बिहार में हिंदुत्व से जातियों को साध रही भाजपा

जलज वर्मा

 |  16 Oct 2020 |   371
Culttoday

बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों और गणितों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है. लालू भी सत्ता में आए तो एमवाई (मुस्लिम - यादव) समीकरण लेकर आएं और पंद्रह वर्षों तक सत्ता में रहे. लेकिन 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव और नीतीश अलग हो चुके थे. तथाकथित ऊंची जातियों के ख़िलाफ़ पिछड़ी जातियों की जो गोलबंदी 1990 के विधानसभा चुनाव में दिखी थी, वो नीतीश और लालू के अलग होने से टूटती दिखी.
बिहार में पिछड़ी जातियों में यादव और कोइरी-कुर्मी सबसे प्रभावशाली जातियाँ हैं. लेकिन 1995 के विधानसभा चुनाव में दोनों का नेतृत्व अलग हो गया. कोइरी-कुर्मी और यादवों में एकजुटता ऊंची जातियों के ख़िलाफ़ बनी थी, लेकिन आगे चलकर दोनों की महत्वाकांक्षा आपस में ही टकराने लगी.
बीबीसी के एक रिपोर्ट में रजनीश कुमार विश्लेषित करते हुए कहते हैं कि 1995 चुनाव में नीतीश कुमार कुछ ख़ास नहीं कर पाए. समता पार्टी सात सीटों तक ही सीमित कर रह गई, लेकिन 2000 का विधानसभा चुनाव आते-आते यादवों के वर्चस्व को लेकर पिछड़ी जातियों के भीतर से ही आवाज़ उठने लगी.
नीतीश कुमार ने ग़ैर-यादव ओबीसी जातियों को एकजुट किया और इस राजनीति में उन्हें बिहार की तथाकथित ऊँची जातियों का भी साथ मिला. इस राजनीति में कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों को सबसे ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ा. दोनों हाशिए पर जाती रहीं. कांग्रेस को लालू की शरण में जाना पड़ा और आज तक वहीं है. नीतीश कुमार 1994 में कुर्मियों की रैली में शामिल हुए और उन्होंने कुर्मी हितों को रेखांकित किया. 1995 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद नीतीश कुमार को लगा कि वो बिहार में लालू यादव से अकेले नहीं लड़ सकते हैं. 1996 के लोकसभा चुनाव में नीतीश ने हिंदूवादी पार्टी बीजेपी से गठबंधन कर लिया. जिस बीजेपी को नीतीश कुमार मंदिर आंदोलन के दौरान आड़े हाथों लेते थे, 'सांप्रदायिक पार्टी' बताते थे, 1996 में लालू को हराने के लिए उसी के साथ आ गए.
आरजेडी नेता प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि जातीय वर्चस्व की राजनीति 90 के दशक में ख़त्म नहीं हुई, बल्कि शिफ़्ट हो रही थी. इसी शिफ़्टिंग का नतीजा था कि बिहार में पिछ़ड़ी जातियों की गोलबंदी टूटी. साथ ही नीतीश और लालू की राह अलग हो गई.
प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ''नीतीश बिहार में एक साथ लालू और बीजेपी दोनों से नहीं लड़ सकते थे, इसलिए उन्हें किसी के ख़िलाफ़ जाने के लिए किसी न किसी के साथ जाना ही था.''
2000 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और बीजेपी को 121 सीटों पर कामयाबी मिली. नीतीश कुमार बिना बहुमत के मुख्यमंत्री बने. हालाँकि एक हफ़्ते के भीतर ही नीतीश को इस्तीफ़ा देना पड़ा.
इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से फिर राबड़ी देवी मु्ख्यमंत्री बनीं. हालाँकि कांग्रेस 2000 के विधानसभा चुनाव में अकेले मैदान में गई थी और चुनाव बाद लालू के साथ आ गई. कांग्रेस को 23 सीटें मिली थीं और राबड़ी देवी की सरकार के साथ वह सत्ता में साझीदार बनी.
संजय सिंह कहते हैं कि कांग्रेस का उस वक़्त आरजेडी के साथ जाना उसके लिए आत्मघाती क़दम साबित हुआ. वो कहते हैं, ''जितनी ऊँची जातियाँ कांग्रेस के साथ थीं, सबके सब नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए की ओर चली गईं. ऊँची जातियों को 2000 में लगा था कि लालू परिवार के शासन का अंत हो जाएगा, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं होने दिया. ऐसे में ऊँची जातियों का कांग्रेस से नाराज़ होना स्वाभाविक था."
2000 आते-आते मंडल की राजनीति पूरी तरह से बिखर गई थी, लेकिन कमंडल की राजनीति अपनी गति से आगे बढ़ रही थी. कमंडल यानी बीजेपी की राजनीति ने लालू से लड़ने के लिए नीतीश का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था और नीतीश ने भी लालू को मात देने के लिए बीजेपी का दामन थाम लिया था.
आख़िरकार नीतीश कुमार 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. अक्तूबर 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 55 और जेडीयू को 88 सीटों पर जीत मिली और पूर्ण बहुमत के साथ गठबंधन सरकार बनी.
नीतीश कुमार की इस सरकार में बीजेपी जूनियर पार्टी की तरह ही रही. तब बीजेपी में आडवाणी की चलती थी और नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. नीतीश कुमार बीजेपी के साथ रहते हुए भी अपनी सेक्युलर छवि का ख़्याल रखते थे और बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति से काफ़ी दूरी बनाए रखते थे.
यहाँ तक कि वो 2002 के गुजरात दंगे के कारण नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार करने के लिए नहीं आने देते थे. नीतीश मोदी के साथ मंच साझा करने को तैयार नहीं थे, मोदी के साथ अपनी तस्वीर छपने पर वे नाराज़ हो जाते थे.
2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को और प्रचंड जीत मिली. लालू-रामविलास का गठबंधन 25 सीटों पर ही सिमटकर रह गया, जबकि एनडीए को 243 सीटों वाली विधानसभा में 206 सीटों पर जीत मिली. जेडयू 115 सीट जीतने में कामयाब रही और बीजेपी 91.
लालू यादव के लिए यह शर्मनाक हार थी, लेकिन यह नीतीश की जीत के साथ हिंदुत्व की राजनीति की भी बड़ी जीत थी.
1990 के बाद से बीजेपी का वोट शेयर लगातार बढ़ता गया. 2010 की जीत के बाद भी नीतीश कुमार अपनी सेक्युलर छवि को लेकर उसी तेवर में रहे.
संजय सिंह कहते हैं कि इस जीत के बाद नीतीश कुमार को लगा कि वो बिना बीजेपी के भी बिहार की राजनीति में एकछत्र राज कर सकते हैं, लेकिन यह उनका ग़लत आकलन था.
2013 में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया. नीतीश कुमार ने मोदी के आते ही ख़ुद को बीजेपी से अलग कर लिया.
उसके बाद बीजेपी ने नित्यानंद राय और गिरिराज सिंह जैसे नेताओं को आगे किया, जो नीतीश कुमार पर जमकर हमले बोलने लगे. दोनों नेताओं के बयानों में हिंदू-मुसलमान वाली बात भी रहती थी.
नीतीश कुमार को 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी से अलग होने का ख़ामियाजा भुगतना पड़ा. नीतीश की जदयू महज दो सीटें ही जीत पाई, जबकि बीजेपी ने 30 लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 22 पर जीत दर्ज की.
जिन नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ नीतीश झंडा उठाए थे, वही प्रचंड बहुमत से देश के प्रधानमंत्री बन गए. नीतीश कुमार को अहसास हो गया कि वो बिहार में लालू और बीजेपी दोनों से एक साथ नहीं लड़ सकते.
आख़िरकार वो 2015 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी के साथ आ गए और यह गठबंधन बीजेपी पर बहुत भारी पड़ा. बीजेपी महज़ 53 सीटों पर सिमटकर रह गई.
नीतीश कुमार आरजेडी के साथ महज 16 महीने ही रहे और फिर से बीजेपी के साथ आ गए. लेकिन इस बार नीतीश कुमार मोदी की बीजेपी में आए थे और उनका वो तेवर अतीत का हिस्सा बन गया. बिहार में बीजेपी के नेता खुलकर हिंदू-मुसलमान वाले बयान देने लगे.
गिरिराज सिंह ने झारखंड के देवघर में 19 अप्रैल, 2014 को कहा था कि जो नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं, उन्हें पाकिस्तान भेज देना चाहिए. गिरिराज सिंह नीतीश कुमार की सरकार में बीजेपी कोटे से मंत्री भी रहे हैं.
2015 के दिसंबर महीने में बिहार विधानसभा चुनाव में एक रैली को संबोधित करते हुए तत्कालीन बीजेपी प्रमुख अमित शाह ने कहा था, "अगर बिहार में बीजेपी ग़लती से भी हारती है तो पटाखे पाकिस्तान में फूटेंगे."
इसके अलावा 2018 में नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री रहते ही रामनवमी के वक़्त में बिहार के कई शहरों में दंगे हुए. औरंगाबाद, नवादा, रोसड़ा और भागलपुर में सांप्रदायिक हिंसा हुई और मस्जिदों को निशाना बनाया गया. औरंगाबाद, नवादा और भागलपुर में बीजेपी नेताओं से जु़ड़े संगठनों पर दंगा भड़काने के आरोप लगे. यह पहली बार था कि नीतीश के मुख्यमंत्री रहते सांप्रदायिक हिंसा हुई.
बिहार में कई लोग मानते हैं कि जातीय उत्पीड़न के आधार पर खड़ी हुई जातीय पहचान की राजनीति बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति के सामने 2014 में बुरी तरह परास्त हो गई.
धर्म पर आधारित राजनीति से लड़ने के लिए जातीय पहचान की राजनीति कोई कारगर हथियार नहीं हो सकती और इसका हश्र हम अब देख भी रहे हैं. बीजेपी ने जाति और धर्म दोनों को तरीक़े से साधा और इस मामले में मंडलवादी राजनीति उससे लड़ने में नाकाम रही. यह वैसा ही है जैसे मंडल की राजनीति में कांग्रेस और वामपंथी पार्टियाँ बिहार में ख़त्म हो गईं. अब हिंदुत्व की राजनीति में मंडल की राजनीति ख़त्म होती दिख रही है.
1989 में बिहार के भागलपुर में दंगे के बाद कांग्रेस सत्ता में आज तक नहीं लौट पाई, दंगे के वक़्त कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह थे. सत्येंद्र नारायण सिंह इस दंगे के बाद बिहार की राजनीति से ग़ायब हो गए. भागलपुर दंगे के बाद बिहार की जनता ने कांग्रेस की तरफ़ मुड़कर नहीं देखा.
आख़िर ऐसा क्यों है? उस वक़्त भागलपुर दंगे की रिपोर्टिंग कर रहे मनाज़ीर आशिक़ हरदानवी कहते हैं कि 1989 का दंगा कांग्रेस के आंतरिक नेतृत्व में सत्ता पाने और गिराने की होड़ का नतीजा था.
मनाज़ीर आशिक़ कहते हैं, ''सत्येंद्र नारायण सिंह को पार्टी के भीतर की ही ब्राह्मण लॉबी पंसद नहीं करती थी और इस लॉबी ने दंगे को जमकर हवा दी थी. उसी लॉबी ने भागलपुर के तत्कालीन एसपी केएस द्विवेदी और डीएम अरुण झा को हटाने नहीं दिया. इस लॉबी के सामने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी झुक गए.''
राजीव गांधी दंगे के बीच ही 26 अक्तूबर 1989 को सत्येंद्र नारायण सिंह के साथ भागलपुर पहुँचे थे. भागलपुर पहुँचने के बाद राजीव गांधी के सामने वहाँ के पुलिस वाले केएस द्विवेदी के तबादले के विरोध में नारे लगाने लगे थे. मनाज़ीर आशिक़ कहते हैं कि राजीव गांधी ने बड़ी ग़लती की और केएस द्विवेदी के तबादले के फ़ैसले को रद्द कर दिया.
सत्येंद्र नारायण सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन पर 'मेरी यादें, मेरी भूलें' नाम से एक किताब लिखी थी. इस किताब में भागलपुर दंगे को लेकर एक चैप्टर था. इस चैप्टर में विस्तार से बातें कही गई थीं, लेकिन किताब से भागलपुर दंगे वाला चैप्टर हटा लिया गया था क्योंकि राजीव गांधी की बदनामी का डर था. इस किताब की मूल कॉपी को खोजने में काफी मशक्कत करनी पड़ी.
सत्येंद्र नारायण सिंह की सरकार में प्रधान सचिव रहे रामउपदेश सिंह ने ही इस किताब की पांडुलिपि तैयार की थी. उनसे संपर्क किया, तो वो इसकी पांडुलिपि देने को तैयार हो गए.
किताब में सत्येंद्र नारायण सिंह ने लिखा है, ''भागलपुर में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के आने से पहले ही केएस द्विवेदी को बदलने का फ़ैसला कर लिया गया था. केएस द्विवेदी की छवि पहले ही सांप्रदायिक व्यक्ति की बन गई थी. अल्पसंख्यकों के मन में यह विचार घर कर गया था कि भागलपुर के एसपी उनके ख़िलाफ़ हैं. मैंने प्रशासन की निष्पक्षता को ध्यान में रखते हुए एसपी के तबादले का आदेश दिया था.''
सत्येंद्र सिंह ने लिखा है, ''मैं भागलपुर के तत्कालीन डीएम अरुण झा को भी बदलना चाहता था, लेकिन वो भागवत झा आज़ाद के चहेते थे. अरुण झा लोकसभा चुनाव में रिटर्निंग ऑफिसर के लिए भी अधिसूचित किए गए थे. इसलिए उनका तबादला बिना चुनाव आयोग की अनुमति के संभव नहीं था. 24 अक्तूबर को मैं भी राजीव गांधी के साथ भागलपुर गया. भागलपुर हवाई पट्टी से सर्किट हाउस जाने के रास्ते में कुछ अनियंत्रित लोग भी थे, जो विश्व हिंदू परिषद और पुलिस वाले थे. ये राजीव गांधी के सामने केएस द्विवेदी के तबादले का विरोध कर रहे थे. दुर्भाग्यवश राजीव जी ने लोगों का आक्रोश देख मुझसे सलाह-मशविरा किए बिना एसपी का तबादला रोक देने की घोषणा कर दी. इस घोषणा के बाद राजीव जी का तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया गया.''
''मेरा मानना था कि एसपी का तबादला रोकने से मुसलमानों में ग़लत संदेश जाएगा और पुलिस बल में अनुशासनहीनता बढ़ेगी. वास्तव में देखा जाए तो कांग्रेस से मुसलमानों का मोहभंग केएस द्विवेदी के तबादले को रोकने से शुरू हो गया था. मैं राजीव जी की घोषणा से हैरान था. ग़ुस्से में गाड़ी में ही बैठा रहा.''
सत्येंद्र नारायण सिंह ने लिखा है, ''मेरे ही कुछ राजनीतिक साथियों ने ईर्ष्या-द्वेष में दंगे को जमकर हवा दी. दंगा भड़कने के समय मेरे कुछ राजनीतिक मित्र भागलपुर में मौजूद ज़रूर थे, लेकिन हालात को काबू में करने के बजाय वे आग में घी डाल रहे थे. उस वक़्त मेरी स्थिति अभिमन्यु वाली थी, जिसे चारों ओर से अपने ही लोगों ने घेर रखा था.''
ऐसा नहीं है कि भागलपुर दंगे का असर लोगों के मन से मिट गया है. संजय कुंवर से दंगे के बारे में पूछा, तो उन्होंने तपाक से कहा कि "भागलपुर का तातारपुर मोहल्ला मिनी पाकिस्तान है और इसी वजह से दंगा हुआ." संजय ने कहा, ''मैं भूमिहार हूँ, लेकिन दंगे के बाद बीजेपी का कमल फूल चाहे दुसाध-मुसहर के हाथ में क्यों न रहे, हम सब वोट उसी को करते हैं.''
राजीव गांधी इससे पहले शाहबानो केस पर बने दबाव की काट के तौर राम मंदिर का ताला खुलवाकर अनजाने में ही आगे की राजनीति की बुनियाद रख चुके थे.
एएन सिन्हा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं कि भागलपुर दंगे ने बिहार में हिंदुत्व की राजनीति को ज़मीन दी, लेकिन लालू प्रसाद यादव की दस्तक ने इस ज़मीन को उर्वर नहीं बनने दिया. 
डीएम दिवाकर कहते हैं, ''एक तरफ़ लालू यादव ने मुसलमानों को आश्वस्त किया कि वो कांग्रेस सरकार में हुए दंगे को फिर से नहीं होने देंगे और बीजेपी के हिंदुत्व को भी सख़्ती से रोककर रखेंगे. इसके अलावा लालू ने कांग्रेस के राज में बने सवर्ण नेतओं के वर्चस्व को इस क़दर तोड़ा कि 1990 के बाद से कोई सवर्ण नेता बिहार का मुख्यमंत्री नहीं बन सका. भविष्य में भी ऐसा होता नहीं दिख रहा है.'' 10 मार्च 1990 को लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में 'वोट हमारा-राज तुम्हारा, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा' के नारे के साथ सत्ता पर काबिज होते हैं.

बिहार में जनता दल का मतलब लालू प्रसाद यादव बन गए थे. दरअसल, वो जनता दल से बड़े बन गए थे. सात अगस्त, 1990 को प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने की घोषणा कर दीं. मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के अनुसार केंद्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 27 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान था. सीएसडीएस के निदेशक प्रोफ़ेसर संजय कुमार ने अपनी किताब 'पोस्ट मंडल पॉलिटिक्स इन बिहार' में लिखा है कि मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने की पहल लालू प्रसाद के लिए वरदान साबित हुई. संजय कुमार ने लिखा है, ''बीजेपी और वामदल वीपी सिंह की सरकार से चाहते थे कि आरक्षण में आर्थिक स्तर को एक आधार के रूप में शामिल किया जाए, लेकिन लालू यादव इससे बिल्कुल सहमत नहीं थे. इससे बिहार में अगड़ी और पिछड़ी जातियों के बीच टकराव शुरू हो गया."
संजय कुमार की राय में, "मंडल राजनीति के प्रभाव के बीच बीजेपी ने राम मंदिर आंदोलन को आगे किया. इस तरह से देश के राजनीतिक पटल पर दोनों मुद्दे ज्वलंत हो गए. भाजपा मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लेकर सहज नहीं थी. वो न खुलकर विरोध कर रही थी और न ही समर्थन. लालू और नीतीश कुमार ने एक साथ बीजेपी पर हमला बोला कि वो मंदिर और मस्जिद के मुद्दे को उछालकर मंडल आंदोलन को रास्ते से भटकाना चाहती है.'' संजय कुमार ने अपनी किताब में लिखा है कि नीतीश कुमार ने उन दिनों पटना के गाँधी मैदान में आरक्षण के समर्थन में रैली की थी और आडवाणी पर ज़ोरदार हमला बोला था. नीतीश ने इस रैली में कहा था, ''आडवाणी की रथयात्रा और कुछ नहीं, केवल मंडल आयोग के ख़िलाफ़ एक अवरोध है, रोड़ा है. भाजपा उन लोगों का समर्थन करती है, जिन्होंने मंडल आयोग का अंतिम सांस तक विरोध किया.''  अब वही नीतीश कुमार बीजेपी के साथ हैं. डीएम दिवाकर कहते हैं, ''बीजेपी को बिहार में यूपी की तरह किसी योगी की ज़रूरत नहीं पड़ी, बल्कि अपनी प्रासंगिकता नीतीश कुमार के ज़रिए ही बनाने में कामयाब रही. अब तो नीतीश कुमार के कंधे पर सवार होकर उन्हें ही पीछे धकेलने में सफल होती दिख रही है.''
साल 1990. 10 मार्च को लालू यादव मुख्यमंत्री बने. सात अगस्त को वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने की घोषणा कर दी. 25 सितंबर को आडवाणी गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या तक के लिए रथ यात्रा पर निकल गए. मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद बिहार में अगड़ी और पिछड़ी जातियों की खाई गहरी हो गई थी. लेकिन आडवाणी की रथयात्रा से बिहार में फैलने वाली सांप्रदायिक राजनीति की आशंका को लालू ने पहले रोक दिया. एक बार फिर से लालू ने मुसलमानों को संदेश दिया कि उनके राज में वे सुरक्षित हैं. आडवाणी की रथ यात्रा से पैदा हुए तनाव के कारण कई राज्यों दंगे भी हए. गुजरात, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक विशेष रूप से प्रभावित हुए. प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने बिहार की सरकार को निर्देश दिया कि वो रथयात्रा को तत्काल रोकें. लालू प्रसाद यादव की सरकार ने 23 अक्तूबर 1990 को बिहार के समस्तीपुर ज़िले में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया. संजय कुमार ने अपनी किताब में लिखा है, ''तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य में हिंदुत्व के प्रतीक आडवाणी की गिरफ़्तारी से लालू प्रसाद यादव ने वोट बैंक की राजनीति के सारे लाभ साध लिए और इसे अपनी व्यक्तिगत उपलब्धि बताया. इस घटना ने उन्हें मुसलमानों के बीच लोकप्रिय बना दिया. बिहार की राजनीति में अब तक ऐसा कोई नेता नहीं हुआ था, जो मुसलमानों के हितों और आकांक्षाओं को लेकर इतना मुखर रहा हो.''
आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद बीजेपी ने केंद्र में वीपी सिंह की सरकार और बिहार में लालू प्रसाद यादव की नेतृत्व वाली सरकार से समर्थन वापस ले लिया. बिहार में बीजेपी के 39 विधायकों के समर्थन वापस लेने के बाद लालू प्रसाद यादव की सरकार अल्पमत में आ गई. हालाँकि सीपीआई के 19, सीपीआईएम के छह, एममसीसी (एके राय के नेतृत्व वाली) के दो और आईपीएफ़ के सात विधायकों के समर्थन से लालू सत्ता में बने रहे. इसके अलावा लालू को जेएमएम के 19 और निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन हासिल था. मंडल और कमंडल की राजनीति में सबसे ज़्यादा नुक़सान कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों को हुआ. बिहार में सीपीआई के संस्थापक सदस्यों में एक रहे जगन्नाथ सरकार ने लिखा था कि लालू के सामाजिक न्याय का प्रारूप पिछड़ों के जातिवाद को मज़बूत करने वाला था और वामपंथी पार्टियों ने उसे उसी रूप में स्वीकार कर ख़ुद के सिद्धांतों से समझौता किया. बिहार में समाजवादी आंदोलन में मुखर रहे आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं कि यहाँ जातीय पहचान की राजनीति और हिंदुत्व की राजनीति का अंतर अब मिट गया है. वो कहते हैं, ''जो कल तक जातीय उत्पीड़न को लेकर जातीय पहचान की राजनीति करते थे, वो आज की तारीख़ में उनके साथ हैं, जो हिंदुत्व की राजनीति कर रहे हैं. जो कल तक कहते थे कि संविधान और लोकतंत्र ख़तरे में है, वो आज की तारीख़ में उन्हीं लोगों के साथ हैं. मैं पूछता हूँ कि अगर हिंदुत्व और जातीय पहचान की राजनीति अलग-अलग है, तो फिर मोदी के साथ रामविलास पासवान क्यों थे और नीतीश कुमार क्यों हैं?''
शिवानंद तिवारी कहते हैं कि जातीय पहचान की राजनीति और हिंदुत्व की राजनीति दोनों दरअसल, वोट बैंक की राजनीति है. वो कहते हैं, ''जाति की वजह से नेता हैं. अगर उनकी जाति ही नहीं रहेगी, तो वो नेता अप्रासंगिक हो जाएँगे. चुनावी राजनीति में सभी पार्टियों को यह रास आ रहा है कि जातियों का खेल बना रहे. मेरा मानना है कि जो जाति निरपेक्ष नहीं होगा, वो धर्म निरेपक्ष भी नहीं होगा. हम कहते हैं कि संविधान पर ख़तरा है और आरक्षण पर ख़तरा है, लेकिन जो संविधान और आरक्षण का फ़ायदा उठा रहे हैं, वो भी उन्हीं लोगों के साथ मिल गए हैं, जिनसे ख़तरा बताया जा रहा है. इस बात में अब कोई शक नहीं है कि जाति की राजनीति और हिंदुत्व की राजनीति दोनों में कोई फ़र्क नहीं बचा है, क्योंकि दोनों ही मौक़ापरस्ती की राजनीति है."
कई लोग मानते हैं कि बीजेपी हिंदुत्व की राजनीति में अब उन जातियों को एकजुट कर रही है, जो अपने प्रदेश में कभी प्रभुत्व में नहीं थीं और इनका कोई अपना नेता नहीं था. 2015 में लालू और नीतीश एक साथ आए, तो गांधी मैदान में एक रैली को संबोधित करते हुए लालू यादव ने कहा था कि यह मंडल 2.0 है. लालू यादव चुनाव को अगड़ी जाति बनाम पिछड़ी जाति करना चाहते थे. यादव बिहार में पिछड़ी जातियों और हिंदुओं में सबसे ज़्यादा हैं. बिहार में यादवों की आबादी लगभग 14 फ़ीसदी है. जातीय पहचान की राजनीति का अभी अंत नहीं हुआ है और वह हिंदुत्व की राजनीति के लिए रुकावट है. यही वजह है कि बीजेपी के नेता हिंदू एकता का नारा बुलंद करते रहते हैं. बीजेपी की हिंदू पहचान को एकजुट करने की रणनीति बनाम लालू, नीतीश, मुलायम सिंह यादव और मायावती की जातीय पहचान के आधार पर लोगों को एकजुट करने की रणनीति उत्तर भारत में आमने-सामने रही है. बीजेपी जनगणना में धर्म के आधार पर लोगों की आबादी का डेटा जारी करने में परहेज नहीं करती है, लेकिन जातीय डेटा जारी करने से बचती है. जनगणना के धार्मिक डेटा का इस्तेमाल इस नैरेटिव को हवा देने में किया जाता है कि एक ऐसा समय आएगा जब हिंदुओं की आबादी मुसलमानों से कम हो जाएगी. गुजरात में मोदी के उभार से वहाँ के पटेलों के हाथ से सत्ता जाती रही. बीजेपी के ताक़तवर पटेल नेता केशुभाई पटेल को अलग-थलग होना पड़ा. हार्दिक पटेल के आरक्षण के आंदोलन में बड़ी संख्या में पटेलों को प्रदेश की बीजेपी सरकार ने जेल में डाला. कई लोग मानते हैं कि बीजेपी ने रणनीति के तहत कई प्रदेशों में उन जातियों की उपेक्षा की, जो वर्चस्व में थीं. जैसे गुजरात में पटेल, बिहार में यादव, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा और झारखंड में आदिवासियों को.
90 के दशक के बाद से बिहार में यादवों और गुजरात में पटेलों का वर्चस्व रहा, लेकिन 2000 के दशक से वो सत्ता में नहीं हैं. नीतीश कुमार ने बिहार में यादवों को और मोदी ने पटेलों को गुजरात में शीर्ष की राजनीति से अलग कर दिया, जबकि नीतीश और मोदी की अपनी जाति की आबादी बिहार और गुजरात में काफ़ी कम है. कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बीजेपी की इस रणनीति ने हिंदुत्व की राजनीति को मज़बूत किया है. झारखंड बनने के बाद से वहाँ कोई आदिवासी ही मुख्यमंत्री बनता था, लेकिन बीजेपी ने पहली बार एक ग़ैर-आदिवासी रघुबर दास को सीएम बनाया. इसी तरह हरियाणा में भी मनोहर लाल खट्टर को सीएम बनाकर वहाँ जाटों को किनारे रखा. महाराष्ट्र में भी देवेंद्र फडणवीस के रूप में एक ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बनाया और प्रभावशाली मराठा जाति को किनारे रखा. बिहार में जब तक कांग्रेस सत्ता में रही सवर्णों के हाथ में सत्ता रही. कांग्रेस की सरकारों में ब्राह्मणों, भूमिहारों, राजपूतों और कायस्थों का वर्चस्व रहा, जबकि इन जातियों की आबादी बिहार में मामूली है. बिहार के कुल मतदाताओं में पिछड़ी जातियों की तादाद 60 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है, लेकिन ये जातियां लंबे समय तक राजनीतिक रूप से हाशिए पर रहीं.
1977 में मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने राज्य की नौकरियों में पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिया, तबसे बिहार की राजनीति में एक क्रांतिकारी तब्दीली आई. कर्पूरी ठाकुर के इस फ़ैसले पर अगड़ी जातियों की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया आई. इसके बाद बिहार की राजनीति में अगड़ा बनाम पिछड़ा की खाई गहरी होती गई और मंडल आयोग आते-आते और चौड़ी हो गई. इस बिहार चुनाव में भी जातियाँ अहम हैं, लेकिन बीजेपी एक साथ हिंदुत्व और जाति दोनों को साधने में लगी है.
(बीबीसी के एक रिपोर्ट के इनपुट के साथ)


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