बिहार में सब पर भारी पड़ा राम मंदिर-सुशासन

श्रीराजेश

 |  12 Nov 2020 |   1377
Culttoday

बिहार में राष्ट्रीय जनतात्रिक गठबंधन (एनडीए) को विधान सभा चुनावों में मिली सफलता ने तो यह सिद्ध कर ही दिया कि अब बिहार की 12 करोड़ प्रबुद्ध जनता लालू-राब़ड़ी देवी के जंगलराज में फिर से वापस जाने के लिए तैयार नहीं है. उस दौर की दहशत तो अभी भी औसत मेहनतकश बिहारी के जेहन में जीवित ही है. बिहार के मतदाताओं को लगा कि लालू-राबड़ी राज के पंद्रह सालों की अराजकता की तुलना में नीतीश कुमार-भाजपा अपने शासन के पंद्रह सालों में बिहार की रसातल में गई तस्वीर बहुत हद तक बदलने में सफल रहे. यह भी याद रखा जाना चाहिए कि मतदाताओं ने इस चुनाव में केन्द्र में नरेन्द्र मोदी सरकार की नीतियों के प्रति भी अपना गहरा विश्वास जताया. मोदी जी ही इस चुनाव की बाजी पलटने का असली काम किया. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को खत्म करने और राम मंदिर निर्माण का अपना सपना पूरा होने के चलते भी जनता ने एनडीए को खुलकर समर्थन दिया. बिहार के मतदाताओं ने भाजपा के उम्मीदवारों को जनता दल यू के उम्मीदवारों की अपेक्षा भाजपा के उम्मीदवारों को ज्यादा समर्थन दिया और भाजपा को जद यू के मुकाबले कहीं ज्यादा सीटें मिलीं . यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि मतदाताओं ने मोदी जी के ऊपर आस्था व्यक्त की.

 इसके साथ ही नतीजों ने तमाम एग्जिट पोल के अनुमानों को गलत साबित कर दिया. सभी एक्जिट पोल चुनावों में महागठबंधन को विजयी दिखा रहे थे. अब इन पोल तैयार करने वालों को सोचना होगा कि उनसे चूक कहां और किस स्तर पर हुई ? मैंने इस बात का अपने स्तर पर विश्लेषण किया है. हुआ यह कि राजद समर्थक ज्यादा उतावले और उदंड ढंग से पेश आ रहे थे और इस बात पर पूरी तरह निश्चित थे कि तेजस्वी जी तो मुख्यमंत्री बनने ही वाले हैं, उनके ऐसा मानने में कोई हर्ज भी नहीं था. लेकिन, वे यही बात सबसे मनवाने के लिये उतावले थे और जिन्होंने एक्जिट पोल में यह कहा कि मैंने तीर छाप (जद यू) को वोट दिया है उनसे झगडा किया और कुछ मामलों में उनका पीछा कर घर में घुसकर मारपीट तक की. इसकी प्रतिक्रिया भी हुई और एनडीए समर्थक वोटरों ने चुपचाप अपना वोट देकर घर का रास्ता नापा. इससे एग्जिट पोल सही ढंग से नहीं हो पाया.

बहरहाल, नीतीश कुमार एक बार फिर बिहार की सत्ता संभालेंगे. प्रधानमंत्री ने जनता को बुधवार की शाम को भाजपा कार्यालय में हजारों कार्यकर्ताओं को संबोधित करते  हुए यह स्पष्ट किया कि नीतीश जी ही एनडीए के मुख्यमंत्री होंगे है. यह जीत सरकार के संकल्पों की जीत है. वोटरों की चिंता करनेवाले नीतीश कुमार को ही जनता ने फिर से चुना. भविष्यवाणी और आकाशवाणी में तो बहुत अंतर होता है. जनता ने विकासशील प्रदेश को विकसित बनाने का स्वप्न देखनेवाले दूरदर्शी नेतृत्व के हाथों में सूबे की कमान सौंपने का फैसला लिया है. जनता को नीतीश जी और मोदी जी की डबल इंजन की सरकार वास्तव में पसंद आ गई. नारी सशक्तिकरण के क्षेत्र में नीतीश कुमार के कामों को आधी आबादी ने स्वीकारा. दलित, पिछड़े, वंचितों ने भी पूरा साथ दिया. सबका साथ, सबका विश्वास, सबका विकास और विकास विश्वास इसी रास्ते बिहार को आगे बढ़ना है. यही बिहार की जनता ने तय कर दिया.

अब कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह भी कह रहे हैं कि तेजस्वी यादव ने कांग्रेस को 70 सीटें देकर सबसे बड़ी ग़लती की थी. मेरा कहना है कि तेजस्वी तो लालू  जी के मार्गदर्शन पर ही एक-एक कदम चल रहे थे. उन्होंने कांग्रेस को मात्र वैसी ही सीटें दी जहाँ से राजद के जीत की कोई सम्भावना ही नहीं थी. अतः यह लालू जी ने कांग्रेस पर कोई उपकार नहीं किया यह तो उनकी सोची समझी रणनीतिक  चाल थी. इसीलिए, कांग्रेस को 70 में से महज़ 19 सीटों पर ही जीत मिली है और बहुमत से पीछे रह जाने में यह भी एक अहम कारण बना. कांग्रेस 2015 के विधानसभा चुनाव परिणाम को भी नहीं दोहरा पाई. तब कांग्रेस 41 सीटों पर लड़ी थी और उसने 27 सीटों पर जीत हासिल की थी. बिहार विधानसभा के चुनाव के परिणामों का गहराई से अध्ययन करने के दौरान पटना के गांधी मैदान में 5 जून,1974 को हुई लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी की विशाल रैली की याद आ जाती है.

मैं भी एक पत्रकार और एक आन्दोलनकारी की हैसियत से मंच पर ही बैठा थाI  मंच पर बैठने वालों में लालू यादव और नीतीश कुमार भी मौजूद थे. ये दोनों आगे चलकर सोशल जस्टिस की राजनीति करने वालों के  प्रमुख नेता बने. बिहार विधान सभा के हालिया चुनावों में तो अपने ऊपर लगे दर्जनों करप्शन के आरोपों के साबित होने के बाद जेल की सजा काट रहे लालू चुनावी कैंपेन में तो थे नहीं . पर पर्दे के पीछे सबकुछ वही कर रहे थे. महागठबंधन के नेता उनका नाम भर   ले रहे थे. नीतीश कुमार जी तो एनडीए की कैंपेन की अगुवाई तो कर रहे ही थे.

जेपी ने उस 5 जून,1974 की  रैली में “संपूर्ण क्रांति” का आहवान किया था. यानि राजनीतिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन. आजाद भारत ने जनता की भागेदारी के लिहाज से शायद ही इतनी बड़ी रैली कभी भी देश के किसी भाग में शायद ही देखी हो. तब लालू और नीतीश कुमार भी नौजवान थे. लालू 1977 में महज 28 साल की उम्र में सांसद बन गए थे.

लालू आगे चलकर 1990 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने. अफसोस कि गांधी मैदान के आंदोलन से निकले लालू की सारी राजनीति दिखावे भर की राजनीति निकली . यह बिल्कुल नहीं था कि राज्य का पूरा पिछड़ा समाज लालू में गांधी की तस्वीर  देख रहा था, लेकिन लालू यादव में उसको अपना तारणहार जरूर नजर आ रहा था. लालू को मैं उनके छात्र जीवन से जानता था. वे उस समय फटेहाल जरूर थे पर उनकी वाकपटुता, बुद्धि, चतुर चाल और राजनीतिक सूझबूझ के सभी कायल थे. उनमें अपार संभावनायें थीं. लेकिन, वे पशुपालन विभाग के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों के जाल में ऐसे फंस गये कि उन्होंने अपना और अपने पूरे परिवार और समर्थकों  का कैरियर चौपट कर डाला.

लालू ने सत्ता पर काबिज होते ही मैथिली की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता रद्ध कर दी थी. क्योंकि, उनका मानना था कि इस भाषा का इस्तेमाल अधिकतर मैथिल ब्राह्मण ही करते हैं जो कि एक बिलकुल ही गलत धारणा थी . क्योंकि, मैथिली तो पूरे उत्तर बिहार की मुख्य भाषा है. उसके बाद पटना का गॉल्फ कोर्स यह कहकर बंद करवा दिया कि यह तो अमीरों का खेल है. विद्यालयों की जगह “चरवाहा-विद्यालय” खोलने शुरू कर दिये, जो भी उनकी चाटुकारिता करे, चाहे वह कितना ही भ्रष्ट, कुकर्मी, अपराधी, माफिया क्यों न हो, उन्हें अपना आदमी कहकर संरक्षण देना शुरू कर दिया. बिहार लालू राज के दौरान जंगल राज में तब्दील होता गया. राज्य से प्रतिभा पलायन तेज हो गया. गावों में नौजवानों का रहना असुरक्षित हो गया. लोग देश के जिन स्थानों में जो कुछ काम मिला वहां भागकर जाने लगे.  सरकारी नौकरियों में अपनों को ही चुन चुनकर तरजीह मिलने लगी. लालू का ब्यूरोक्रेसी पर पूरा कब्जा हो चुका था. वे सीधे थानेदारों और छोटे मजिस्ट्रेटों से बातकर आदेश देने लगे. उद्योग धंधे तबाह होने लगे. अधिकांश उद्योगपतियों ने बिहार छोड़ दिया. अपहरण और फिरौती उद्योग तेजी से जमने लगे. बिहार के एकछत्र नेता ने राज्य का कोई भला नहीं किया. पता नहीं एक मेधावी राजनीतिज्ञ एक पूर्णतः नकारात्मक प्रशासक कैसे हो गया. एक बार मेरी इच्छा बिहार में एक अच्छे आवासीय विद्यालय खोलने की हुई. मैं लालू जी के पास गया और अपनी इच्छा बताई, उन्होंने छूटते ही कहा, “रविन्दर भाई!

चरवाहा विद्यालय खोलब त हम मदद करब.” लालू के विपरीत नीतीश कुमार ने बिहार और बिहारी समाज के लिए कुछ अच्छा करने की इच्छा शक्ति और जज्बा अवश्य दिखाया. उनकी सोच सदा सकारात्मक रही. वे कमिटेड और ईमानदार रहे. जंगल राज के बाद उन्होंने असंभव प्रतीत होने वाला कार्य कर दिखाया. बिहार को बेहतर शासन दिया. इसीलिये वे सुशासन बाबू भी कहलाए. इस बार के  राज्य विधान सभा चुनावों में एक तरह से नीतीश और लालू ही आमने सामने थे. तेजस्वी तो महागठबंधन का एक चेहरा मात्र थे. बहुत साफ है कि बिहार की जनता ने नीतीश कुमार में एक संभावना देखी. लालू क्या कर बैठेंगे, जनता को भरोसा न रहा. इसलिए उन्होंने नीतीश के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को फिर से सत्ता सौंप दी.

नीतीश कुमार को भी अब पूरी तरह से बिहार को विकास के रास्ते पर लेकर जाना होगा. बिहार का औद्योगिक विकास करना होगा. बिहार में निजी क्षेत्र का निवेश लाना होगा. औद्योगिक विकास के लिये निवेशकों को कुशल कामगार (स्किल्ड वर्कर ) की जरूरत होती है. कोरोना महामारी में लाखों कुशल कामगार बिहार के अपने गांवों में लौटें हैं. उन सबकी कुशलता का विवरण इकट्ठा करके निवेशकों को आकर्षित करना होगा. क्योंकि बिना बाहरी निवेश के बिहार का चौतरफा विकास मुमकिन नहीं है. बिहार के अधिकतर घर अभी भी सीवर से नहीं जुड़े हैं, इस तरफ भी बडे स्तर पर काम करना होग. गांव छोड़िए, शहरों के घरों में टैप वाटर तक नहीं आता है. अब इस दिन प्रतिदिन की जिन्दगी से जुड़ी इस गंभीर समस्या पर भी विचार करने की जरूरत है. पटना के अलावा एक भी सही एयरपोर्ट नहीं है. अब दरभंगा शुरू हुआ है.  एक भी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट नहीं है. मतलब यह कि नीतीश कुमार के सामने बड़ी चुनौती है. उन्हें राज्य का हर स्तर पर विकास करना है.

बिहार विधान सभा चुनाव के नतीजों से युवराज से शहंशाह बनने की चाहत रखनेवाले थोड़े बेचैन जरूर होंगे.  परंतु उन्हें यह भी जानना चाहिए कि लोकतंत्र में सशक्त विपक्ष की भी बड़ी अहम भूमिका होती है. उनके लिए यह समय चिंतन और आत्मविश्लेषण का है. पिछली विधान सभा से बेहतर प्रदर्शन के लिये एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाना उनके भविष्य को सुधार सकता है. वे यदि जनता में अपनी साख अपने काम के बल पर बनायें तभी तो जनता भी उनपर भरोसा करेगी. बिहार की तरक्की कैसे हो, बिहारवासियों का भविष्य कैसे सुरक्षित हो, बस सबको यही सोचना है. चुनावों के दौरान जो कुछ भी कटूता उत्पन्न हुई हो उसे भूल  जाना है और सबको मिलजुलकर बिहार को आगे बढ़ाना है.

अब बिहार को भी देश के विकसित राज्यों के साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा. बिहार में रोजगार के बड़े अवसर पैदा करने होंगे. यह मात्र सरकारी नौकरियों से पूरा हो ही नहीं सकता. उद्योग-धंधे बढ़ाना होगा. बिहार से पलायन को रोकना होगा. बिहार देश के ज्ञान की राजधानी है. बिहारी अपने विलक्षण ज्ञान,मेहनत और ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध है. उन्हीं बिहारियों को उनके अपने राज्य बिहार में ही कामकाज, स्तरीय शिक्षा और  स्वास्थ्य सुविधाएं मिले, यही तो अब नीतीश जी के नेतृत्व में बिहार सरकार को करना होगा.

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)


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