वुहान के लैब से निकले कोरोना वायरस ने दुनिया के ढाई लाख लोगों की जान लेली है. इसके साथ ही दुनिया की अर्थव्यस्था घोर मंदी में प्रवेश कर चुकी है और वश्विक अर्थव्यवस्था को तीन फीसदी का नुकसान हो चुका है. लाखों कंपनियों की कमाई बंद हो गई है और पर्यटन उद्योग पर तो रातोंरात जैसे ताला लग गया है. ऐसे हालातों के लिए सीधे-सीधे चीन को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहते रहे हैं और इसे लेकर अमेरिका और चीन के बीच शीतयुद्ध जैसे हालात बने हुए हैं. इससे हुए नुकसान की भरपायी के लिए अमेरिका सहित जर्मनी और कई देश चीन से हर्जाना वसूलने की बात कह रहे हैं. जर्मन अख़बार 'बिल्ड' ने महामारी से जर्मनी को हुए आर्थिक नुक़सान का हिसाब-किताब लगाया है और कहा है कि जर्मनी को 160 मिलियन डॉलर का नुक़सान हुआ है और इसकी देनदारी चीन पर बनती है.
दुनिया भर में कई कंपनियां, आम से ख़ास लोग चीन से नुक़सान की भरपाई की संभावना तलाश रहे हैं. सभी का ये कहना है कि चीन ने महामारी की शुरुआत के समय क़दम नहीं उठाए और दुनिया को इससे आगाह करने में देरी की.
नए कोरोना वायरस से निपटने में चीन से चूक हुई? ये इल्ज़ाम उस पर लगाना कहां तक मुमकिन है. ब्रितानी थिंकटैंक चैटम हाउस में इंटरनेशनल लॉ के एक्सपर्ट विम मुलर कहते हैं, "इसके लिए तो दूसरे देशों को ही क़दम उठाना होगा. इसके लिए पहले उन्हें किसी ऐसे अंतरराष्ट्रीय क़ानून या किसी प्रावधान का पता लगाना होगा जिसका चीन ने उल्लंघन किया हो." "इसके बाद जिस दूसरी चीज़ का ख़्याल रखना होगा, वो ये है कि एक ऐसा कोर्ट खोजा जाए जिसके पास इसका ज्यूरिसडिक्शन हो यानी मामले की सुनवाई का अधिकार हो. अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों में ये हमेशा बहुत मुश्किल होता है. क्योंकि आम तौर पर कोई देश ये नहीं चाहता कि किसी कोर्ट के पास उसके आचरण पर फ़ैसला सुनाने का अधिकार हो."
विम मुलर का कहना है कि चीन पर क़ानूनी कार्रवाई के लिए जितने भी तरीक़े सुझाए गए हैं, उसमें इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में चीन को खड़ा करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के संविधान के अनुच्छेद 75 के इस्तेमाल की बेहतर संभावना है. इसमें कहा गया है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के संविधान के किसी प्रावधान को लेकर अगर कोई विवाद उठता है और वो विवाद बातचीत से या हेल्थ एसेंबली में नहीं सुलझ पाता है तो कोई देश इसे आईसीजे में ले जा सकता है. जैसे कि इस मामले में विवाद इस बात पर है कि चीन ने अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया. लेकिन फिर भी चीन को आईसीजे में ले जाने की चाहत रखने वाले देश को पहले उससे बात करने की कोशिश करनी होगी. विश्व स्वास्थ्य संगठन की हेल्थ एसेंबली में मुद्दा ले जाना होगा."
स्पेन की यूनिवर्सिटी ऑफ़ सेविया में पब्लिक इंटरनेशनल लॉ के प्रोफ़ेसर जोआक्विन एलकैड के अनुसार, "अगर चीन को आईसीजे में ले जाना है तो पहले उसकी ज़िम्मेदारी तय करने की ज़रूरत है. कोई बात उसके इलाक़े में हुई, या फिर उसने किसी अंतरराष्ट्रीय बाध्यता का पालन नहीं किया है, इसलिए उसकी ज़िम्मेदारी बनती है? ये तय करने की ज़रूरत है."
हालांकि प्रोफ़ेसर जोआक्विन की राय है कि सबसे व्यावहारिक रास्ता कूटनीतिक हल का है.
डिप्लोमैटिक चैनल्स से अपनी कोई ज़रूरत या मांग सामने रखी जा सकती हैं. क़ानून की बुनियाद पर तथ्य सामने रखे जा सकते हैं. ये मांग भी रखी जा सकती है कि मुआवज़ा चाहिए या फिर बस आप अपनी ग़लती मान लीजिए."
चीन को दिसंबर के आख़िर से ही मालूम था कि इंसानों से इंसानों में संक्रमण हो रहा है. ये वायरस ख़तरनाक़ है. लेकिन इसके बावजूद उसने लोगों को वुहान से दुनिया भर की यात्रा करने की इजाज़त दी. ये लोग दरअसल वायरस बम की तरह थे. वे कहीं भी संक्रमण फैलाने की स्थिति में थे. सच तो ये है कि उन्हें वुहान से जाने की जैसे ही इजाज़त दी गई, उसी क्षण वे चीन की सरकार के एजेंट बन गए. और वे लोग अमरीका में वायरस फैला रहे हैं, इसलिए नुक़सान अमरीका में हो रहा है.
हालांकि इस दलील से इंटरनेशनल लॉ के एक्सपर्ट विम मुलर सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि उदाहरण के लिए अगर आप शी जिनपिंग को कसूरवार ठहराना चाहते हैं तो आप ये मुक़दमा नहीं जीत पाएंगे क्योंकि वे एक राष्ट्र के प्रमुख हैं. उन्हें भी 'इम्यूनिटी ज्यूरिसडिक्शन' के तहत छूट हासिल है और उनके जूनियर अधिकारियों को भी. विम मुलर इस बात पर सहमत हैं कि ऐसे मुक़दमों से लॉ फर्म्स और सरकारी वकील केवल प्रचार चाहते हैं.
लेकिन दुनिया के अलग-अलग देशों द्वारा कोरोना संकट से हुए नुकसान को लेकर चीन को घेरने की कोशिश की जा रही है, इसमें कानूनी विकल्प के अलवा कुटनीतिक रास्तों के साथ ही सैन्य संभावनाएं भी तलाशी जा रही है. इसी क्रम में अमेरिकी युद्धपोत का दक्षिण चीन सागर में पहुंचना फिर चीन द्वारा भी अपने युद्धपोत सागर में तैनात किये जाने से तनाव बढ़ गये हैं.