उपेक्षित है सिविल सेवा में सुधार

संदीप कुमार

 |   17 Nov 2020 |   614
Culttoday

देश का प्रशासन चलाने का कार्य एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, जहां राजनेताओं को यह ज़िम्मेदारी पाँच सालों के लिये मिलती है तो वही अधिकारियों को उनके अधिवर्षता तक अर्थात् सेवानिवृत्ति तक. इसलिए आवश्यक हो जाता है कि सिविल सेवा में यथोचित सुधार हो. सिविल सेवा भर्ती परीक्षा लगातार अपने पुराने ढर्रे पर चलती जा रही है,जोकि तमाम सिफारिशों के बावजूद भी कोई विशेष सुधार नहीं हो सका है. इस परीक्षा से चयनित अधिकारी सरकार की नीतियों के अनुपालन में अपनी भूमिका निभाते है. जब देश में आत्मनिर्भरता और आर्थिक प्रतिस्पर्धा के साथ पांच ट्रिलियन डालर अर्थव्यवस्था बनने की बात की जा रही हो, तब यह बहुत जरुरी हो जाता है कि विकास कारित करने बाली एजेंसी को मजबूत बनाया जाए. सवाल उठता है कि इस नौकरशाही की लौह चौखट को नरम और कठोर का मिश्रण अर्थात् लचीला कैसे बनाया जाए? गौरतलब है कि अब देश ब्रिटिश उपनिवेश नही रहा इसलिए ब्रिटिश मानसिकता के साथ सिविल सेवा भर्ती परीक्षा प्रारुप नहीं अपनाया जा सकता. अब वक्त आ गया है कि सिविल सेवा भर्ती और उसके आंतरिक कमियो को दूर करने के लिए सुधार पर भी कदम उठाया जाए.

सबसे पहला सुधार- भाषाई स्तर पर हो, जिसमे मूल पेपर अंग्रेजी में निर्मित करने की बजाय हिंदी मे किया जाए अथवा हिंदी अनुवाद को व्यवस्थित कराया जाए क्योंकि जब देश की राज भाषा हिंदी हो और एक संवैधानिक संस्था द्वारा हिंदी अनुवाद इतना निम्न स्तर का कराया जा रहा हो तो सवाल उठना लाजमी है. वास्तविकता भी है कि इसके अनुवाद ने गुगल ट्रासंलेटर को भी धता बता दिया है, ऐसा अनुवाद हिंन्दी माध्यम के विद्यार्थियों को झेलना पडता है. आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि जहां प्रारंभिक परीक्षा में 12 हजार छात्रों का चयन करना है, वहां  0.01 अंक भी कितना महत्वपूर्ण होता होगा और दूसरी और वही 120 मिनट में 100 प्रश्न भी हल करने होते हैं और गलत हुआ तो दंड स्वरूप अन्य सही प्रश्न के अंक काट लिए जाते हैं. इन समस्याओं पर पूरी संवेदनशीलता से विचार करने की आवश्यकता है.

दूसरा सुधार- संघ लोकसेवा आयोग अपना विज्ञापन परीक्षा के दो महीने पहले जारी करता है, उसे एक निश्चित समयांतराल पर जारी किया जाए, जिससे कोई भी अगर पाठ्यक्रम मे बदलाव हो तो अभ्यर्थी उसे नियत समय में तैयार कर परीक्षा में बैठ सके. आयोग को यह लगता है कि यदि पाठ्यक्रम मे कुछ बदलाव कर दिया जाए,जो महज परीक्षा से दो महीने पहले विज्ञापन जारी किया जाता है तो छात्र किसी भी परिस्थिति मे परीक्षा देने को तैयार हो जायेगा? आखिर, क्या छात्र बदला हुआ पैटर्न को दो महीने मे समेट सकता है? बिल्कुल भी नही. फिर संघ लोकसेवा आयोग अपना पाठ्यक्रम और विज्ञापन सही समय पर क्यों नही जारी करता?

तीसरा सुधार- सभी वैकल्पिक विषय को समाप्त करने पर विचार किया जाए, जिन विषयों का वास्तव में कोई औचित्य ही नही है, क्योंकि जब छात्र अपने स्नातक व स्नातकोत्तर में अन्य विषयों को पढ़ कर आता ही है तो उसे उसी विषय को वैकल्पिक रुप में पुनः लेना कोई विशेष अर्थ प्रकट नहीं करता. अगर वैकल्पिक विषय रखना ही है तो वो विषय रखना अनिवार्य कर दिया जाए जो उसे प्रशासन मे कार्य रूप मे करना है. जैसे- लोक प्रशासन विषय. इस बात की सिफारिस खन्ना कमेटी और होता कमेटी ने भी की थी. संघ लोक सेवा आयोग की यह विशेषता है कि वह हर दस साल बाद पूरी परीक्षा प्रणाली की समीक्षा करता है. 1979 में बदलाव के साथ शुरू हुई परीक्षा प्रणाली की समीक्षा 1988 में सतीश चंद्र कमेटी ने की और उसके 10 वर्ष बाद 2000 में वाईपी अलघ कमेटी ने किया. इसके बाद होता कमेटी, निगवेकर कमेटी और खन्ना कमेटी ने भी छुटपुट सुझाव दिए. 2014 में अंग्रेजी अनुवाद की समस्या के खिलाफ देशभर के लाखों छात्र सड़कों पर उतरे. लेकिन कमियों को अभी भी दूर नहीं किया जा सका है.

चौथा सुधार- जो कि सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश भी है, भारत में सिविल सेवा में भर्ती को प्रभावित कर सकती है, वह है, 2022-23 तक सिविल सेवाओं में भर्ती के लिए सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए ऊपरी आयु सीमा को चरणबद्ध तरीके से 27 वर्ष तक कर दिया जाना. सिविल सेवा में उम्र बढ़ाना एक लोकप्रिय फैसला रहा है. सरकार को अब तक उम्र घटाने के कई सुझाव मिले हैं लेकिन सरकार इसको घटाने की जगह लगातार बढ़ाती चली गई. इसको इसी बात से समझा जा सकता है कि 1947 में देश आजाद होने के समय भारतीय सिविल सेवा के नाम से पहचाने जाने वाली यूपीएससी परीक्षा में अभ्यर्थियों की उम्र 21-24 साल तक थी. फिर इसे 1970 में बढ़ा कर 26 साल किया गया. 90 के दशक तक आते-आते बढाकर 28 और 2000 में इसे 30 साल कर दिया गया. फिलहाल, अभी सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों की उम्र 32 साल है तो वही ओबीसी वर्ग के लिए 35 सालों की उम्र तक 9 बार एग्जाम दे सकेंगे और एससी/एसटी वर्ग के कैंडिडेट्स को 37 साल तक जितनी बार चाहें, पेपर दे सकेंगे.

क्या आपको आश्चर्य नही होता कि ऐसे पैटर्न पर जिनके लिए परीक्षा में कोई एटेम्ट की सीमा तय नहीं है और जिनमे तय भी है तो वो अधेड़ उम्र तक परीक्षा देते रहे और अंततः असफल होने पर किसी लायक न बचें, क्योंकि उम्र का आधा पड़ाव तो परीक्षा देने मे बीत गया. सवाल उठता है, आखिर इतनी लम्बी आयु सीमा क्यों? कई समितियों के सुझाव बाद भी परीक्षा के आयु सीमां में कटौती नही की जा सकी है, इसका प्रमुख कारण स्पष्ट है कि सरकार अगर परीक्षा में बैठने के सालों में कटौती कर देगी तो देश के कई लाख लोग एक साथ  बेरोजगार की श्रेणी मे आ जायेगें क्योंकि अगर वे लम्बी उम्र तक परीक्षा में बैठते रहेंगे तो उनको बरोजगारी कि नही बल्कि परीक्षा की चिंता रहेंगी. कुल मिलाकर बेरोजगारी से आंदोलन न उत्पन्न हो जाए इसी के भय से सरकार सिविल सेवा परीक्षा में आयु सीमा का निर्धारण बहुत ही ऊंचा रखा गया है.

वैसे, सिविल सेवा परीक्षा भारत की सर्वश्रेष्ठ परीक्षा होने के साथ ही देश की प्रतिष्ठित नौकरी भी प्रदान करती है. यही बजह है कि प्रतिवर्ष 10 से 12 लाख छात्र इस परीक्षा में बैठते हैं और अंतिम रूप से सफल लगभग 700 से 800 ही होते हैं, जो अपना योगदान देश के विकास कार्यो को करने मे देते है. ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि राज्यों की राज्य सेवा परीक्षाओं को भी इसी में जोड़ दिया जाए तो यह संख्या लगभग एक करोड़ के पास पहुंच जाती है. अतः कहा जा सकता है कि प्रतिवर्ष करोड़ों लोग सिविल सेवा परीक्षा देते हैं, जिसमें अलग-अलग भाषा-भाषी केे लोग अपनी भाषा में परीक्षा में बैठते हैं. लेकिन दुःख की बात यह है कि हिंदी माध्यम का स्तर लगातार गिरते गिरते रसातल में जा पहुंचा है. प्रायः 2011 से पहले हिंदी माध्यम में सफल अभ्यर्थियों की संख्या 40 फीसदी से भी अधिक रही है लेकिन स्थिति आज की ऐसी नही है. आज धीरे-धीरे परिणाम गिरकर 10-12 फीसद से  3-4 फीसद के लगभग सिमट कर रह गया है. अगर सुझाए गए बिंदुओं पर सुधार किया जाए तो न केवल नौकरशाही का चरित्र बदलेगा बल्कि सभी को समान अवसर भी मिलने के साथ राष्ट्र निर्माण में एक कुशल नौकरशाही का आगमन भी सुनिश्चित होगा.

नतीजन,जर्जर नौकरशाही में सुधारों को अब और स्थगित नहीं किया जा सकता. विभिन्न प्रशासनिक आयोगो ने उम्र, भर्ती, प्रशिक्षण और सेवाकाल में अभ्यर्थियों की क्षमता को बढ़ाने के लिए कई सिफारिशें दे चुके हैं, उन पर अमल किया जाना चाहिए. साथ ही संघ लोक सेवा आयोग द्वारा अपने अनुवादित स्तर को ठीक करने के साथ एक निर्धारित समय से पहले विज्ञापन जारी किया जाए तथा वैकल्पिक विषय के समाप्ति पर भी विचार किया जाना चाहिए. इससे पहले भी तर्क पूर्ण ढंग से होता कमेटी, खन्ना कमेटी ने वैकल्पिक विषय को खत्म करने पर सिफारिस की थी, उस पर जल्द विचार किया जाना चाहिए. तभी सही मायने में सभी विद्यार्थियों के साथ न्याय हो सकता है. आयोग को इन कमियों को सुधारने में अपनी संवेदनशीलता को स्पष्ट रूप से प्रकट करना चाहिए क्योंकि आज देश सिविल सेवा में क्षमता निर्माण की बात कर रहा है,लेकिन सिविल सेवा भर्ती की प्रारंभिक सीढ़ी ही मजबूत नही है. अतः कोरोना काल में एक मजबूत, ईमानदार नौकरशाही की जरूरत और महसूस की गई है, यही जरूरत आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए कारगर सिद्ध होगी लेकिन उसके लिए हमे प्राथमिक स्तर से सुधार को तरजीह देना होगा.

 


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