इस अर्थ के चैंपियन बनने का अर्थ
श्रीराजेश
| 08 Oct 2018 |
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देश के प्रधानमंत्री का संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रदत्त सर्वोच्च पर्यावरणीय पुरस्कार से सम्मानित होना वाकई उनके और देश के लिए भी उपलब्धि की बात है. “चैंपियंस ऑफ अर्थ” का अवार्ड स्वीकारते हुये प्रधानमंत्री ने जो कहा वह भी उल्लेखनीय सत्य है कि, क्लाइमेट, क्लाइमटी और कल्चर का गहरा नाता है.
अगर किसी संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण के प्रति गहरा लगाव और सोच सम्मिलित नहीं होगी तो आपदा अवश्यंभावी है. उनके अनुसार उनकी सरकार की पर्यावरण की दिशा में सबसे बड़ी सफलता यह है कि लोगों के पर्यावरण और प्रकृति के प्रति व्यवहार और सोच में बदलाव आया है.
भारतीय जीवन शैली और सभ्यता तथा संस्कृति में पर्यावरण के प्रति गहरी संवेदना का समावेश हजारों बरसों से रहा है. हम पेड़-पौधों को पूजनीय समझते हैं, उनकी पूजा करते हैं. मौसम या ऋतुओं के चक्र के अनुसार हमारा आहार, विहार, व्यवहार नियत हैं, उसके अनुकूल जीवन जीते हैं, मौसमों के अनुसार त्योहार मनाते हैं,लोक गीतों –लोक कथाओं में प्रकृति से रिश्ते की बात करते हैं.
यह हम हजारों बरसों से करते आये हैं. पर प्रधानमंत्री जी के कथनानुसार अब सरकारी कोशिशों से लाया गया यह बदलाव कैसा है, क्या यह पहले के विपरीत है या अपनी सभ्यता, संस्कृति की ओर पीछे जड़ों की ओर लौट जाने वाला अथवा विकास के साथ तालमेल मिलाने वाला या फिर बस सतही स्तर पर प्रयावरण की चिंता भर करने वाला, इस परिवर्तन का कितना सकारात्मक, नकारात्मक प्रभाव है, यह सब बहस का विषय है.
अगर हम में सकारात्मक बदलाव आया है तो आज पर्यावरणीय संकट पहले से ज्यादा क्यों गहराता जा रहा है. जल, जंगल, जमीन पर खतरा लगातार बढता जा रहा है. पर्यावरणीय विसंगतियां चहुंओर हैं. देश के महानगरों में नहीं छोटे शहरों के बहुत से हिस्से में हर सांस जहरीली है.
कीटनाशी और दूसरे रासायनिक पदार्थ अनजाने ही विकट और असाध्य रोग बांट रहे हैं. देश कई तरह के रोगों की राजधानी बन गया है. गंगा यमुना तो क्या देश की तकरीबन सभी सदानीरा नदियां सूख रही हैं, उनमें गाद भरा है, प्रवाह कम हुआ है, कचरे, गंदगी, जलमल और तमाम अपशिष्टों का बोझ ढोने को वे मजबूर हैं.
लोग भूजल को शहर से लेकर गांव तक बेतहाशा चूस रहे हैं, जमीन का पानी जहरीला होता जा रहा है. पीने का पानी घट रहा है. पेड़ कम होते जा रहे हैं, कंकरीट के जंगल बढते जा रहे हैं. पहाड़ लगातार नंगे हो रहे हैं. रेडियोधर्मी विकिरण से लेकर प्रकाश प्रदूषण तक हर तरह का प्रदूषण घटने की बजाए बढता क्यों जा रहा है.
जीवों की कई प्रजातियां नष्ट हो गयी, वनस्पतियों की बहुतेरी विविधताएं कुछ ही दशकों में देखते देखते ही समाप्त हो गयीं. सैकडों जीव और वनस्पतियों की प्रजातियों का अस्तित्व संकट में है. इसके बावजूद इस ओर कोई बड़ी चेतना नहीं नजर आती. यह किसी और “अर्थ” के अनर्थ की नहीं प्लास्टिक से पटे पर्यावरण वाले भारतभूमि की ही कहानी है.
हमारी संस्कृति अगर पर्यावरण के साथ इतनी ही समरस है, जीवन शैली में पर्यावरण प्रेम इस कदर शामिल है, हम अपनी प्रकृति प्रेमी सभ्यता की सीख भूले नहीं तो आखिर प्रदूषण के चलते हर बरस लाखों मौतें क्यों झेल रहे हैं, भूस्खलन, बाढ, सूखा और इस तरह की दूसरी कई क्लाइमिटी हमें हर बार अपना शिकार क्यों बना रही है. और यह कम होने की बजाये ज्यादा ही क्यों सता रहा है, तब जबकि हमरा कल्चर, क्लाइमेट से करीबी रिश्ता रखता है.
कभी-कभी, दैविक आपदाओं, प्रकृति-जन्य बदलाव के कारण प्रकृति-चक्र टूटते हैं, पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ जाता है. यह विषमता पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों एवं अन्य जीवों की पूरी जाति ही लील चुकी है और कई महान तथा विकसित सभ्यताओं के पतन का कारण बनी है. पर हद तो यह है कि दैविक और प्राकृतिक आपदाओं को बुलाने का सबब हमारे क्रिया-कलाप बन रहे हैं.
निस्संदेह यह तथ्य है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति और जीवन शैली पर्यावरण हितैषी थी. पर फिलहाल वह वैसी है नहीं. हमें यह सच स्वीकारना चाहिये. सच तो यह है कि बजाये इस अपनी पर्यावरणीय परंपरा का यशोगान करते रहने के हमें अपनी पुरानी पर्यावरणीय मूल्य, मान्यताओं, सभ्यता और संस्कृति के पुनर्जागरण का प्रयास करना चाहिये.
अतीत की याद कर, खुश होना और वर्तमान की पर्यावरणीय सचाई से मुंह छिपाना तथा अपने क्रिया कलापों के जरिये प्रकृति की आंखों में धूल झोंकना ठीक नहीं. पर्यावरण में गंदगी, प्रदूषण घोलना जितना बड़ा अपराध है उतना ही बड़ा पर्यावरणीय अपराध यह मुगालता या भ्रम फैलाना भी है कि हम पर्यावरण के बारे में बहुत जागरूक जागरूक बनते जा रहे हैं.
पर्यावरण, यानी परि आवरण अथवा चारो ओर से ढंकने वाला आच्छादन. यह आवरण छीज रहा है बेहतर हो कि सरकार इसे जुमलेबाजी से ढंकने की कोशिश करने के बजाये भारतीय प्राचीन पर्यावरणीय परंपरा को स्थापित करने की दिशा में कुछ ठोस काम करे तो यह आवरण ज्यादा मजबूत होगा.