चीन शब्द ‘मिसनॉमर’ (गलत या अनपयुक्त नाम) है. स्वयं वहां के लोग अपने देश को आज भी चीन नहीं कहते, ‘झुआंग हुओ’, ‘झांग हो’ या ‘झुआंगुओ’ ही कहते हैं. ‘झांग हो’ या ‘झुआंग हुओ’ के लिए ‘चीन’ नाम का प्रयोग यूरोप और अमेरिका के लोगों ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शुरू किया. उसके पहले वे उसे ‘कैथे’ कहते थे और उससे भी पहले वे उस संपूर्ण क्षेत्र को ‘इंडी’ ही कहते थे. केवल भारत में प्राचीन काल से उसके लिए चीन शब्द का प्रयोग होता रहा है और जब अंग्रेज भारत में कुछ समय रह लिए और यहां के ग्रंथों से परिचित हो गए, तब वे भी 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से उसे चीन ही कहने लगे. जबकि 5,100 वर्ष पूर्व महाभारत में चीन को भारत का ही एक जनपद कहा गया है (देखें महाभारत में भीष्म पर्व के अंतर्गत जम्बूखंड विनिर्माण पर्व में अध्याय 9).
सुदीर्घ काल तक झुआंगुओ (चीन) मूलत: प्रशांत महासागर के तट पर हेनांग और जांग सू, झे झियांग, फू जांग, गुआंग डांग, शान डांग, सांगसी और हेबेल इलाके तक ही सीमित रहा. आज जो चीन का पश्चिमी भाग कहा जाता है, वह उनके इतिहास में शताब्दियों तक दूरस्थ और दुर्गम पराया देश माना जाता था. अपने को मूल चीनी कहने वाले हान लोग इसे बहुत दूर का देश कहते थे.
पश्चिमी और दक्षिण पश्चिमी सभी इलाके दूसरे महायुद्ध के बाद ही 20वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में झुआंगुओ से जोड़े गए और कम्युनिस्ट पार्टी के कब्जे में दे दिए गए, जिसमें स्तालिन की मुख्य भूमिका रही. इन इलाकों के मूल निवासियों के साथ हान लोगों का रक्तरंजित संघर्ष चलता रहता है. इन इलाकों में परिवहन भी अत्यन्त कठिन है और भरपूर खनिज संपदा वाले इन इलाकों के लोग अभी तक कथित मूल चीनियों से आत्मीयता विकसित नहीं कर सके हैं.
झुआंगुओ का कुल 2,200 वर्ष का ही इतिहास प्रामाणिक रूप से मिलता है. आज भी इसके अनेक इलाकों में इतिहास संबंधी कोई भी पुरातात्विक अभिलेख प्राप्त नहीं हुए हैं. यह तो सर्वविदित है कि कोई एक मूल चीनी या झुआंग हुआ समूह नहीं है. जिन्हें हान कहा जाता है, स्वयं उनमें सैकड़ों समूह समाहित हैं.
उत्तरी चीन में बड़ा इलाका मैदानी है और सबसे सघन आबादी भी वहीं है. परन्तु यह इलाका शताब्दियों तक दलदली रहा है. शान डांग का इलाका एक अलग द्वीप की तरह था. संपूर्ण झुआंगुओ क्षेत्र के हर इलाके की अलग-अलग सभ्यता रही है. कम्युनिस्ट चीन ने चीन का इतिहास लिखने का एक बड़ा अभियान चलाया परन्तु वह सब दंत कथाओं पर आधारित था और उसके समर्थन में कोई भी साक्ष्य या अभिलेख उपस्थित नहीं है. वांग हे नदी के आसपास प्राचीन काल की कुछ इमारतें मिलीं. उनके ही आधार पर ईसा पूर्व किसी शिया वंश के होने की बात अनुमान के आधार पर कही गई. परन्तु उसके समर्थन में कोई भी साहित्य सुलभ नहीं है. जैसा कि ‘चाईनाज जाग्रफी’ के अध्याय 3 में लिखा गया है, ‘‘शिया वंश एक दंतकथा मात्र है और उसके शासन या उसकी सीमाओं के विषय में कोई भी जानकारी सुलभ नहीं है. पुरातात्विक अभिलेख केवल शंग वंश के ही मिले हैं.’’ जिसका साम्य भारतीय सम्राट पुष्यमित्र शुंग से है. चीन में मिला तथाकथित साक्ष्य वस्तुत: हड्डियों में उत्कीर्ण कतिपय संकेतों के रूप में है. कछुए की खोपड़ी की खाल और हड्डियों में उत्कीर्ण इन चिन्हों को कम्युनिस्ट चीन ने रहस्यमय और दिव्य प्रचारित किया है और उसी को अपने द्वारा लिखवाए गए इतिहास का आधार बनाया है.
यह शंग वंश उत्तरी हेनान का शासक था. अन्य क्षेत्रों में उसी से मिलते-जुलते कुछ साक्ष्य मिले हैं जिन्हें चीनियों ने शंग वंश से मिलता-जुलता (शंग-टाइप) शासन बताया है. वांग हे नदी के दक्षिण में हेबेही में और उत्तर में अन्यंग नामक स्थानों पर परवर्ती पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं.
उत्तरी चीन में अलग-अलग जगह अलग-अलग सभ्यताओं के छोटे-छोटे राज्यों के कतिपय प्रमाण मिले हैं. इन राज्यों का शंग वंश से लगातार युद्ध होने के भी साक्ष्य मिले हैं और इनमें से एक झाऊ नामक राज्य दक्षिण चीन में भी कुछ इलाकों मे फैला. कनफ्यूशियस और लाओ जे जैसे दार्शनिक झाऊ राज्य में ही हुए. झाऊ वंश के बाद फिर से छोटे-छोटे इलाकों में अनेक राज्य उभरे और इसीलिए चीन के हर इलाके की भाषा अलग-अलग है. आज भी कथित मंदारिन भाषा (जो कृत्रिम नाम है) बोलने वालों की संख्या चीन का दो तिहाई ही है. शेष एक तिहाई लोग बू, शियांग, हक्का, बू, केजिया, गण तथा मिन सहित सैकड़ों अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं. मंदारिन को मुख्य चीनी भाषा कम्युनिस्टों ने पहली बार घोषित किया है. यह 20वीं शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्ध की घटना है.
झाऊ वंश के बाद जिस किन वंश का शासन हुआ, वे बाहर के निवासी थे और पश्चिमी सीमांत में रहते थे. उन्होंने झुआंगुओ को गुलाम बनाया. वस्तुत: इस वंश का नाम झेंग था जिसके प्रतापी शासकों ने स्वयं को किन यानी ‘महान’ कहना शुरू कर दिया. परन्तु इस वंश का शासन कुल 15 वर्ष ही रहा. इस वंश के शासकों ने पीत नदी घाटी के शासकों से भयंकर युद्ध किए.
इसके बाद अनेक विदेशी राजवंश आए और गए. 13वीं शती ईस्वी में मंगोलों ने चीन को गुलाम बनाकर उस पर शासन किया. मंगोलों से पहले भी उत्तरी चीन में तो निरन्तर बाहरी लोगों का राज्य रहा. मंगोलों ने सम्पूर्ण चीन को अपने अधीन कर लिया. उत्तर में मंगोलों का राज्य सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैलता रहा और चीन उसका एक अंग रहा. इस प्रकार सम्पूर्ण झुआंगुओ मंगोलों की दासता में रहा.
14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मंगोलों की पकड़ ढीली होने पर दक्षिणी चीन में एक अन्य विदेशी मिंग वंश का शासन हो गया. मिंग वंश समुद्री मार्ग से भारत तथा अन्य देशों के साथ व्यापार करता रहा. तब तक चीन के लिए पश्चिम का अर्थ था भारत. मिंगों की राजधानी नानजिंग थी. मिंगों से मांचुओं ने शासन छीन लिया. मांचू मध्य एशिया की एक प्राचीन जाति थे, जो मूलत: भरतवंशी थे. मांचुओं ने चीन को गुलाम बनाकर उस पर 267 वर्ष तक शासन किया.
इसी अवधि में 18वीं शताब्दी ईस्वी में झुआंगुओ में अंग्रेज, डच, फ्रेंच, स्पेनिश और पुर्तगाली चारों ओर फैले और अफीम की खेती का दबाव बनाने लगे जिसको लेकर उनमें आपस में कई बार युद्ध हुए. मांचुओं ने विवश होकर सभी विदेशी यूरोपीय लोगों को व्यापार की बहुत सुविधा दी. इन विदेशियों से व्यापार की सुविधा के बदले में धन लेकर शासक विलासिता में डूब गए और संपूर्ण क्षेत्र अफीम के नशे में डूब गया. जगह-जगह उपद्रव होने लगे और इसके कारण वहां की संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई. 19वीं शताब्दी के मध्य तक चीन इसी तरह एक बिखरा हुआ क्षेत्र बना रहा और वहां अलग-अलग इलाके में अलग-अलग लोग राज्य करते रहे. इस बीच जापान ने 1854 ईस्वी में चीन पर आक्रमण कर उसे हराकर उसके बड़े भाग पर अपना कब्जा जमा लिया. बाद में 1931 ईस्वी से वह आगे और बढ़ता गया जो द्वितीय महायुद्ध के बाद अमेरिकी और पश्चिमी यूरोपीय हस्तक्षेप के बाद ही थम सका.
पहले यूरोपीय कंपनियों ने भी आपस में अलग-अलग इलाके बांट लिए थे और प्रतिस्पर्धा करते रहे थे. जिससे चीन में व्यापक विक्षोभ हुआ. यूरोपीय ईसाइयों ने चीन में जगह-जगह अपने मिशनरी अड्डे बनाए जिनकी चीन के स्थानीय लोगों से लगातार लड़ाइयां होती रहीं और मिशनरी लोग जगह-जगह बुरी तरह पीटे जाते रहे परंतु ईसाइयत के लिए कष्ट सहन की अपनी परंपरा के कारण वे लोग धैर्य से लगे रहे और चीन के कई स्थानों पर कान्वेंट स्कूल खुल गए तथा वहां ईसाइयत का प्रचार होने लगा.
ईसाइयत के प्रचार से क्षुब्ध 1,00000 वीर झुआंगुओ योद्धाओं ने जो मार्शल आर्ट में बहुत दक्ष थे, विदेशी मिशनरियों को मारना-पीटना शुरू कर दिया. फिर बीजिंग में ईसाई देशों के दूतावासों को घेर लिया. इस पर संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, पुर्तगाल, हालैंड की 2,00000 सैनिकों वाली संयुक्त सेनाएं जर्मन सेनापति अल्फ्रेड ग्राफ वाल्डर सी की अगुवाई में वहां पहुंची और जमकर युद्ध हुआ. झुआंगुओ के 1,00000 वीर सैनिक 2,00000 यूरोपीय ईसाई सैनिकों से हार गए. तब मांचू शासकों ने अमेरिका से संधि की. सभी वीर चीनी बाक्सरों को मांचू राजा के सामने ही फांसी पर लटका दिया. क्षतिपूर्ति के रूप में 17 करोड़ टन शुद्ध चांदी किश्तों में अमेरिका को देना तय हुआ. अमेरिका की ओर से कहा गया कि इस धन का उपयोग झुआंगुओ के छात्रों को अमेरिका में शिक्षा देने में किया जाएगा. इस प्रकार चीनी छात्र संयुक्त राज्य अमेरिका भेजे जाने लगे और वहां ईसाइयत की दीक्षा भी लेने लगे तथा अन्य यूरो अमेरिकी विचारों और कम्युनिज्म की भी शिक्षा प्राप्त की. इन विचारों में दीक्षित होकर चीन वापस लौटने वाले इन युवकों में से कुछ चीन में ईसाइयत से प्रेरित होकर राजनीतिक दल बनाकर सक्रिय हो गए और कुछ ने कम्युनिज्म को अपना लिया. ईसाइयत से प्रेरित सन यात सेन और चांग काई शेक ने नेशनलिस्ट पार्टी की स्थापना चीन में की. जबकि कम्युनिज्म से प्रेरित युवक शीघ्र ही सोवियत संघ के कम्युनिस्ट नेताओं विशेषकर स्तालिन के प्रभाव में आ गए.
नेशनलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी दोनों ने मिलकर पहले तो 1911 ईस्वी में मांचुओं को विदेशी घोषित कर उन्हें हराकर चीन के एक हिस्से पर कब्जा कर लिया और वहां चीनी गणराज्य स्थापित करने की घोषणा कर दी. उधर जगह-जगह अलग-अलग जागीरें थीं जिनमें से हर एक का जागीरदार स्वयं को चीन का शासक कहता था. यूरोपीय लोगों ने इसका लाभ उठाने की कोशिश की.
सन यात सेन के साथ च्यांग काई शेक भी ईसाइयत से प्रभावित राष्ट्रवादी नेता बनकर उभरे और उन्होंने अमेरिका की भरपूर मदद ली. इस पर सोवियत संघ के नेता स्तालिन ने चीन में अपने एजेंट नियुक्त किए और वहां कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करा दी. रूस से चीन के कम्युनिस्टों को भरपूर धन दिया जाने लगा. इस पर कुछ चीनी कम्युनिस्टों ने हिचक दिखाई पर माओजे दुंग ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से खुल कर धन लेने की वकालत की और इस प्रकार सोवियत संघ की मदद से माओजे दुंग के नेतृत्व में गृहयुद्ध में माओ जे दुंग का धड़ा भारी पड़ता गया और अंत में जाकर 1949 ईस्वी में कम्युनिस्टों ने नेशनलिस्ट पार्टी से मित्रता तोड़कर अकेले ही सत्ता पर कब्जा कर लिया तथा फैलने लगे. अब वे पुराने साथी राष्ट्रवादियों की हत्या करने लगे. सत्ता की इस छीना-झपटी में जापान द्वारा चीन पर आक्रमण से उपजे परिवेश का लाभ माओ और कम्युनस्टिों ने उठाया तथा रूस और अमेरिका दोनों से जापान के विरुद्ध चीन को खड़ा करने के लिए भारी धन राशि प्राप्त की. माओ जे दुंग ने रूस, अमेरिका और पश्चिमी यूरोप से साथ-साथ छलपूर्वक धन और अन्य मदद ली. सी आई ए ने नेशनलिस्ट चांग काई शेक की भी मदद की और कम्युनिस्ट माओ जे दुंग की भी क्योंकि उसका इरादा अमेरिकी प्रभाव इस इलाके में बढ़ाना था. इस प्रकार रूस और अमेरिका दोनों की मदद का लाभ उठाते हुए कम्युनिस्ट पार्टी 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में चीन में फैलने लगी. नेशन स्टेट की पंरपरा से अनजान कम्युनिस्टों ने एक चीनी साम्राज्य के फैलाव की कोशिश की और मूल चीनी नेशन स्टेट को सुदृढ़ करने की कोई चिंता नहीं की जिसके कारण चीन एक द्रवणशील दशा में है. वह सोवियत संघ की तरह बिखरने वाला है.
तिब्बत में चीनी सेनाएं पहली बार 1950 ईस्वी में प्रविष्ट हुर्इं जिसका तिब्बतियों ने प्रचंड विरोध किया और 9 वर्ष तक वे चीनी सेनाओं से वीरता से लड़ते रहे, परंतु भारत की ओर से उन्हें कोई सहायता नहीं प्राप्त हुई. इस कारण 9 वर्ष बाद दलाईलामा को तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी तथा हिमाचल प्रदेश के एक मुख्य नगर धर्मशाला में उन्होंने अपनी निर्वासित सरकार का सचिवालय स्थापित किया और वहीं से तिब्बत की स्वाधीनता की अलख जगाए हुए हैं. इस प्रकार नेहरू ने तिब्बत को चीन को सौंप दिया. इतना ही नहीं 1962 में चीनी कम्युनिस्टों ने भारत की कुछ जमीन छीनने की कोशिश की जिसके विषय में जवाहरलाल नेहरू ने लापरवाही बरती और अन्तत: कई हजार वर्ग किलोमीटर भूमि कम्युनिस्ट उपनिवेशवाद के कब्जे में चली गई, जो आज तक है.
19वीं शताब्दी के मध्य तक चीन एक बिखरा हुआ क्षेत्र बना रहा और वहां अलग-अलग इलाके में अलग-अलग लोग राज्य करते रहे. इस बीच जापान ने 1854 ईस्वी में चीन पर आक्रमण कर उसके बड़े भाग पर कब्जा कर लिया. बाद में 1931 ईस्वी से वह आगे और बढ़ता गया जो द्वितीय महायुद्ध के बाद अमेरिकी और पश्चिमी यूरोपीय हस्तक्षेप के बाद ही थम सका.
उधर अमेरिकी शासन से भी नेहरू ने तालमेल रखा. इंग्लैंड और अमेरिका तब कम्युनिस्ट रूस पर नियंत्रण के लिए पाकिस्तान को पोस रहे थे. उसके कारण नेहरू पर दबाव पड़ा और उन्होंने पाकिस्तान के प्रति अत्यधिक नरमी बरती और पाकिस्तानी आक्रमण होने पर कश्मीर का मामला संयुक्त राज्य संघ में ले गए जिससे कश्मीर के एक हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा बरकरार रहा और पाकिस्तान ने कश्मीर के उत्तर का बड़ा इलाका, जो सिक्यांग कहलाता है, चीन को दे दिया. इस प्रकार चीन अपने संपूर्ण इतिहास में पहली बार कम्युनिस्ट साम्राज्य बन गया, जिसमें नेहरू का निर्णायक सहयोग रहा.
वस्तुत: चीन कोई नेशन स्टेट नहीं है अपितु आपस में युद्धरत अनेक राष्टÑीयताओं का समुच्चय है और वहां भीतरी झगड़ें भयंकर रूप से चल रहे हैं और पूरा क्षेत्र कम्युनिस्ट पार्टी का उपनिवेश बना हुआ है. माओ जे डुंग ने 9 करोड़ से अधिक चीनियों की हत्या कर एक आतंककारी शासन स्थापित किया परंतु चीन भीतर से धधक रहा है और द्रवणशील स्थिति में है क्योंकि इतिहास में कभी भी वह नेशन स्टेट रहा ही नहीं है.
भारत के कांग्रेसी शासकों ने कम्युनिस्ट उपनिवेशवाद के विस्तार में सहायक की भूमिका निभाई और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का उपनिवेश तिब्बत, सिक्यांग, तुर्किस्तान, कजाक क्षेत्र, दक्षिणी मंगोलिया, दक्षिणी मंचूरिया और युन्नान तक फैलने दिया.
अब भारत में नया नेतृत्व आया है जो राष्ट्रभक्त है. वह नई भूमिका की दिशा में सक्रिय है. कोरोना वायरस दुनियाभर में फैलाने के कारण चीन से अमेरिका तथा विश्व के अधिकांश नाराज हैं और कम्युनिस्टों को उनकी औकात दिखाने पर उतारू हैं. अमेरिका के एक संकेत पर जापान पुन: सशक्त होकर चीनी कम्युनिस्टों के द्वारा हथियाए गए दक्षिणी हिस्से पर दबाव बना सकता है. इसी प्रकार दक्षिणी मंगोलिया और मंचूरिया या तो मंगोलों और मांचुओं को दिया जा सकता है या उन्हें स्वाधीन राज्य बनाया जा सकता है. रूस स्तालिन द्वारा दिए गए उपहारों के रूप में उत्तरी इलाकों को वापस ले सकता है. तिब्बत तो अलग राष्ट्र है ही, जिसे विश्व का समर्थन प्राप्त होने पर वह पुन: स्वाधीन सशक्त राज्य बन सकता है.
कांग्रेसी शासकों ने कम्युनिस्ट चीनी शासकों से मधुर संबंध बनाकर या सौदेबाजी कर भारत के बाजारों में चीनी सामान का भंडार भर दिया था. भारत के नागरिक अपनी राष्ट्रभक्त सरकार को सहयोग देते हुए इन चीनी सामानों का बहिष्कार करें और कम्युनिस्ट चीन के विस्तारवाद की कांग्रेस के द्वारा की गई सहायता की निशानियों को मिटा दें. जिससे कि कम्युनिस्ट विस्तारवाद को आर्थिक बल प्राप्त न हो. शेष काम तो सेना और शासन करेगा ही.
(लेखिका अंतरराष्ट्रीय राजनय की विशेषज्ञ हैं और यह आलेख पांचजन्य पोर्टल पर प्रकाशित है.)