बिहार में फेर नीतीशे कुमार

जलज वर्मा

 |  11 Nov 2020 |   356
Culttoday

साख बड़ी चीज होती हैं. इस पंक्ति से असहमत नहीं हुआ जा सकता. लेकिन इससे सहमति पर भी विधानसभा चुनाव 2020 के परिणाम ने सवाल खड़े कर दिये हैं. भले ही राजग को 125 सीटे मिली लेकिन जनता दल यूनाइटेड की सीटे कम हुई. स्वाभाविक है कि 15 वर्षों के शासन के बाद मुख्यमंत्री या फिर उस दल के खिलाफ एंटी इंकमबैंसी होती है, और बिहार में ऐसा हुआ भी. लेकिन राजग को जो बहुमत मिला है उसमें नीतीश कुमार द्वारा बीते कार्यकाल में किये गये विकासमूल कार्यों से बनी साख के असर से इनकार भी नहीं किया जा सकता, हालांकि इस साख को भाजपा के नेता व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि और उनके प्रभाव ने भी बल दिया है.

वहीं दूसरी ओर सूबे में सबसे बड़े दल के रूप में राष्ट्रीय जनता दल उभरा है, लेकिन महागठबंधन 110 सीटों पर सिमट गया. माना जा रहा है कि इस चुनाव परिणाम ने तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी राजद को भले ही बड़े दल होने का जनादेश दिया लेकिन उनके पिता लालू यादव के कार्यकाल की काली छाया से वह नहीं उबर सकें और अपनी साख नहीं बना सके. स्वाभाविक है कि महागठबंधन का नेतृत्व तेजस्वी ही कर रहे थे लिहाजा कहा जा रहा है कि  महागठबंधन के नेतृत्व पर राजग नेतृत्व की साख भारी पड़ी.

चुनाव परिणाम के अनुसार, 243 विधानसभा सीटों में से राजग को 125 तो महागठबंधन को 110 और लोजपा को महज 1 सीट तो अन्य के खाते में 7 सीटे गईं है. राजग के घटकों में भाजपा को 74, जदयू को 43, विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) को चार और हिंदुस्तानी आवाम पार्टी (हम) को चार सीटें मिली. तो वहीं महागठबंधन में राजद को 75, कांग्रेस को 19, वाम दलों को 16 सीटें तथा लोजपा को एक, बसपा को एक और असद्दुदीन अवैसी की पार्टी एआईएमईएम  5 सीटों को पर जीत हासिल हुई. कोरोना काल के दौरान देश में हुए इस सबसे बड़े चुनाव के नतीजे आने में 15 घंटे से अधिक समय लगा. लेकिन राजग और महागठबंधन के बीच के मुकाबला कांटे का रहा. अंत-अंत तक स्थिति में किसी भी प्रकार के उलट-पुलट की संभावना से इनकार करने लायक स्थिति नहीं थी. स्थिति यह थी कि दोनों ही कुनबे अपनी अपनी जीत के प्रति आश्वस्त दिख या दिखा रहे थे. भाजपा, जदयू, राजद के कार्यालयों में अपनी अपनी जीत का दावा करते हुए जश्न मनाते हुए भी देखा गया. लंबे अर्से बाद देखा गया कि चुनाव के बाद विभिन्न सर्वे एजेंसियों या मीडिया घराने द्वारा किये गये एग्जिट पोल पूरी तरह से धाराशाही हो गये. सात नवंबर, 2020 को अंतिम चरण के मतदान के बाद सभी समाचार चैनलों पर एग्जिट पोल दिखाये जाने लगे औऱ उनपर राजनीति विश्लेषक अपनी राय भी देने लगे. स्थिति यह बन गई कि महागठबंधन अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हो गया तो वहीं राजग गठबंधन अपनी हार मान चुका था लेकिन 10 नवंबर को पासा पलट गया और नतीजे एग्जिट पोल के बिल्कुल विपरीत आए. हालांकि इस चुनाव में पुष्पम प्रिया, श्रेयसी सिंह, चिराग पासवान, लव सिन्हा ने खूब सुर्खियां बटोरी लेकिन श्रेयसी सिंह को छोड़ कर किसी ने जीत नही हासिल की. चिराग पासवान की पार्टी महज एक सीट जीत कर जदयू को काफी नुकसान पहुंचाया तो वहीं पुष्पम प्रिया जो मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में मैदान में उतरी थी, लेकिन उनको मिले वोटो पर सोशल मीडिया में उनका मजाक भी उड़ाया गया.  

भाजपा का विस्तार, जदयू का कद घटा

भले ही नीतीश कुमार के नेतृत्व में यह चुनाव राजग ने लड़ा और 125 सीटों के साथ बहुमत में भी आया लेकिन नीतीश कुमार की अपनी पार्टी का कद छोटा हो गया और वह 43 सीटों पर सिमट गई. हालांकि राजग के घटक वीआईपी के प्रमुख मुकेश सहनी खुद चुनाव हार गये लेकिन उनकी पार्टी ने चार सीटों पर जीत हासिल कर विधानसभा एंट्री कर ली. जदयू की सीटे कम होने के पीछे दो कारण हैं- पहला, संगठनात्मक तौर जनता दल (यू) शुरू से ही कमजोर रही है लिहाजा संगठन ना होने की वजह से चुनाव के तौर प्रचार प्रबंधन से लेकर उसके पहले सरकार या पार्टी के दृष्टिकोण को जनजन तक पहुंचाने में जदयू विफल रही. दूसरा, 15 वर्षों के शासनकाल में भले ही बिहार की स्थिति में सुधार आया है, बिजली-पानी, सड़कों को लेकर बिहार के आधारभूत संरचना में बदलाव आये हैं लेकिन राज्य में कोरोना काल में सरकार के रवैये, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर जदयू के प्रति एंटी इंकबैंसी हावी रही तो वहीं शराबबंदी के फैसले का नीतीश कुमार को लाभ के साथ नुकसान भी हुआ है. शराबबंदी के फैसले खुश महिला मतदाताओं ने तो जदयू को वोट दिया लेकिन इससे नाराज पुरुषों ने दूसरे दलों को प्राथमिकता दी.  2015 में जदयू को 71 तथा भाजपा को 53 सीटें मिलीं थीं. इसकी सबसे बड़ी वजह लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) रही. लोजपा राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए की घटक है किंतु बिहार विधानसभा चुनाव में उसने एनडीए के साथ दोस्ताना लड़ाई लड़ी. लोजपा प्रमुख ने उन सभी जगहों पर अपने उम्मीदवार दिए जहां से जदयू के प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे. चुनाव प्रचार में भी उन्होंने नीतीश कुमार पर तीखा हमला किया. यहां तक कि उन्हें जांच के बाद जेल भेजने की बात कही. राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि लोजपा की वजह से वोटों का बिखराव हुआ. जिन जगहों पर भाजपा थी वहां तो जदयू का वोट भाजपा को ट्रांसफर हुआ किंतु उन जगहों पर जहां जदयू के उम्मीदवार थे वहां भाजपा के वोटों का बिखराव हुआ.

वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी एक कैडर आधारित पार्टी है औऱ इसके साथ उसे राष्ट्रीय स्वयं सेवकसंघ तथा उनकी अनुसांगिक संगठनों का भी साथ मिलता है. ऊपर से भाजपा का प्रचारतंत्र काफी उम्दा माना जाता है. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से लेकर अन्य राज्यों के भाजपा के बड़े चेहरों ने धुंआधार चुनाव प्रचार किया और उसका उन्हें लाभ मिला. राजग के ही एक घटक लोजपा ने बिहार विधानसभा चुनाव में अलग राग अलापा और इससे जदयू को खासा नुकसान हुआ. राजनीति हलके में इस बात को लेकर शुरू से ही चर्चा की जा रही थी कि लोजपा का बिहार विधानसभा चुनाव में अलग राह अपनाने के पीछे भाजपा का हाथ है ताकि जदयू पर अंकुश लगाया जा सके. अगर इस थ्योरी को माना जाय तो भाजपा अपनी इस चाल में कामयाब रही. चुकी लोजपा पूरे चुनाव प्रचार में स्वयं को भाजपा का समर्थक और नीतीश कुमार के खिलाफ पेश किया. नतीजा यह हुआ कि भले ही उसने एक सीट जीती लेकिन 36 सीटों पर जदयू को काफी नुकसान पहुंचाया. जदयू को भाजपा से कम सीटे मिलने के बाद से ही एकबारगी यह कयास लगाया जाने लगा कि क्या भाजपा फिर से नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनायेगी या फिर नैतिकता को स्वीकारते हुए नीतीश कुमार खुद ही मुख्यमंत्री की शपथ लेने से इनकार कर देंगे. लेकिन इस कयास को दोनों दलों ने अपनी अपनी टिप्पणियों से खारिज कर दिया.

नीतीश कुमार का सियासी सफर

नीतीश कुमार पहली बार तीन मार्च, 2000 को बिहार के मुख्यमंत्री बने किंतु उनका यह कार्यकाल महज सात दिनों का यानी दस मार्च तक रहा. 2004 में वे छठी बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए. इसके बाद वे फिर 24 नवंबर, 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बने. 2010 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर बिहार सरकार के मुखिया बने किंतु लोकसभा चुनाव में हुई हार की वजह से उन्होंने इस्तीफा देकर 20 मई, 2014 को जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया. मांझी 20 फरवरी, 2015 तक मुख्यमंत्री रहे.

नीतीश कुमार ने 2015 में एनडीए से नाता तोड़ लिया और उसके बाद अपने विरोधी राजद व कांग्रेस के साथ मिलकर उन्होंने महागठबंधन के बैनर तले चुनाव लड़ा और 22 फरवरी, 2015 को पुन: उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. हालांकि 18 महीने तक सरकार चलाने के बाद 2017 में महागठबंधन से अलग होकर वे एक बार फिर अपने पुराने सहयोगी एनडीए के साथ आ गए और बीजेपी तथा अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई.

इंजीनियर बाबू से सुशासन बाबू तक

पटना शहर से सटे बख्तियारपुर में 1 मार्च 1951 को नीतीश कुमार का जन्म हुआ. नीतीश कुमार ने बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और इस दौरान वो इंजीनियर बाबू के नाम से भी जाने जाते थे. नीतीश कुमार जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से निकले वाले नेता हैं जो बिहार की सत्ता में डेढ़ दशक तक केंद्र में रहे. इंजीनियरिंग कॉलेज में ही उनके दोस्त और क्लासमेट रहे अरुण सिन्हा ने अपनी किताब 'नीतीश कुमारः द राइज़ ऑफ़ बिहार' में लिखा है कि कॉलेज के दिनों में नीतीश कुमार राज कपूर की फ़िल्मों के दीवाने थे, वो इस क़दर ये फ़िल्में देखते थे कि वे इस बारे में दोस्तों की हँसी-ठिठोली भी बर्दाश्त नहीं करते थे.

नीतीश कुमार को 150 रुपये की स्कॉलरशिप मिला करती थी जिससे वो हर महीने किताबें-मैगज़ीन खरीद लाते, ये वो चीज़ें होतीं जो उस वक़्त के अन्य बिहारी छात्रों के लिए सपने जैसी थीं लेकिन स्वतंत्रता सेनानी के बेटे नीतीश का झुकाव हमेशा राजनीति की ओर रहा. लालू प्रसाद यादव और जार्ज फ़र्नांडिस की छाया में राजनीति की शुरुआत करने वाले नीतीश कुमार ने राजनीति में 46 साल का लंबा रास्ता तय कर लिया है. जब 1995 में समता पार्टी को महज सात सीटें मिली तो नीतीश कुमार ने ये समझ लिया कि राज्य में तीन पार्टियां अलग-अलग लड़ाई नहीं लड़ सकतीं. इस तरह 1996 में नीतीश कुमार ने बीजेपी से गठबंधन किया. इस वक़्त लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों में नेतृत्व हुआ करता था. इस गठबंधन का नीतीश कुमार को फ़ायदा हुआ और साल 2000 में वह पहली बार मुख्यमंत्री बने, हालांकि ये पद उन्हें महज़ सात दिन के लिए ही मिला, लेकिन वे अपने-आपको लालू यादव के ख़िलाफ़ एक ठोस विकल्प बनाने में कामयाब रहे.

दलित से महादलित की राजनीति

2007 में नीतीश कुमार ने दलितों में भी सबसे ज़्यादा पिछड़ी जातियों के लिए 'महादलित' कैटेगरी बनाई. इनके लिए सरकारी योजनाएं लाई गईं. 2010 में घर, पढ़ाई के लिए लोन, स्कूली पोशाक देने की योजनाएं लाई गईं.  आज बिहार में सभी दलित जातियों को महादलित की कैटेगरी में डाला जा चुका है. साल 2018 में पासवानों को भी महादलित का दर्जा दे दिया गया. यूं तो बिहार में दलितों के सबसे बड़े नेता रामविलास पासवान हुए लेकिन जानकार कहते हैं कि दलितों के लिए ठोस काम नीतीश कुमार ने किया है. नीतीश ख़ुद 4 प्रतिशत आबादी वाली कुर्मी जाति से आते हैं, लेकिन सत्ता में रहते हुए उन्होंने हमेशा उस पार्टी के साथ गठबंधन में ही चुनाव लड़ा जिनके पास ठोस जाति-वर्ग का वोटर रहा हो.

चाहे वह बीजेपी के साथ लड़ा गया चुनाव हो, जहां बीजेपी समर्थक माने जाने वाले सवर्ण वोटरों का साथ उन्हें मिला या फिर 2015 में यादव-मुस्लिम आधार वाली आरजेडी के साथ चुनाव हो. नीतीश कुमार की पार्टी के पास कोई भी संस्थागत ढांचा नहीं है, बिहार के सुदूर ज़िलों में जेडीयू के पास बूथ लेवल के कार्यकर्ता तक नहीं है, लेकिन ये नीतीश कुमार की राजनीतिक कुशलता ही रही कि वह राज्य में वोट बेस और कार्यकर्ताओं वाली पार्टियों को किनारे लगाकर 15 साल तक सत्ता का केंद्र बने रहे.

सीएम बनते-बनते रह गए तेजस्वी

तेजस्वी यादव के चुनावी कैंपेन की बहुमत नहीं हासिल करने के बावजूद तारीफ़ हो रही है. हालात ऐसे बने कि तेजस्वी मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए. लेकिन राष्ट्रीय जनता दल के भीतर भी कई नेताओं का मानना है कि तेजस्वी ने कांग्रेस को 70 सीटें देकर सबसे बड़ी ग़लती की थी. कांग्रेस को 70 में से महज़ 19 सीटों पर ही जीत मिली है और बहुमत से पीछे रह जाने में यह अहम कारण बना. दूसरी तरफ़ महागठबंधन की एक और सहयोगी सीपीआईएमएल ने 19 में से 12 सीटें जीतकर शानदार प्रदर्शन किया.  यहां तक कि कांग्रेस 2015 के विधानसभा चुनाव परिणाम को भी नहीं दोहरा पाई. तब कांग्रेस 41 सीटों पर लड़ी थी और उसने 27 सीटों पर जीत हासिल की थी. बिहार के पूरे चुनावी कैंपेन में राहुल और तेजस्वी की कोई एक साथ रैली नहीं हुई. प्रियंका गांधी भी कैंपेन में नहीं आईं. आरजेडी, लेफ़्ट और कांग्रेस के बीच सीटों का बंटवारा मतदान के ठीक 25 दिन पहले हो पाया था. ये भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस को आरजेडी ने वो सीटें दीं जहां उसके लिए जीतना आसान नहीं था.

ओवैसी की बिहार में शानदार एंट्री

बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद अगर सबसे ज़्यादा किसी की चर्चा है तो वे हैं हैदराबाद के लोकसभा सांसद और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी. ओवैसी की पार्टी ने पांच सीटों पर जीत दर्ज की है. बिहार में इससे पहले एआईएमआईएम को 2019 में एक उपचुनाव में जीत मिली थी. ओवैसी की विपक्षी पार्टियां आलोचना कर रही हैं उनकी वजह से बीजेपी को फ़ायदा मिला है. वहीं ओवैसी ने अपनी जीत के बाद कहा, ''राजनीति आप अपनी ग़लतियों से सीखते हैं. हमारी पार्टी के बिहार प्रमुख अख़्तरुल ईमान ने बिहार में सभी बड़ी पार्टियों से संपर्क किया था लेकिन सबने अछूत समझा. मेरी पार्टी ने बड़े मुस्लिम नेताओं से भी मुलाक़ात की थी लेकिन सबने अछूत की तरह व्यवहार किया. लेकिन बिहार की जनता ने उन्हें आईना दिखा दिया है.''.   

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बिहार में नहीं जला चिराग

चिराग पासवान ख़ुद किसी सीट से चुनाव नहीं लड़े थे. लेकिन उनकी पार्टी 135 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और लोक जन शक्ति पार्टी सिर्फ़ एक सीट पर जीत हासिल कर पायी. चिराग पासवान ने ख़ुद को चुनाव से ठीक पहले जैसे बीजेपी से अलग किया और अपने दिल में पीएम मोदी के होने की बात की, उससे काफी चर्चाओं में रहे थे. एक तबके में ये भी कहा जा रहा था कि चिराग पासवान जेडीयू को नुकसान पहुंचाने के लिए मैदान में उतरी है. और यह बात काफी हद तक सच भी साबित हुई. सोशल मीडिया पर चिराग पासवान के राजनीतिक करियर पर भी सवाल उठाये गये.

वाम दलों का पुनः उदय

1995 के चुनाव में नीतीश कुमार ने सीपीआई (एमएल) के साथ चुनाव लड़ा था. सीपीआई (एमएल) के साथ ही नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक जीवन का पहला गठबंधन किया था. उनके नेतृत्व में समता पार्टी ने 310 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे और महज़ 7 सीटों पर उन्हें जीत मिली थी. गठबंधन के उनके साथी सीपीआई (एमएल) ने उस वक़्त भी 6 सीटों पर जीत हासिल की थी. ये वो दौर था जब अविभाजित बिहार विधानसभा में कुल 324 सीटें हुआ करती थी. साल 2020 आते-आते समय का चक्र ऐसा बदला कि उसी सीपीआई (एमएल) ने विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिल कर चुनाव लड़ा. 19 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए और 12 सीटों पर जीत दर्ज की है. उनसे साथ सीपीआई और सीपीएम ने भी दो दो सीटों पर जीत हासिल की है. बिहार विधानसभा के नतीजों के बारे में एक बात जो सबसे पुख़्ता तरीके से कही जा सकती है वो है सीपीआई (एमएल) का रिवाइवल. लेफ़्ट पार्टियों का भी प्रदर्शन कुल मिला कर अच्छा ही रही है. तीनों पार्टियां 29 सीटों पर लड़ी और 16 सीटों पर जीते. बंगाल और केरल के बाद बिहार तीसरा राज्य है जहां उनके विधायकों की संख्या ज़्यादा है. साल 2020 के विधानसभा चुनाव ने सीपीआई (एमएल) के लिए संजीवनी के तौर पर काम किया है. पिछले चुनाव तक ये पार्टी ही बिहार के चुनावी मैदान में अकेले के दम पर उतरती थी. लेकिन इस बार अपनी विचारधारा के साथ समझौता करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल जैसी क्षेत्रीय पार्टी के साथ गठबंधन किया और बहुत हद तक अपनी खोई हुई ज़मीन पाने में सफल रहे हैं. 2015 के विधानसभा चुनाव में इनको मात्र तीन सीटों पर जीत मिली थी. पिछली बार के नतीजों से सबक लेते हुए भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से अलग रखने के इरादे से उन्होंने इस बार महागठबंधन का हाथ थामा. जहाँ एक ओर आरजेडी जातिगत राजनीति में माहिर मानी जाती है, वहीं सीपीआई (एमएल) हमेशा से वर्ग संघर्ष की राजनीति करती आई है. इस बेमेल जोड़ी को उन्होंने क्यों स्वाकार किया? ये सवाल चुनाव में उनसे कई बार पूछा भी गया.

बिहारी राजनीति में सुशील मोदी के मायने

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को अगर चुनावी ज़मीन पर शिकस्त देने वाले नीतीश कुमार हैं तो उन्हें तथ्य और दस्तावेजों के ज़रिए शिकस्त देने वाले सुशील कुमार मोदी. नीतीश, मोदी और लालू -सत्तर के दशक में छात्र आंदोलन से उभरे चेहरे, जिनके इर्द-गिर्द आज भी बिहार की राजनीति बुनी हुई है. दिलचस्प है कि सुशील कुमार मोदी ने तो लालू यादव के साथ छात्र राजनीति शुरू की, लेकिन लालू प्रसाद यादव को जेल पहुंचाने में भी अहम भूमिका निभाई. सुशील कुमार मोदी की छात्र राजनीति की शुरुआत 1971 में हुई. वो उस वक्त पटना विश्वविद्यालय संघ की 5 सदस्यीय कैबिनेट के सदस्य निर्वाचित हुए. 1973 में वो महामंत्री चुने गए.उस वक्त पटना विश्वविद्यालय संघ के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और संयुक्त सचिव रविशंकर प्रसाद चुने गए थे. वनस्पति विज्ञान में पटना विश्वविद्यालय में ग्रैजुएशन (ऑनर्स) कर चुके सुशील कुमार मोदी बेहद जहीन छात्र माने जाते थे. भारतीय जनता पार्टी के सिद्धांतकार और संघ विचारक रहे केएन गोविंदाचार्य को सुशील कुमार मोदी का मेंटर माना जाता है.

सुशील कुमार मोदी के हाथ में टैबलेट उस वक्त देखी गई, जब राज्य के बहुत सारे नेताओं के लिए ये किसी अजूबे जैसा था. किताब, अख़बार और किसी भी विषय के तथ्य से उनका संबंध बहुत घनिष्ठ रहा. बिहार की राजनीति को सुशील कुमार मोदी 'त्रिभुज' कहते हैं जिसमें बीजेपी, आरजेडी और जेडीयू तीन भुजाएं हैं. सुशील कुमार मोदी ने नीतीश कुमार से नज़दीकी रखते हुए त्रिभुज की तीसरी भुजा यानी आरजेडी पर ही निशाना साधा.

सुशील कुमार मोदी साल 1996 में चारा घोटाले में पटना हाईकोर्ट में सीबीआई जांच की मांग को लेकर याचिका दायर करने वालों में से एक थे. 68 वर्षीय सुशील कुमार मोदी के साथ कोई बड़ा विवाद कभी नहीं जुड़ा. ये ज़रूर हुआ कि उनके परिवार के लोगों की वजह से वे ज़्यादा चर्चा में रहे.

अपनी ही जेनरेशन के दूसरे बीजेपी नेताओं से सुशील मोदी को जो चीज अलग कतार में खड़ा करती है, वो है उनका मजबूत 'पेपर वर्क'. बिहार बीजेपी जिस पर अगड़ी जाति के चन्द्रमोहन राय, ताराकांत झा, सीपी ठाकुर जैसे नेताओं का कब्जा रहा, वहां सुशील मोदी अपने इसी मज़बूत पेपर वर्क के जरिए जगह बनाने में कामयाब रहे.

भाजपा के लिए बिहार में जीत का महत्व

भाजपा के लिए बिहार विधानसभा चुनाव के साथ ही मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात में हुए उप-चुनाव में भी भारी सफलता मिली है. बिहार में 75 सीटों पर जीत कर भाजपा सूबे की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई और साथ ही राजग में पहले बड़ा भाई जदयू हुआ करता था अब उस जगह को भाजपा ने ली है. एक तरह से इस बढ़त ने भाजपा के लिए जहां आगे की राह आसान की वहीं ब्रांड मोदी की लोकप्रियता किस प्रकार बरकरार है, उस पर मोहर भी लगाया है. हालांकि इस जीत में ‘चिराग फैक्टर’ ने भी बड़ी भूमिका निभाई है लेकिन वर्ष 2021 में पश्चिम बंगाल में होने विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा जिस तरह से आक्रामक रुख अख्तियार किये हुए हैं, उसमें यह जीत और सहायक होगा. साथ ही वर्ष 2021 में बिहार से आने वाले राज्यसभा सीटें भी बरकरार रहेगी. इससे भाजपा नीत राजग राज्यसभा में बहुमत में बनी रह सकेगी. इस तरह से देखा जाए तो भाजपा की यह जीत उसके लिए काफी महत्वपूर्ण रही

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