओं को ज्ञान एवं तकनीक सिखाया जाएगा, ताकि वो सरकारी व्यवस्था, बैंकों एवं अन्य संस्थाओं से तमाम स्तरों पर संपर्क बना सकें. यही कारण है कि नीति आयोग ने निराशाजनक नतीजों के बावजूद नई रोशनी प्रोग्राम को जारी रखने की सलाह दी है. इस योजना की नाकामी से यह बात साबित हो जाती है कि मुस्लिम महिलाओं को भी मोदी सरकार के तीन वर्ष में कुछ नहीं मिला है.


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