फ्रांस और इटली में जेहादी कठमुल्लों की करतूतों से सारी दुनिया स्तब्ध है. ये बेवजह कत्लेआम करने से बाज ही नहीं आ रहे है. ये बम विस्फोट और कत्लेआम किये जा रहे हैं. इन्होंने कोरोना के विश्वव्यापी काल में सारी दुनिया के सामने एक बड़ी चुनौती पेश कर दी है. सबसे गंभीर बात यह है कि इन कठमुल्लों को अनेकों मुसलमानों का साथ और समर्थन मिल रहा है. विश्व भर में और भारत में भी. पर उम्मीद की किरण जो आई है वह यह है कि जावेद अख्तर, शबानी आजमी और नसीरउद्दीन शाह जैसे कुछ खास मुस्लिम हस्तियों ने फ्रांस में हमलों की निंदा की है. इन्होंने मुनव्वर राणा सरीखे कुछ मुस्लिम धार्मिक और राजनीतिक नेताओं के जरिए दिए गए अपमानजनक बयानों को खारिज कर दिया है, जिसमें उन्होंने फ्रांस में भीषण हत्याओं को तर्कसंगत होने की बात कही थी.
संवेदनशील सवालों पर चुप्पी
अभी तक तो देश के असरदार मुस्लिम लेखक, कलाकार और बुद्धजीवी मुसलमानों से जुड़े संवेदनशील सवालों पर गंभीर चुप्पी साध लिया करते थे. इस आलोक में मुख्य़ रूप से जावेद अख्तर, शबानी आजमी और नसीरुद्दीन शाह का खुल कर सामने आना स्वागत योग्य है. यही मौका है जब आमिर खान, शाहरूख खान,सलमान खान और बाकी तमाम असरदार मुसलमान कठमुल्लों की हरकतों को खारिज करके उन्हें सभ्य मुसलमानों से अलग-थलग करें. उन्हें अब ऑस्ट्रिया के वियना शहर में हुये भीषण “आतंकी” हमले की भी निंदा करनी होगी. वियना में मारा गया बंदूकधारी हमलावर इस्लामिक स्टेट का समर्थक था. वियना में कुछ हथियारबंद बंदूकधारियों ने छह जगहों पर गोलीबारी की है, जिसमें बहुत से लोग मारे गए और दर्जनों अभी भी मौत से संघर्ष कर रहे हैं . अब इस आतंकी हरकत की भी निंदा के लिए महत्वपूर्ण मुसलमानों को आगे आना होगा. उन्हें अब तो चुप नहीं बैठना. मुस्लिम बुद्दजीवियों के साथ दिक्कत ही यही है कि वे अपने समाज के कठमुल्लों और गुंडो से ही डरते हैं. उनसे ल़ड़ने के लिए कभी सामने नहीं आते. न जाने क्यों इनसे इतना डरते हैं लोग. इसलिए ये गुंडे आतंक मचाते हैं. आप की वफादारी धर्म के साथ जरूर ही रहनी चाहिये, परन्तु, राष्ट्रहित को ताक पर रख कर नहीं, राष्ट्रहित तो सर्वोपरि होना चाहिये .
खाते चीन से खौफ जेहादी
चीन में मुसलमानों के साथ क्या हो रहा है इसपर तो कोई कठमुल्ला आवाज नहीं उठाता. वहां पर तो किसी की गर्दन तो नहीं काटी जाती या गोली नहीं मारी जाती. कौन नहीं जानता कि चीन में मुसलमानों पर लगातार भीषण अत्याचार हो रहे हैं. चीन ने मुस्लिम बहुल शिनजियांग प्रांत में रहने वाले मुसलमानों को कस रखा है. उन्हें खान-पान के स्तर पर वह सब कुछ मज़बूरी में करना पड़ रहा है, जो उनके धर्म में पूर्ण रूप से निषेध है. यह सब कुछ शासक कम्युनिस्ट पार्टी के इशारों पर उन्हें धर्म भ्रष्ट करने के लिये ही हो रहा है. सारी इस्लामी दुनिया इन अत्याचारों पर चुप है. कहीं कोई प्रतिक्रिया सुनाई नहीं दे रही है. इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कारपोरेशन (ओआईसी) ने चीन में मुसलमानों पर हो रही ज्यादतियों पर एक शब्द भी विरोध का दर्ज नहीं किया है. पाकिस्तान भी पूरी तरह चुप है. वो तो चीन के खिलाफ कभी भी नहीं बोलेगा. वो चीन का पूरी तरह गुलाम बन चुका है. यही स्थिति सऊदी अरब और ईरान की भी है. शिनजियांग प्रांत के मुसलमानों को री-एजुकेशन कैंपों में ले जाकर कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से रू-ब-रू करवाया जा रहा है. इन शिविरों में अभी बताया जाता है कि दस लाख से अधिक चीनी मुसलमान हैं. यहाँ इनसे जबरन अपने इस्लाम की निंदा करने के लिए कहा जाता है. इन्हें डराया-धमकाया जाता है. ऐसे आहार दिये जाते हैं जो इस्लाम में हराम माना जाता है. यह सब कुछ इसलिए हो रहा है ताकि चीनी मुसलमान कम्युनिस्ट विचारधारा को अपना लें. वे इस्लाम की मूल शिक्षाओं से दूर हो जाएं. गौर करें कि चीन के खिलाफ हमारे देश के वामपंथी और सेक्युलरवादी भी कभी नहीं बोलते. वैसे तो ये नमकहराम लोग भारत में रहकर भारत की जड़ों को खोदने में लगे रहते हैं. पर मजाल है कि ये कभी कठमुल्लों या फिर चीन की मुस्लिम विरोधी अभियान पर एक शब्द भी बोलें. इनकी तब भी जुबान सिल गई थी जब भारत में ट्रिपल तलाक के खिलाफ कानून बन रहा था. यह तब भी नहीं मान रहे थे कि भारत में मुस्लिम औरतें की स्थिति बहुत खराब है.
बुनियादी सवालों से परहेज क्यों
फ्रांस में हत्यारों के हक में मुंबई, भोपाल और सहारनपुर में प्रदर्शन करने वाले मुसलमान कभी महंगाई, बेरोजगारी या अपने खुद के इलाकों में नए-नए स्कूल, कॉलेज या अस्पताल खुलवाने आदि की मांगों को लेकर तो कभी सड़कों पर नहीं उतरते. क्या कोई बता सकता है कि ये अपने बुनियादी सवालों को लेकर भी कब सड़कों पर उतरेगे? क्या इनके लिए महंगाई, निरक्षरता या बेरोजगारी जैसे सवाल अब गौण हो चुके हैं? क्या कभी देश के मुसलमान किसानों, दलितों, आदिवासियों या समाज के अन्य कमजोर वर्गों के हितों के लिये भी आगे आए हैं? कभी नहीं. पर ये उन हत्यारों के लिए सड़कों पर आ जाते हैं जो मासूमों को फ्रांस या आस्ट्रिया में मारते है. ये कभी कश्मीर में इस्लामिक कट्टरपंथियों के हाथों मारे गए पंडितों के लिए नहीं लड़ते. इन्हें अपने को हमेशा विक्टिम बताने का शौक है. ये सिर्फ अपने अधिकारों की बातें करते हैं. ये कर्तव्यों की चर्चा करते ही हत्थे से उखड़ जाते हैं.
अब देखिए कि जिस मुनव्वर राणा को इस देश ने दिल से प्यार दिया है, वह विक्षिप्त इंसानों की तरह से बात कर रहा है. क्यों लिबरल मुसलमान राणा को कसकर नहीं कोसते ताकि उसे एहसास तो हो कि वह कितना नीच बंदा है. राणा ने साबित कर दिया कि वह उन्मादी, असहिष्णु और कट्टर है. वह तो घोर कट्टर, सांप्रदायिक और सामंती निकला. लेकिन मुसलमानों का बौद्धिक वर्ग उनके कहे पर चुप्पी साधे है. मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ यही समस्या है कि वे आतंकवाद को लेकर उदासीन बने रहते हैं. इसलिए पूरी मुस्लिम बिरादरी नाहक ही कटघरे में आ जाती है.
इस समय भारत और पूरी दुनिया देख रही है कि बात-बात पर हस्ताक्षर अभियान चलाने वाले बुद्धिजीवी, वाममार्गी, सेक्युलर वगैरह जेहादी आतंकवाद के खिलाफ किस तरह का स्टैंड लेते हैं. जहां तक भारत की बात है तो औसत मुसलमान हिन्दुओँ से उम्मीद रखता है कि वे नास्तिकता की हद तक सेक्युलर हो जाएं पर वे खुद कठमुल्ले बने रहें. यह विकृत और ओछी मानसिकता है. इसे अब भारत की आम जनता द्वारा अच्छी तरह पहचान लिया गया है. अब भारत अपने देशवासी मुसलमानों से उम्मीद करता है कि वे अपनी ही कौम के कठमुल्लों से लड़े. उन्हें परास्त करें. उनकी जंग में देश का उन्हें समर्थन मिलेगा और तब उन्हें एक स्वाभिमानी और राष्ट्रवादी कौम के रूप में पूरा सम्मान भी मिलेगा .
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)