सरकारी उदासीनता से खर्च नहीं हो पा रहा निर्भया कोष का धन

जलज वर्मा

 |   27 Jan 2017 |   4
Culttoday

चार साल बीत गये उस लोमहर्षक घटना के जिसमें न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश को झकझोर दिया था. 16 दिसंबर, 2012 की उस रात को अब भी लोग नहीं भूले हैं, जिसमें कुछ हैवानों की शिकार निर्भया हुई थी. इसके बाद से ही महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बड़े-बड़े दावे किये गये, सुरक्षा इंतजाम को पुख्ता करने के लिए तात्कालीन यूपीए सरकार ने तो बजट में निर्भया कोष का प्रावधान किया और वर्तमान सरकार भी इस योजना को संचालित कर रही है. लेकिन हालात है कि इसका एक बड़ा हिस्सा खर्च ही नहीं किया जा सका. स्वयं को पिछली सभी सरकारों से अलग बताने वाली मोदी सरकार भी इस मामले में कुछ अलग नहीं है.

16 दिसंबर 2012 में दिल्ली की एक चलती बस में हैवानियत की शिकार हुई निर्भया की मौत ने देश को हिला कर रख दिया था. इसके बाद उपजे आक्रोश से निपटने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार ने कई घोषणाएं की थी. महिला सुरक्षा से जुड़ी तमाम योजनाओं के लिए धन मुहैया कराने ‘निर्भया कोष' की स्थापना भी उनमे से एक थी. इस घोषणा को आगे बढ़ाते हुए ‘निर्भया कोष' में हर साल 1000 करोड़ रुपये दिया जा रहा है. लेकिन इसका एक बड़ा हिस्सा खर्च ही नहीं हो पा रहा है.

संसद में पेश किए गए 2015-16 के बजट में सरकार ने दो योजनाएं बनाई थीं जिनके लिए बजट का प्रावधान ‘निर्भया कोष' से किया गया था. 'पल्बिक रोड ट्रांसपॉर्ट में महिलाओं की सुरक्षा' योजना के तहत 653 करोड़ रुपये और निर्भया प्रॉजेक्ट के लिए 79.6 करोड़ रुपये. इनमे से कोई भी योजना शुरू ही नहीं हो पायी. इस कोष के जरिये महिला सुरक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली एनजीओ को सहायता किया जाना था. सरकार इसके लिए कोई एनजीओ भी नहीं ढूंढ पायी.

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देश में महिलाओं के प्रति अपराध में लगातार वृद्धि के बावजूद निर्भया कोष का उपयोग ना हो पाने पर हैरानी जताते हुए कुछ एनजीओ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. कोर्ट के समक्ष महिला एवं विकास मंत्रालय यह बताने में नाकाम रहा कि आवंटित बजट का सत्तर फीसदी क्यों नहीं खर्च हो पाया. इस पर नाराजगी जताते हुए जस्टिटस चंद्रचूड़ ने कोष के धन को सही समय पर पीड़ितों पर खर्च करने के लिए केंद्र सरकार से एक राष्ट्रीय योजना बनाने को कहा है.

कई राज्य सरकारे केंद्र से मिली सहायता राशि का उपयोग नहीं कर पातीं जिसके चलते उन्हें अव्ययित राशि लौटानी पड़ती है. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग के अनुसार बिहार सरकार वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान निर्धारित बजट की रकम खर्च नहीं कर पाई है. जिसके चलते 27334 करोड़ रुपये सरेंडर करने पड़े. रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न योजनाओं के तहत अव्ययित राशि से राज्य का विकास कार्य प्रभावित हो सकता है. इसी तरह के कारणों से गर्भवती महिलाओं के लिए प्रभावित हुई योजना का उल्लेख कैग ने अपनी एक अन्य रिपोर्ट में किया था. एनडीए के कार्यकाल में भी अव्ययित राशि के मामले कम नहीं हुए हैं बल्कि आदिवासी और दलित कल्याण से जुड़ी कई योजनाओं में अव्ययित राशि में वृद्धि हुई है. सिर पर मैला ढोने वालों के लिए रोजगार और पुनर्वास की योजना भी कागजों में ही सिमट कर रह गयी है. इसके लिए 461 करोड़ रुपये का बजट रखा गया था, पर इसे शुरू नहीं किया जा सका. कैग की रिपोर्ट के अनुसार सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी होने के बावजूद हिमाचल प्रदेश 2014-15 में शिक्षा विभाग 130 करोड़ रुपये का उपयोग करने में नाकाम रहा है.

सरकारों का वित्तीय प्रबंधन सवालों के घेरे में है. अर्थशास्त्री डॉ अभय पेठे का कहना है कि सही नियोजन के अभाव के चलते सरकारें निर्धारित बजट को भी खर्च नही कर पातीं. उनके अनुसार अधिकतर योजनाएं को लागू कराने में कड़ाई नहीं बरती जाती बल्कि यह केंद्र या नीति आयोग द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के चलते पर चलती हैं. दिशा-निर्देशों में स्पष्टता का अभाव भी योजना को डुबाने के लिए काफी है.

शहरी प्रबंधन विशेषज्ञ डॉ रविकांत जोशी के अनुसार कई बार आवंटित राशि के जारी होने में देरी भी अव्ययित राशि के मामले को बढ़ा देते हैं. धन का आवंटन तो बजट में हो जाता है, लेकिन वे वित्तीय वर्ष में बहुत देर से जारी होता हैं, जिससे राज्यों के पास आवंटित राशि को उचित तरीके से खर्च करने के लिए पर्याप्त समय नहीं रहता. कई बार सरकारें बजट खर्च से बहुत ज्यादा का बना लेती हैं. जिसके कारण भी उन्हें बजट लौटाने की नौबत आती है. अभय पेठे का मानना है कि "जबावदेही, तवरित राशि आवंटन और जमीनी स्तर पर काम करने वालों को उचित प्रशिक्षण" देकर इस समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकता है.

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