अंधेरे में रौशनी की खोज करता हिंदुस्तान
जलज वर्मा
|
13 Jan 2017 |
7
कोई कह रहा है-आर्थिक इमरजेन्सी. तो कोई फाइनेंशियल इमरजेन्सी तो कोई सुपर इमरजेन्सी भी कहने से नहीं चूक रहा है. तो क्या 1975 के आपातकाल के आगे के दौर को मौजूदा वक्त के खांचे में देखा जा रहा है. या फिर नोटबंदी प्रधानमंत्री मोदी का ऐसा राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक है, जिसके दायरे में हर राजनीति सिमट गई है और हर तरह की राजनीति के केन्द्र में प्रधानमंत्री मोदी आ खड़े हुये हैं. या फिर इमरजेन्सी शब्द को विपक्ष अब इस तरह क्वाइन कर रहा है, जिससे इंदिरा गांधी की इमरजेन्सी के सामानांतर मोदी की इमरजेन्सी घुमडने लगे. याद कीजिये इमरजेन्सी के खिलाफ जेपी के संघर्ष को खारिज करने के लिये इंदिरा गांधी विनोबा भावे की शरण में गई थीं. और जेपी ने जब संपूर्ण क्राति का आंदोलन छेड़ा तो विनोबा भावे से कागज पर इमरजेन्सी को इंदिरा गांधी ने अनुशासन पर्व लिखवा लिया. लेकिन मौजूदा वक्त में ना तो जेपी सरीखा कोई संघर्ष है और ना ही नैतिक बल लिये विनोबा भावे . और 1975 में तो संघ परिवार भी जेपी के पीछे जा खडा हुआ था . और जिस बीजेपी के पास मौजूदा वक्त में सत्ता हैा उनके तमाम नेता इंदिरा की इमरजेन्सी में संघर्ष करते हुये ही पहचान बना पाये . तो क्या मौजूदा वक्त में जब कांग्रेस से लेकर ममता और मायावती से लेकर अखिलेश या केजरीवाल भी नोटबंदी के दायरे में इमरजेन्सी शब्द का जिक्र कर रहे हैं तो तीन सवाल हैं.
पहला क्या इमरजेन्सी शब्द मोदी की सत्ता के साथ टैग करने भर का सवाल है . दूसरा, क्या इमरजेंसी शब्द के जरीये भ्रष्टाचार और कालेधन को दबाना है . तीसरा , क्या इमरेन्सी शब्द के जरीये ही राजनीतिक सत्ता पलटी जा सकती है . जाहिर है तीनों हालात राजनीति कठघरा ही बनाते हैं. लेकिन जब इक्नामिक इमरजे्न्सी का जिक्र देश में चल पडा है तो याद कीजिये 1974-75 में इंदिरा गांधी के करप्शन के खिलाफ ही जेपी ने संघर्ष छेडा था . और मौजूदा वक्त में सत्ता के करप्शन का सवाल सुप्रीम कोर्ट के दायरे में ही खारिज हो रहा है . यानी एक वक्त जैन हवाला के पन्नों पर आडवाणी ने इस्तीफा दे दिया . तो सहारा-बिरला के दस्तावेजों को सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना . राजनीति में भी नैतिकता गायब हो गई . तो क्या करप्शन की परिभाषा भी मौजूदा दौर में बदल रही है . या करप्शन के खिलाफ कोई भी कार्रवाई राजनीतिक तौर इमरजेन्सी शब्द से जोडना आसान है .मसलन ममता की सत्ता पर करप्शन के लगे दाग पर सीबीआई की कार्रवाई के खिलाफ टीएमसी राष्ट्रपति से मिलकर लौटती है तो सुपर इमरजेन्सी शब्द उछालती है. तो क्या नोटबंदी से मुश्किल में आती मोदी सरकार के सामने अब चुनी हुई सत्ता के करप्शन के खिलाफ कार्रवाई कर अपनी छवि साफ रखना जरुरी हो चला है . यानी इमरजेन्सी के हालात राजनीतिक टकराव के उस मुहाने पर देश को ले जा रहे है जहा अच्छे दिन का मतलब होता क्या है इसे हर कोई मिल जाये . और इसीलिये 2014 में अच्छे दिन का सपना मोदी ने दिखाया . क्योंकि मनमोहन की सत्ता भ्रष्ट हो चली थी . और 2017 की शुरुआत ही राहुल गांधी ने अच्छे दिन का सपना 2019 तक के लिये मुल्तवी कर दिया जब कांग्रेस सत्ता में आ जायेगी . तो क्या इमरेजन्सी शब्द के बाद अच्छे दिन का नारा भी एक ऐसा शब्द हो चुका है जो राजनीति सत्ता को चुनौती दे सकता है . या फिर 2014 में जिन शब्दों ने सत्ता पलट दी अब वही शब्द सत्ता के लिये गले की हड्डी बन रहे है . या फिर अच्छे दिन की परिभाषा अपनी सुविधानुसार सत्ता और विपक्ष दोनों ही गढ रहे हैं. चिदंबरम घातक मानते है तो जेटली एतिहासिक कदम . दोनों ही वित्त मंत्री . एक ही देश के लिये देखने का दो नजरिया है . तो ऐसे में सवाल इक्नामी का नही सियासत का ही ज्यादा होगा . और सियासत की इस चौसर में -कौन सा पांसा किस राजनीतिक दल को लाभ दे दें. या -कौन सा पांसा पंरपारिक राजनीति को ही उलट दें . या फिर कौन सा पांसा राष्ट्रनिर्माण के सपने तले वर्ग संघर्ष के हालात पैदा कर दें . यानी गरीबों के लिये इक्नामी में कौन सी भागेदारी रोजगार पैदा करती है इसका कोई विजन आजतक किसी सत्ता ने नहीं बताया . किसान को लागत से ज्यादा देने का वादा सरकार क्यों नहीं कर पाती ये भी अबूझ पहेली है . और देश में असमानता की खाई कैसे कम होते हुये खत्म हो इसकी कोई दृश्टी किसी उक्नामिक प्रयोग में या बजट में उभर नहीं पाती है . तो क्या देश में अच्छे दिन शब्द भी सियासी सपने से ज्यादा कुछ नहीं है . क्या अच्छे दिन की चाहत में सिर्फ सत्ता बदलने का ख्वाब पालना देश का फेल होना है . क्योंकि अच्चे दिन का जिक्र चाहे 2014 में हुआ हो या 2017 में . दोनों हालातों में ये समझान भी जरुरी है कि देश के संस्धानों को ही राजनीतिक सत्ता ने 2014 से पहले मनमोहन सिंह ने हड़पा और अब मोदी सरकार हडप रही है . और बीजेपी 2014 तक ये आरोप लगा रही थी . तो काग्रेस अब ये आरोप लगा रही है . यानी अच्छे दिन लाने के लिये देश में जिन संस्थानों को काम करना है दजब उन्ही संस्थानो का राजनीतिकरण राजनीतिक मुनाफे के लिये कर दिया जाता हो तो फिर अच्छे दिन किसके आयेगें . जाहिर है जनता के लिये तो अच्छे दिन हर सत्ता में मुश्किल है . और शायद उलझन इसी को लेकर है कि रास्ता देश का सही है कौन सा . क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस वक्त कारपोरेट के बीच बैठकर गुजरात वाइब्रेंट समिट में नीतियों और अर्थव्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की वकालत कर रहे थे उस वक्त सिंगूर के किसान खासे खुश थे कि अब उन्हे अपनी जमीन मिल जायेगी . तो क्या जिस बाजार इक्नामी के दायरे में एसईजेड बनाने की बात मनमोहन सिंह के दौर में हो रही थी . और जिस वक्त नैनो कार को सिंगूर में जगह नहीं मिली उसे गुजरात में जमीन तब सीएम रहते हुये मोदी ने ही दी . और अब सु्परीम कोर्ट ने जब 7 राज्यो को सेज पर नोटिस दे दिया है तो क्या इक्नामी का रास्ता हो क्या देश इसी में जा उलझा है . क्योकि एक तरफ वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने ब्लॉग में लिखते है मोदी ने नोटबंदी के जरिए अर्थव्यवस्था में पीढ़ीगत बदलाव कर दिया है. और दूसरी तरफ दुनिया की तीन बड़े रेटिंग एजेंसियों में एक " फिच " ने कल ही कहा है कि बड़े फायदे के लिए कुछ देर का परेशानी का सरकार का दावा अनिश्चित है . तो न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबार ने तो अपनी संपादकीय टिप्पणी में यहां तक लिख दिया कि, " क्रूरतापूर्वक बनाए और लागू किए गए नोटबंदी के फैसले ने आम लोगों की जिंदगी को काफी कठिन बना दिया है. इसके बहुत कम सबूत हैं कि नोटबंदी से भ्रष्टाचार रोकने में मदद मिली है और ना इस बात की गारंटी है कि इस तरह के क्रियाकलापों पर भविष्य में रोक लग पाएगी,जब सिस्टम में कैश वापस आ जाएगा. और नोटबंदी के फैसले से देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा है. " तो बाईब्रेट गुजरात के जरीये इक्नामी को समझा जाये . या नोटबंदी से ढहती बाजार इक्नामी को सही माना जाये .क्योंकि सच यही है किनोटबंदी से दिसंबर में वाहनों की बिक्री 18.66 फीसदी गिर गई. ये 16 साल में सबसे बड़ी गिरावट है . जनवरी से मार्च में बिजनेस कॉन्फिडेंस 65.4 दर्ज हुआ,जो आठ साल में सबसे कम है . दिसंबर तिमाही में 8 बड़े शहरों में घरों की बिक्री 44 फीसदी गिरी,जो आठ साल में सबसे कम है . डॉलर के मुकाबले रुपया मोदी सरकार के काल में सबसे निचले स्तर को छू रहा है . असंगठित क्षेत्र के 14 करोड़ लोगों के सामने रोजगार का संकट पैदा हुआ है,जिन्हें नौकरी वापस दिलाने को लेकर फिलहाल कोई योजना सरकार के पास नहीं है . यानी नोटबंदी के बाद के हालात ने नया सवाल ये तो खडा कर ही दिया है कि आखिर इक्नामी के रास्ते बाईब्रेट गुजारात की चकाचौंध पर चलेंगे. या नोटबंदी के अंधेरे के बाद रोशनी आयेगी. या फेल होते सेज तले आखिर में देश को कार या सरकार पर नहीं किसानी पर ही लौटना पडेगा.
(लेखक देश के प्रख्यात पत्रकार है और यह आलेख लेखक के ब्लाक पर पहले प्रकाशित हो चुकी है. मूल लेख पढने के लिए यहां क्लिक करें)
To contribute an article to CULT CURRENT or enquire about us, please write to editor@cultcurrent.com . If you want to comment on an article, please post your comment on the relevant story page.
All content © Cult Current, unless otherwise noted or attributed. CULT CURRENT is published by the URJAS MEDIA VENTURE, this is registered under Chapter V of the Finance Act 1994. (Govt. of India)