राज करेगी भाजपा, बाकी बचै न कोय

श्रीराजेश

 |   01 Oct 2018 |   139
Culttoday

अमित शाह के बयान से पार्टी के नारे “एक देश एक चुनाव” का मूल मंतव्य उजागर हो गया है. सरकार इसके जरिये देश में राष्ट्रपति-प्रणाली लादने, क्षेत्रीय, स्थानीय छोटे दलों का अस्तित्व समाप्त करने, महागठबंधन जैसी स्थिति से पार पाने, लंबे समय तक एक ही पार्टी का वर्चस्व बनाये रखने की मंसूबाबंदी के साथ ही अजेय भी बनना चाहती है. यह दल की दूरगामी योजना है,योजना अब की नहीं तो अगली बार सिरे चढेगी या जब भी सरकार और लोकतंत्र के गले तक पहुंच बनेगी, इसे साकार करेगी. हालांकि अजेय, अमर बनने की ईच्छा रखने वालों की कहानियों,किस्सों से पुराण और इतिहास भरे पड़े हैं और उनकी परिणितियों से भी...

 

भाजपा मिशन 19 में लग चुकी है. इस मिशन का लक्ष्य है,”टारगेटॅ 360”. यानी समूचे भारत से 360 सीटें लाना. इस बीच उसने एक नया अभियान छेड़ा है. लगता है यह अभियान 2019 से आगे जायेगा. मिशन 2019 उसकी पूर्वपीठिका बनेगी. वह अब मिशन 2019 के साथ अजेय बनने के अभियान में भी जुट रही है. इस अभियान का मुख्य उपकरण होगा, “एक देश एक चुनाव”. लोकतंत्र की समिधा प्रयोग कर राजनीति का यह महायज्ञ सफल रहा तो भाजपा को अजेय होने का वरदान मिल सकता है. विगत में एक देश एक चुनाव के विचार का विरोध कई बड़े और कुछ छोटे दल अपनी अपनी दलगत वजहों से करते आ रहे थे पर जबसे उनको इस बात का अहसास हुआ है कि यह राष्ट्रहित के नाम पर उनके साथ एक गंभीर खेल है तब से वे इस बारे में खासे मुखर हो गये हैं. एक पुराने कांग्रेसी पीआर श्रीवास्तव कहते हैं,” भाजपा अध्यक्ष के मुख से बरसों से मन में पलती बात बाहर आ गयी है. लोकतंत्र, प्रजातंत्र में आखिर दंभपूर्ण अजेय शब्द का क्या अर्थ. यह तो राजशाही, तानाशाही,अधिनायकवाद की भाषा है. पहले सबसे प्रमुख विरोधी यानी कांग्रेस से मुक्त भारत यानी सांकेतिक तौर पर विपक्ष हीन राजनीति की चाहत फिर राज्यों में येन केन प्रकारेण चाहे धुर विरोधी वैचारिक दल के साथ ही क्यों न संग करना पड़े, सत्ता हथियाने की मंशा.” सबब यह कि सियासी दल समझ गये हैं कि भाजपा द्वारा चलाया यह अभियान इस बात की कोशिश है कि कोई ऐसी सूरत निकले कि वह सत्ता से कभी च्युत न हो. वह चाहती है कि सत्ता की ताकत के जरिये चुनाव प्रक्रिया को महज एक समयबद्ध अनुष्ठान बना कर उसे फिर फिर राज करने के उपकरण बतौर स्थापित कर दिया जाये.

कोई कुछ भी कहता रहे, सच तो यह है कि मोदी सरकार कुछ भी छोटा नहीं करती. उसके लक्ष्य हमेशा बड़े, लार्जर देन लाइफ होते हैं. नोटबंदी, जीएसटी, समूचे देश में स्वच्छता अभियान, स्मार्ट सिटी कोई भी योजना परियोजना, अभियान, आयोजन ले लें. अब समूचे देश में लोकसभा और विधान सभा का चुनाव एक साथ कराने को प्रधानमंत्री आज़ाद भारत के बाद सबसे बड़ा चुनाव सुधार के बतौर लागू कराना चाहते हैं. पार्टी का मानना है इसके जरिये हम संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र को प्रधानमंत्री की अगुवाई में धरती के सबसे महान लोकतंत्र में बदल देंगे. तो क्या हम समझें कि उनकी इतिहास पुरुष बन कर गली चौराहों पर मूर्तिमान होने से लेकर नोटों पर महात्मा गांधी को रिप्लेस करने की है. मूर्ति का तो पता नहीं पर नोटों पर काबिज होने के लिये लाजिम है कि उनकी पार्टी अजेय रहे, लोकतंत्र में भी उनका पार्टी की राजशाही चलती रहे जिससे देश की मुद्रा पर उनका अंकन निर्विरोध हो सके. इसके लिये चाहिये चुनावी तंत्र पर पूरी पकड़. निस्संदेह इस कोशिश को भले ही राष्ट्रहित से जोड़ा जाये पर विरोध तकरीबन हर खेमे से हो रहा है, लेकिन केंद्र सरकार और चुनाव आयोग दोनों यह बात बखूबी जानते हैं कि 2019 में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराना असंभव की हद तक कठिन और तकरीबन नामुमकिन है. चुनाव आयोग कभी सरकारी दबाव में हुंकारी भर लेता है, पर अब सही मायनों में उसने हाथ खड़े कर दिये हैं. लेकिन सरकार फिर भी लगातार इस कवायद में लगी हुई है कि एक राष्ट्र एक चुनाव का फार्मूला लागू किया जाये. यह बात सरकार उस दिन तक करती रहेगी जिस दिन आम चुनावों के तारीखों की घोषणा हो जायेगी. उसके बाद वह आम चुनावों में लग जायेगी और उसके बाद अगर वह चुनावों में सफल हो जाती है,उसकी सरकर मजबूत हो कर लौटती है तो इस बार वह बयानों,बैठकों, घोषणाओं से आगे बढ कर वह हर उपाय करेगी जिससे देश में विधानसभा और लोकसभा का के चुनाव एक साथ कराने का रास्ता साफ हो. वह हरचंद कोशिश करेगी कि 2024 में उसके मंसूबे के मुताबिक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हों. आखिर सरकार चुनाव साथ कराने के प्रति इतनी अडिग और गंभीर क्यों दिखती है.

भाजपा देश और राज्य के चुनाव एक साथ कराने पर इस कदर क्यों उतारू है इस पर वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक बद्री विशाल कहते हैं कि किसी विधि सम्मत राज्य में कोई अपनी मनमानी नहीं कर सकता, अमीर गरीब, ऊंच नीच सभी देश के कानून से बंधे होते हैं पर अगर कोई कानून ही बदलने की स्थिति में आ जाये, लोकतंत्र ने उसे वह शक्ति दे दी कि उसका कारगर विरोध  संभव नहीं तो वह कानून बदल कर अपनी मनमानी तो कर ही सकता है. ठीक उसी तरह चुनावी लोकतंत्र की धुरी है चुनाव, अगर कोई ऐसा तंत्र निर्मित कर दे कि वह चुनावों के विभिन्न कारकों पर अपना परोक्ष प्रभाव डाल कर उसके परिणामों को प्रभावित कर सके तो वह दल बहुत हद तक अजेय होगा. भले ही यह तानाशाही, राजशाही, अधिनायकवाद या सैन्य शासन नहीं होगा पर यह एक थोथा लोकतंत्र होगा. अपने द्वारा निर्मित जनता, अपने नियत वोट बैंक और अपने समर्थकों,संगठनों, जेबी जन माध्यमों के वाला एक स्वनिर्मित स्व्यंभू महान लोकतंत्र. सो इसके लिये सबसे आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है कि चुनावों और चुनाव प्रक्रिया को अपने मन मुतबिक बनाया जाये. विरोध न्यूनतम हो इसके लिये इसका आधार राष्ट्र हित बताया जाना ही मुफीद है. इससे इस योजना की मुखालफत करने वालों को राष्ट्रद्रोही करार देने में भी आसानी होगी.” राजनीतिशास्त्र के व्याख्याता और लेखक अमित श्रीवास्तव कहते हैं कि, “इस विचार के पीछे इरादा अच्छा नहीं है. यह प्रस्ताव लोकतंत्र की बुनियाद पर कुठाराघात बनेगा इसके पीछे अधिनायकवादी रवैया दिखता है.’

भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक असंभव से लक्ष्य एक देश,एक चुनाव’  की इस कदर पैरवी के पीछे उनकी मंशा इतनी जल्दी उजागर हो जायेगी यह उन्होंने भी नहीं सोचा होगा. मंसूबों के सामने आ जाने से ज्यादा खतरनाक है कि विपक्षी इसे शातिराना सियासी सजिश समझ कर बुरी तरह डर गया है. और डरा विपक्ष ज्यादा हमलावर हो सकता है. विपक्षी बूझ गये हैं कि भाजपा अगर सत्ता में और वर्तमान जैसी स्थिति में रहते हुये एक साथ चुनाव कराती है तो केवल वही फायदे में रहेगी बाकी लोगों के लिये यह खेल घाटे का होगा, यह अलग बात है कि यह भयग्रस्त विपक्षियों का आकलन है जो सही नहीं भी हो सकता है. लेकिन उनका भय बेबुनियाद नहीं है. एक साथ होने वाले चुनाव को जीतने के लिये तीन चीजें जो सबसे अहम हैं वह यह कि राजनीतिक दल संगठनात्मक स्तर पर समूचे देश में फैला होना चाहिये, दूसरे खूब धन होना चाहिये और केंद्र स्तर पर करिश्माई नेता और राज्य के स्तर पर लोकप्रिय और जुझारू चेहरा. इन सभी कसौटियों पर केवल भाजपा ही खरी उतरती है. भाजपा संगठनात्मक स्तर पर कांग्रेस से भी ज्यादा व्यापक और मजबूत स्थिति में है. वह सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा सदस्यों वाला संगठन है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के जमीनी कार्यकर्ता उसके आधारभूत ताकत हैं. भाजपा के पास धुंआधार चंदा आ रहा है, सत्ता होने के अलावा वह बेहद मजबूत आर्थिक स्थिति में है, जबकि कांग्रेस इतनी विपन्न है कि वह एक साथ चुनाव लड़ने में सक्षम नहीं है. रही बात केंद्र स्तर के नेता की तो सारे विपक्षी मिल भी जायें तो मोदी के टक्कर का दमदार वक्ता और प्रभावी नेता नहीं दे सकते. मोदी की लोकप्रियता भले ही छीज रही हो पर वे अपने किसी भी निकटतम प्रतिद्वंद्वी से अभी आगे हैं. यह मौका जल्द भुना लेना ही ठीक.

दो ही प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां हैं, भाजपा और कांग्रेस. इन मामलों में कांग्रेस तो कहीं से मुकाबले में नहीं है, पर बात जब बात क्षेत्रीय पार्टियों और उनसे बने गठबंधन की आती है तो एक साथ चुनाव होने पर उनकी राजनीति कमजोर कर देना आसान होगा. साधन संपन्न पार्टी के लिये सघन प्रचार कर भाजपा के लिये अपनी हवा बनाना आसान हो जायेगा. बाकी दल जहां किसी केंद्रीयकृत राष्ट्रीय चेहरे के लिये तरसेंगे वहीं भाजपा मोदी का चेहरा न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि राज्य स्तर पर भी भुनायेगी. यह अच्छी बात नहीं होगी. पर इससे केंद्र के साथ राज्य में भी एक ही पार्टी की सरकार बनाने की संभावना बनेगी. भाजपा के लिये सोने और सुहागे जैसा संयोग. अगर देशभर में एक साथ चुनाव होंगे सारा ध्यान लोकसभा के चुनाव पर होगा. राज्यों के मुद्दे दब जायेंगे. ज्यादातर राज्यों में भाजपा का शासन है. अधिकतर जगह पर वह फेल है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में करीब डेढ़ दशक से और राजस्थान में पांच साल से भाजपा सत्ता में है, तीनों राज्य सरकारों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर है. किसान और युवा नाराज हैं. एक साथ चुनाव की लहर यह सब धो सकती है. अमूमन केन्द्रीय और प्रादेशिक मुद्दे अलग और आपस में विरोधाभासी भी हैं. ऐसी स्थिति में कोई महागठबंधन एक ही घोषणा-पत्र पर सभी जगह चुनाव कैसे लड़ेगा उसकी राजनीति और वोटबैंक का सवाल आ जायेगा. महागठबंधन जैसी अवधारणा को पलीता लग जायेगा. एक साथ चुनाव होने पर मोदी राज्य सरकारों की नाकामियां छिपाकर बहस इस बात की ओर ले जाएंगे कि वह देश से अव्यवस्था हटाना चहते हैं और विपक्षी उन्हें, देश खतरे में है, अगला प्रधानमंत्री कौन होना चाहिए भारत को केवल मोदी ही बचा सकते हैं, इत्यादि. यह बहस देशव्यापी होगी यानी राज्य और केंद्र दोनों की सत्ता के लिये रामबाण दांव. 

नेशनल यूथ कांग्रेस से जुड़े एक कार्यकर्ता नरेश सिरोही कहते हैं कि,” भाजपा हमेशा नकल करती है, ओरिजनल कुछ भी नहीं. उसने देखा कि शुरुआत में लगातार जब लगातार एक साथ चुनाव हुये तो सत्ताधारी कांग्रेस ही जीतती रही. वह भी एक साथ चुनाव करायेगी तो लगातार जीतती रहेगी. उसका एकछत्र राज कायम हो जायेगा दूसरी पार्टियां उससे मुकाबला नहीं कर सकेंगी. कम साधन संसाधन रखने वाली पार्टियां दौड़ से बाहर हो जायेंगी और बहुत सी तो खत्म”. तो क्या भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मकसद एक साथ चुनाव की पैरवी करने के पीछे देश के लोकतंत्र की दलगत विविधता को नष्ट करना है. एक हिंदी दैनिक के पूर्व संपादक अशोक चौधरी कहते हैं, “'एक चुनाव का अभियान भारत में राष्ट्रपति केंद्रित शासन प्रणाली वाली व्यवस्था लाने की साजिश है. यह उतना बुरा न भी हो पर इसका निहित एजेंडा संघवाद और राज्यों की स्वायत्तता को अस्थिर करने का है. यह हमारे लोकतंत्र और हमारे संविधान की मूल भावना— दोनों से खेलने वाला है." सच तो यह है कि अगर यह लोकतंत्र के लिये सबसे बढिया विकल्प होता तो विवेकशील संविधान निर्माता एक साथ चुनाव को अनिवार्य और बाध्यकारी बना सकते थे. एक पार्टी के वर्चस्व से, लोकतंत्र कमजोर होगा और क्षेत्रीय दलों पर आघात,देश दो या तीन पार्टी प्रणाली अपना लेगा. यह विविधता से भरे देश के लिये ठीक नहीं होगा. लगातार चुनावी चक्र केंद्र सरकार और राजनीतिक दलों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाये रखता है उन्हें सक्रिय रखता है. फिलहाल तो विपक्षी दल डरे हुये हैं. उन्हें फिक्र है कि अगर भाजपा चाहे तो संविधान में संशोधन कराए बगैर ही 17 बड़े राज्यों में से 11 राज्यों में ''एक देश, एक चुनाव" लागू कर सकती है. छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव दिसंबर 2018 में होने हैं, वह महाराष्ट्र और हरियाणा समेत भाजपा शासित कुछ अन्य राज्यों से भी समय से पहले चुनाव कराने को कह सकती है उधर केंद्र के साथ सुर मिलाने वाला चुनाव आयोग अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करके आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा में भी जहां 2014 में लोकसभा चुनावों के साथ ही विधानसभाओं के वोट पड़े थे, पहले चुनाव कराने की घोषणा कर सकता है. अगर ऐसा हुआ तो विपक्ष जो अभी इसके लिये बिल्कुल तैयार नहीं है.

स्रोतः गंभीर समाचार

 


RECENT NEWS

देश के सबसे अमीर और 'गरीब' मुख्यमंत्री
कल्ट करंट डेस्क |  31 Dec 2024 |  
ईओएस 01: अंतरिक्ष में भारत की तीसरी आंख
योगेश कुमार गोयल |  21 Nov 2020 |  
उपेक्षित है सिविल सेवा में सुधार
लालजी जायसवाल |  17 Nov 2020 |  
सातवीं बार मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार
पंडित पीके तिवारी |  16 Nov 2020 |  
आखिर क्या है एग्जिट पोल का इतिहास?
योगेश कुमार गोयल |  12 Nov 2020 |  
आसान नहीं है गुर्जर आरक्षण की राह
योगेश कुमार गोयल |  12 Nov 2020 |  
बिहार में फेर नीतीशे कुमार
श्रीराजेश |  11 Nov 2020 |  
To contribute an article to CULT CURRENT or enquire about us, please write to editor@cultcurrent.com . If you want to comment on an article, please post your comment on the relevant story page.
All content © Cult Current, unless otherwise noted or attributed. CULT CURRENT is published by the URJAS MEDIA VENTURE, this is registered under Chapter V of the Finance Act 1994. (Govt. of India)