केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद क्या परेशान हैं लद्दाख के लोग?
संदीप कुमार
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20 Oct 2020 |
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बीते करीब छह महीने से सीमा पर भारत-चीन तकरार के चलते लद्दाख सुर्ख़ियों में बना हुआ है. लेकिन, लद्दाख के लोग एक अलग वजह से परेशान हैं, उनकी यह परेशानी इतनी बड़ी है कि वे इसके लिए आंदोलन तक छेड़ने को तैयार हैं. लद्दाख के लोगों की यह चिंता तब शुरू हुई जब जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 को हटा दिया गया. पिछले साल पांच अगस्त को नरेंद्र मोदी सरकार ने अनुच्छेद-370 के तहत जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म कर इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों - जम्मू-कश्मीर और लद्दाख - में बांट दिया था. मोदी सरकार ने लद्दाख को बिना विधायिका वाले केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया था. इस फैसले के बाद कुछ दिनों तक तो लद्दाख की जनता काफी ख़ुश नजर आयी. लेकिन जब उन्होंने इस फैसले की जमीनी हकीकत पर गौर किया तो उन्हें यह समझ में आया कि ये अपने साथ कुछ परेशानियां और चिंताएं भी नत्थी करके लाया है.
इतिहासकार बताते हैं कि उन्नीसवीं सदी तक लद्दाख एक स्वतंत्र राज्य था. 1834 में जम्मू के राजा गुलाब सिंह ने लद्दाख पर विजय प्राप्त की थी और तब से पिछले साल तक यह जम्मू-कश्मीर का एक हिस्सा था. लद्दाख के लोग इस दौरान अपनी स्वतंत्र पहचान को लेकर मुखर रहे हैं. यहां केंद्र शासित प्रदेश की मांग काफी पुरानी है. साल 1989 में इस मांग को कुछ सफलता तब मिली जब यहां बौद्धों के प्रभावशाली धार्मिक संगठन लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन (एलबीए) की अगुवाई में बड़े स्तर पर आंदोलन हुआ. इसके बाद राजीव गांधी की सरकार इस पर बात करने को तैयार हुई. हालांकि इस इलाके को केंद्र शासित राज्य का दर्ज़ा तब भी नहीं मिला. बातचीत के बाद 1993 में केंद्र और जम्मू-कश्मीर की सरकार ने दार्जिलिंग की तर्ज पर लद्दाख में स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद की स्थापना का फैसला किया. इसके बाद 1995 में लेह में और 2003 में कारगिल जिले में लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद (एलएएचडीसी) अस्तित्व में आईं. एलएएचडीसी एक निर्वाचित परिषद है जिसके इन दोनों जिलों में कुल 30-30 सदस्य हैं. इन सदस्यों में से 26 जनता द्वारा चुने जाते हैं और चार को नामित किया जाता है. लेह की मौजूदा एलएएचडीसी में भाजपा के 20 और कांग्रेस के छह सदस्य हैं. कारगिल में भाजपा का एक और कांग्रेस के आठ सदस्य हैं.
एलएएचडीसी के पास ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर आर्थिक विकास, सेहत, शिक्षा, ज़मीन के उपयोग, टैक्सेशन और स्थानीय शासन से जुड़े फ़ैसले लेने का अधिकार है. जबकि लॉ एंड ऑर्डर, न्याय व्यवस्था, संचार और उच्च शिक्षा से जुड़े फ़ैसले पिछले साल तक जम्मू-कश्मीर सरकार के हाथ में थे. यानी एक तरह से कुछ क्षेत्रों में लद्दाख को थोड़ी स्वायत्तता थी लेकिन उसके बाद भी यहां के जो लोग जम्मू-कश्मीर के अधीन नहीं रहना चाहते थे उन्होंने अलग केंद्र शासित प्रदेश की मांग जारी रखी.
बीते साल मोदी सरकार ने जब लद्दाख को एक अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाया तो यहां के लोगों को लगा कि अब उन्हें पूरी आजादी मिल गयी है. लेकिन, थोड़े ही समय बाद यहां के लोगों को अपने उन अधिकारों की चिंता सताने लगी जो इन्हें अनुच्छेद-370 की वजह से मिले हुए थे. अनुच्छेद-370 इन लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक और जातीय पहचान और भूमि से जुड़े अधिकारों का संरक्षण करता था. अनुच्छेद-370 के तहत ही बाहर के लोगों को यहां का स्थायी निवासी बनने और यहां ज़मीन ख़रीदने की इजाज़त नहीं थी. इस वजह से ही यहां कई लोग यह कहने लगे कि अगर केंद्र सरकार लद्दाख से बिना अनुच्छेद-370 हटाए ही उसे अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाती तो ज्यादा बेहतर होता.
अनुच्छेद-370 हटने से पहले तक लद्दाख में चार विधानसभा सीटें होती थी. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब यहां दिल्ली या पुडुचेरी के बजाय कुछ हद तक चंडीगढ़ जैसी व्यवस्था लागू की गई है. इसके तहत यहां लोकसभा की एक सीट और स्थानीय निकाय होंगे. राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के तौर पर अब उपराज्यपाल लद्दाख की व्यवस्था संभालने के लिए जिम्मेदार हैं. लद्दाख के लोगों का कहना है कि अगर उन्हें विधायिका मिलती, तो वे अपने हितों की रक्षा कर सकते थे. तब वे ऐसे कानून बना सकते थे जिनसे उनके अधिकारों का संरक्षण हो सके.
इन्हीं सब चिंताओं के चलते बीते साल से ही लद्दाख को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग शुरू हो गयी थी. यहां के धार्मिक और राजनीतिक नेताओं का कहना था कि लद्दाख को भारतीय संविधान की छठी अनुसूची का दर्जा दिया जाए. संविधान की छठवीं अनुसूची में असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के जनजातीय क्षेत्र आते हैं. इसके जरिये इन क्षेत्रों में स्वायत्त प्रशासन के प्रावधान किए गए हैं. इनमें स्वायत्त ज़िला परिषदों (एडीसी) के गठन और इनके ज़रिए आदिवासियों के अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी दी गयी है. एडीसी को संविधान के तहत विशेषाधिकार मिले हैं और वे ज़मीन और उसके मालिकाना हक़ से जुड़े क़ानून भी बना सकती हैं.
लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने की यहां के लोगों की मांग का समर्थन राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग भी कर चुका है. केंद्र सरकार से बीते साल इसकी सिफारिश करते हुए आयोग का कहना था कि लद्दाख में 97 फीसदी से अधिक आबादी अनुसूचित जनजातियों से जुड़े लोगों की है. ऐसे में इनके अधिकारों को संरक्षित करने के लिए इन्हें स्वायत्तता दी जानी चाहिए. लेकिन अनुसूचित जनजाति आयोग के प्रस्ताव के साल भर बाद भी जब मोदी सरकार की तरफ से कोई कदम नहीं उठाया गया तो लद्दाख के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठनों ने मिलकर ‘पीपुल्स मूवमेंट फॉर सिक्स्थ शेड्यूल’ नाम का गठबंधन बनाया और आंदोलन की घोषणा कर दी. इस आंदोलन का नेतृत्व राज्य के दिग्गज नेताओं ने किया. भाजपा नेता और कई बार संसद सदस्य रह चुके थुपस्तान छेवांग, पूर्व राज्यसभा सांसद थिकसे रिनपोछे, लद्दाख कांग्रेस के अध्यक्ष वांग रिगजिन जोरा और जम्मू-कश्मीर सरकार में मंत्री रहे राज्य भाजपा के पूर्व अध्यक्ष छेरिंग दोरजे लकरूक जैसे दिग्गज इस आंदोलन में शामिल हैं.
आंदोलन शुरू ही हुआ था कि कुछ रोज बाद 19 सितंबर को उपराज्यपाल राधा कृष्ण माथुर ने लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद (एलएएचडीसी) के चुनावों की घोषणा कर दी. कहा गया कि चुनाव 16 अक्टूबर को होंगे. अचानक हुई इस घोषणा ने जन आंदोलन के नेताओं को परेशान कर दिया. भाजपा के दिग्गज नेता छेरिंग दोरजे लकरूक ने बीते मई में स्वायत्तता के मुद्दे पर अपनी पार्टी से नाराज होकर लद्दाख भाजपा के अध्य्क्ष पद और पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. लकरूक कहते हैं, ‘हमने आंदोलन के बारे में लेह की जनता के सभी वर्गों से पहले ही बातचीत कर ली थी. चुनाव की घोषणा होने के बाद हम दोबारा नंबरदारों, पंचों और सरपंचों (स्थानीय सरकारी निकायों के सदस्यों) के पास गए. उन्होंने हमें सलाह दी कि केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए हमें चुनाव का बहिष्कार करना चाहिए.’ इसके बाद 22 सितंबर को आंदोलन कर रहे नेताओं ने घोषणा की कि जब तक छठी अनुसूची की मांग पूरी नहीं होती तब तक चुनाव का बहिष्कार किया जाएगा. बहिष्कार को लेकर जारी किए गए बयान पर भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के स्थानीय पदाधिकारियों के हस्ताक्षर थे.
बहिष्कार के आह्वान के 24 घंटे के अंदर ही स्थिति की गंभीरता को समझते हुए भाजपा के दिग्गज नेता राम माधव और जम्मू भाजपा के वरिष्ठ नेता अशोक कौल लेह पहुंच गए. कौल ने शुरू में बहिष्कार के प्रस्ताव को बकवास कहकर खारिज कर दिया था. लेकिन 24 सितंबर को जब इन नेताओं ने लेह में आंदोलनकारियों द्वारा बुलाये गए बंद को देखा तो केंद्र सरकार का रुख इस मामले में बदल गया. 25 सितंबर को संवाददाताओं से बात करते हुए कौल का कहना था कि भाजपा लद्दाख के लोगों की सभी मांगों का समर्थन करती है. इसके अगले ही दिन यानी 26 सितंबर को गृह मंत्री अमित शाह ने आंदोलन के तीन बड़े नेता थुपस्तान छेवांग, थिकसे रिनपोछे और छेरिंग दोरजे लकरूक से दिल्ली में मुलाकात कर उनसे चुनाव का बहिष्कार न करने की अपील की.
लद्दाख में ‘पीपुल्स मूवमेंट फॉर सिक्स्थ शेड्यूल’ से जुड़े एक नेता कहते हैं, ‘गृह मंत्री को अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद उनकी यह पहली आधिकारिक मुलाकात थी... इससे पता चलता है कि हमारा क्षेत्र (लद्दाख) उनके लिए कितना मायने रखता है. उन्होंने हमें आश्वासन दिया है कि एलएएचडीसी चुनाव के नतीजे घोषित होने के 15 दिन बाद ही केंद्र सरकार लद्दाख के लोगों की मांगों पर बातचीत शुरू करेगी. यह बाजिव बात थी जिसे हमने मान लिया.’ इसके अगले दिन यानी 27 सितंबर को ‘‘पीपुल्स मूवमेंट फॉर सिक्स्थ शेड्यूल’ के नेताओं ने आंदोलन वापस ले लिया. आंदोलन के प्रमुख नेता छेरिंग दोरजे लकरूक की मानें तो फिलहाल आंदोलन को सिर्फ स्थगित किया गया है और इस बारे में अंतिम फैसला एलएएचडीसी का चुनाव समाप्त होने के बाद की परिस्थितियों को देखकर लिया जाएगा.
लद्दाख जब से एक केंद्र शासित प्रदेश बना है तब से स्थानीय लोगों की एक और शिकायत भी है. इनका आरोप है कि उपराज्यपाल का प्रशासन यहां की स्वायत्त पहाड़ी परिषदों (एलएएचडीसी) को कमजोर कर रहा है. जब से लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश बना है, उपराज्यपाल प्रशासन और एलएएचडीसी के बीच कई मौक़ों पर विवाद भी देखा गया है.
छेरिंग दोरजे लकरूक कहते हैं, ‘केवल एलएएचडीसी परिषदों के पास ही लद्दाख के विकास कार्यों की जिम्मेदारी है. पहले जब लद्दाख जम्मू-कश्मीर राज्य में था, तब श्रीनगर और जम्मू के मंत्रियों या अधिकारियों का हमारी एलएएचडीसी परिषदों के काम में कोई दख़ल नहीं था. लेकिन जब से लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश बना है, पूरा प्रशासन लेह आ गया है. अब परिषदें सही से काम नहीं कर पा रही हैं. एलजी प्रशासन उनके साथ सहयोग नहीं कर रहा है. प्रशासन उन चीज़ों में दखल देता है, जो एलएएचडीसी के अधिकार क्षेत्र में आती हैं. अब परिषदों की भूमिका दूसरे दर्जे की हो गई है.’
कारगिल और लेह की एलएएचडीसी परिषदों को अपनी कम शक्तियों का अंदाजा तब हुआ, जब कोरोना वायरस की वजह से देश भर में लॉकडाउन की घोषणा की गयी. तब कई मुद्दों पर एलजी प्रशासन और परिषदों के बीच सीधी तकरार देखने को मिली. प्रशासन ने एलएएचडीसी परिषद के चेयरमैन और नेताओं से बातचीत किए बिना ही इस मामले में तमाम फैसले ले लिए. इस दौरान एलएएचडीसी के पार्षदों ने कई बार यह आरोप लगाया कि एलजी का प्रशासन राज्य के उन लोगों को वापस बुलाने को लेकर बिलकुल गंभीर नहीं हैं, जो देश के दूसरे राज्यों में फंसे हुए हैं. कारगिल के जिलाधिकारी ने तो कर्फ्यू तोड़ने और एक गांव का दौरा करने के लिए एलएएचडीसी परिषद के एक एक्ज़ीक्यूटिव काउंसलर के खिलाफ एलजी को एक लिखित शिकायत तक भेज दी. जबकि काउंसलर का कहना था कि वे कारगिल जिले की एलएएचडीसी में स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख हैं, इसलिए कोरोना के समय संकटग्रस्त लोगों की मदद करना उनकी जिम्मेदारी है.
ऐसी कई तकरारों की बात करते हुए लद्दाख कांग्रेस के अध्यक्ष वांग रिगजिन जोरा कहते हैं, ‘स्थिति यहां तक खराब हो गयी थी कि लेह की एलएएचडीसी परिषद के चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव काउंसलर और चेयरमैन ग्याल पी वांग्याल को एलजी ऑफिस के बाहर धरने पर बैठना पड़ा, लेकिन तब भी उन्होंने (एलजी राधा कृष्ण माथुर ने) बाहर आकर उनसे मिलने की जहमत नहीं उठाई.’ बीते मई में इन्हीं विवादों से नाराज होकर तत्कालीन राज्य भाजपा अध्यक्ष छेरिंग दोरजे लकरूक ने पार्टी छोड़ने की घोषणा की थी.
भाजपा नेता और लेह की एलएएचडीसी के चेयरमैन ग्याल पी वांग्याल बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, ‘हमारे पास वित्तीय अधिकार थे, प्रशासनिक अधिकार थे, ट्रांसफ़र, नियुक्ति और तैनाती समेत कई अधिकार थे. लेकिन जब से केंद्र शासित प्रदेश बना है, इन्हें लेकर एलजी प्रशासन और परिषद के बीच असमंजस की स्थिति है. (समझ नहीं आता) किसके पास क्या शक्तियां और अधिकार हैं और किसकी क्या भूमिका है.’ हालांकि, उनके मुताबिक वे इस स्थिति को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं.
राज्य के सभी बड़े नेताओं का मानना है कि जब लद्दाख में छठी अनुसूची लागू होगी तो भविष्य में परिषद और प्रशासन के बीच तकरार भी नहीं हो सकेगी, क्योंकि तब एलएएचडीसी परिषद के हाथ में विधायिका जैसी ताकत होगी. छेरिंग दोरजे कहते हैं, ‘हमारी मांग हमेशा से ही एक विधायिका के साथ केंद्र शासित प्रदेश की थी क्योंकि विधायी शक्तियों के बिना स्थानीय निवासियों के लिए सुरक्षा के विशेष प्रावधान सुनिश्चित नहीं किए जा सकते... लेकिन जब हमें छठी अनुसूची का लाभ मिलेगा तो हमारी परिषदों के पास विधायिका जैसी शक्तियां भी होंगी.’
कांग्रेस नेता वांग रिगजिन जोरा इसी बात को और गहराई से समझाते हैं. उनके मुताबिक, ‘छठी अनुसूची का मतलब केवल भूमि या नौकरी के अवसरों की सुरक्षा नहीं है, इसका मतलब यह भी है कि जनता द्वारा चुनी गयी एलएएचडीसी परिषद के पास विधायी शक्ति होगी... इसके बाद उपराज्यपाल बिना परिषद की सहमति के फैसला नहीं ले सकेंगे. संसद का कोई भी कानून परिषद की सहमति के बिना लद्दाख पर लागू नहीं किया जा सकेगा. क्योंकि छठी अनुसूची एलएएचडीसी परिषद को एक संवैधानिक निकाय का दर्जा दे देगी (जैसा पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में है).’
(यह आलेख स्क्रोल डॉट इन पर प्रकाशित हैं.)