तेजस्वी यादव और राहुल गांधी का फर्क समझने के लिए एक बार उनकी ज्वाइंट रैली का वीडियो जरूर देखना चाहिये. कम से कम बीजेपी नेतृत्व और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को तो वो वीडियो देखना ही चाहिये. बिलकुल वैसे ही जैसे कोच अपने प्लेयर को उन खिलाड़ियों के वीडियो दिखा कर उनकी छोटी छोटी गलतियों पर गाइड करते हैं. तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की राजनीतिक पृष्ठभूमि एक जैसी लगती भले हो, लेकिन ऐसी कई चीजें हैं जहां दोनों काफी अलग नजर आते हैं - फिर भी बिहार चुनाव में बीजेपी नेतृत्व और नीतीश कुमार को ये बात समझ में नहीं आ रही और दोनों को वे एक ही पलड़े में तौल रहे हैं तो वे बहुत बड़ी राजनीतिक भूल करने जा रहे हैं.
बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव को राहुल गांधी की तरह डील करना बीजेपी और नीतीश कुमार के लिए महंगा सौदा साबित हो सकता है. किसी को हल्के में लेना कई बार बहुत भारी भी पड़ जाता है. ये सही है कि तेजस्वी यादव और राहुल गांधी दोनों ही पारिवारिक राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन दोनों का तौर तरीका बिलकुल अलग है. राहुल गांधी के मुकाबले तेजस्वी उम्र में कम जरूर हैं, लेकिन अनुभव के मामले में बीस पड़ सकते हैं. राहुल गांधी की ही तरह तेजस्वी भी अपनी पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं - लेकिन ये नहीं भूलना चाहिये कि वो बिहार के डिप्टी सीएम भी रह चुके हैं, जबकि राहुल गांधी के पास अब तक स्वयं का कोई ऐसा कार्यानुभव नहीं हो सका है. तेजस्वी यादव भी राहुल गांधी की ही तरह फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं - लेकिन जब वो बिहार के गंवई लोगों के बीच होते हैं तो खांटी भोजपुरी में संवाद करते हैं. केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के नेता कांग्रेस नेता राहुल गांधी को 'पप्पू' के तौर पर पेश कर लोगों में भी करीब करीब वैसी ही धारणा विकसित कर चुके हैं. बीजेपी नेताओं की तरफ से बार बार याद भी दिलाया जाता है कि कांग्रेस के पास नेतृत्व क्षमता नहीं है - बीजेपी को भी ये बोलने का मौका भी कांग्रेस नेताओं की बदौलत ही मिलता है. कांग्रेस के सीनियर 23 नेताओं की चिट्ठी भी उसी का एक उदाहरण है.
हो सकता है बीजेपी के लिए आरजेडी और कांग्रेस नेतृत्व को निशाने बनाने के लिए भ्रष्टाचार जैसा मुद्दा मिल जाता है. 2014 में यूपीए के सत्ता से बेदखल होने में भ्रष्टाचार का काफी महत्वपूर्ण योगदान रहा. तेजस्वी यादव को घेरने के लिए भी नीतीश कुमार बार बार लालू यादव के चारा घोटाले में जेल में सजा काटने और उनके शासन काल को जंगलराज के तौर पर पेश करते आ रहे हैं. तेजस्वी यादव ने इसे काउंटर करने का कुछ इंतजाम तो पहले ही कर लिया था. कुछ अभी किया है. पहले के इंतजामों में जंगलराज के लिए एक से ज्यादा बार माफी मांगना है और अभी के लिए पोस्टर पर खुद के अलावा कोई भी चेहरा नहीं रखना है.
जब नीतीश कुमार, इधर बीच, लालू परिवार पर निजी हमले बढ़ा दिये हैं तो तेजस्वी ने उसका भी उपाय खोज लिया है, कहते हैं - '9 नवंबर को मेरा जन्मदिन है और उसी दिन लालू यादव जेल से छूट कर पटना पहुंच रहे हैं और उसके अगले दिन नीतीश कुमार की विदायी होने वाली है.' अगले दिन यानी 10 नवंबर को बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आने वाले हैं. एक तो, देखा जाये तो तेजस्वी यादव वैसी गलतियां कतई नहीं कर रहे हैं जो आम चुनाव में राहुल गांधी ने कर डाली, दूसरे - बीजेपी नेतृत्व के लाख उकसाने के बावजूद तेजस्वी यादव अपनी चीजों पर फोकस हैं. ऐसा ही कुछ कुछ दिल्ली चुनावों में भी देखने को मिला था. तेजस्वी यादव कई मामलों में अरविंद केजरीवाल की ही तरह अनावश्यक चीजों को साफ तौर पर नजरअंदाज कर रहे हैं. राहुल गांधी को ऐसी बातें अक्सर उनके कांग्रेस के ही साथी समझाते रहते हैं, लेकिन वो उसकी कभी परवाह नहीं करते. कांग्रेस के कई नेता राहुल गांधी को समझा चुके हैं कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमले न करें - ऐसे नेताओं को डांट फटकार के चुप करा दिया जाता है.
'चौकीदार चोर है' - ये नारा राहुल गांधी के लिए कितना भारी पड़ा सबको पता ही है, लेकिन बीजेपी को ऐसा क्यों लगता है कि वो तेजस्वी यादव को भी वैसे ही निपटा देगी. जब सुशांत सिंह केस सुर्खियों में छाया हुआ था तो राहुल गांधी और तेजस्वी की ही तरह आदित्य ठाकरे को लेकर भी ऐसे ही कयास लगाये जा रहे थे. तेजस्वी यादव ने ही सबसे पहले सुशांत सिंह राजपूत का मुद्दा उठाया था और सीबीआई जांच की भी मांग की थी, लेकिन अब कभी उनके मुंह से कोई जिक्र तक सुनने को नहीं मिलता. राहुल गांधी के उलट तेजस्वी यादव अपनी सभाओं में कोई वैसे नारे नहीं लगवाते, बल्कि आगाह करते हैं. जब राहुल के साथ साझा रैली कर रहे थे तब भी, 'हमे किसी के बहकावे में नहीं आना है. जाति और धर्म के आधार पर हमारा ध्यान भटकाने की भी कोशिश होगी, लेकिन ये चुनाव हम अपनी आजीविका के लिए लड़ रहे हैं. हमे उस पर फोकस रहना होगा. हमें फिक्र होनी चाहिये अपने नौजवानों की, उनकी शिक्षा की, उनके रोजगार की और उनकी सेहत की.'
मालूम नहीं नीतीश कुमार और बीजेपी नेतृत्व का इस तरफ ध्यान जा रहा है कि नहीं कि तेजस्वी यादव अपने पिता लालू यादव से दो कदम आगे रख कर चल रहे हैं - जहां राजनीति में जाति और धर्म से ऊपर आजीविका और बुनियादी चीजों का रखा जा रहा है. तेजस्वी यादव को इस बात का भी पूरा ख्याल है कि जो बात वो अपने वोटर से कहना चाहते हैं वो उन तक पहुंच पा रहा है या नहीं? संवाद और संचार दोनों ही ऐसे मामलों में सबसे जरूरी होते हैं. आरजेडी का चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए तेजस्वी यादव का कहना था, 'मैं दस लाख नौकरियों का वादा कर रहा हूं... मैं एक करोड़ नौकरियों का वादा भी कर सकता था, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं - क्योंकि हमारा वादा पहली कैबिनेट बैठक में ये सच्चाई बनेगा. देश में ऐसा पहली बार होगा जब एक ही बार में 10 लाख नौकरियों का सृजन होगा.'
लोगों में ये संदेश पहुंचाने की कोशिश है कि चुनावी वादे हवा हवाई नहीं हैं. जैसे आप नेता अरविंद केजरीवाल को लेकर चर्चा हुआ करती थी कि ऐसे ऐसे वादे कर डालते हैं जो असंभव भी हो सकते हैं. तेजस्वी यादव साफ साफ, सीधे सीधे शब्दों में समझा रहे हैं कि वो एक करोड़ नहीं, सिर्फ दस लाख की बात कर रहे हैं जो संभव है. आंकड़ों की तुलना दिमाग में आसानी से रजिस्टर होती है और तेजस्वी यादव ऐसा ही कर रहे हैं. राष्ट्रीय जनता दल का चुनाव मैनिफेस्टो लालू यादव के जमाने से काफी अलग है - अब सोशल जस्टिस, मुस्लिम-यादव समीकरण नहीं बात रोजगार के साथ साथ शिक्षा और सेहत की हो रही है.
(ichowk में प्रकाशित)