बिहार विस चुनावः फिर कोई चमत्कार करेंगे नीतीश?
                  
                
                
                    
                        संदीप कुमार
                         |  15 Oct 2020 | 
                         76
                
                
                
                    
                         
                     
                        
                      
                 
                
                   
                 
                    
                
                2015 के बिहार विधानसभा चुनाव ने अच्छे-अच्छों को किस कदर छकाया था, इसका सबसे सटीक उदाहरण है नतीजों वाले दिन सुबह-सुबह एनडीटीवी पर चला नाटकीय घटनाक्रम. भारत में समाचार चैनलों की दुनिया में इस चैनल को अपेक्षाकृत गंभीर माना जाता है. नतीजे वाले दिन सुबह के नौ बजते-बजते एनडीटीवी ने आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू के महागठबंधन से मुकाबला कर रही भारतीय जनता पार्टी की जीत का ऐलान कर दिया था. ये तीनों पार्टियां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा का विजयरथ रोकने के लिए एक हुई थीं. नौ बजे एनडीटीवी बता रहा था कि यह महाकवायद विफल रही. हुआ तो अंत में ऐसा ही, लेकिन उस तरह से नहीं जिस तरह से चैनल ने इसकी घोषणा की थी.
खैर, उस दिन नौ बजने के थोड़ी ही देर बाद एनडीटीवी गलत साबित हो गया. जल्द ही यह भी साफ हो गया कि महागठबंधन भाजपा को धूल चटाने जा रहा है. तो जो प्रख्यात चुनावी विश्लेषक अब तक यह व्याख्या कर रहे थे कि बिहार के वोटर ने भाजपा को क्यों चुना, उन्हें अब अपने विश्लेषण की गाड़ी उल्टी दिशा में दौड़ानी पड़ी. आखिर में तस्वीर साफ हुई तो पता चला कि महागठबंधन ने 178 सीटें जीत ली हैं. 243 विधानसभा सीटों वाले बिहार में जीत के लिए 122 का आंकड़ा पर्याप्त होता है. उधर, भाजपा को महज 58 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था. 10 करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले बिहार ने पार्टी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था. हालांकि दो साल बाद ही भाजपा सत्ता में लौट आई. ऐसा इसलिए हुआ कि जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार ने महागठबंधन का साथ छोड़कर एक बार फिर से अपने पुराने सहयोगी से हाथ मिला लिया और एनडीए के पाले में लौट आए.
तब से हाल तक सारे समीकरण अपनी जगह पर जमे हुए थे. यही नहीं, कोविड-19 के चलते बीते अगस्त तक यह लग रहा था कि राजनीतिक रूप से देश के सबसे उर्वर राज्य बिहार में विधानसभा चुनाव इस बार नीरस ही रहने वाला है. आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन ऊर्जा और मुद्दे, दोनों मोर्चों पर सुस्त लग रहा था और भाजपा-जेडीयू की जीत निश्चित नजर आ रही थी. लेकिन पिछले कुछ हफ्तों के दौरान यह समीकरण थोड़ा बदलता दिख रहा है.
इस पर हम बाद में लौटेंगे. पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात करते हैं. 2017 में जब उन्होंने महागठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ जाने का फैसला किया था तो एक बड़ा सवाल यह भी था कि इसका उनकी पार्टी के भविष्य पर क्या असर होगा. नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री बने रहे, लेकिन यह साफ था कि आगे उनकी पार्टी के सामने सत्ता विरोधी लहर के अलावा जनादेश के साथ छल का यह अतीत भी एक चुनौती से कम नहीं होगा.
नीतीश कुमार को कभी बिहार के विकास का चेहरा कहा जाता था. बीते करीब डेढ़ दशक से मुख्यमंत्री रहे नीतीश के कार्यकाल के शुरुआती साल कानून-व्यवस्था और सड़क जैसे मोर्चों पर बिहार के प्रदर्शन में सुधार के लिए याद किए जाते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों के आंकड़े और खबरें उल्टी दिशा में जाते दिखते हैं. नीति आयोग के मुताबिक बिहार विकास के कई मानकों पर निचली पांत में बना हुआ है. उदाहरण के लिए कुछ समय पहले आयोग ने इसे लेकर एक रैंकिंग जारी की थी कि कौन सा राज्य सतत विकास से जुड़े लक्ष्यों को हासिल करने में कितना सफल रहा. बिहार इसमें बाकी सभी राज्यों से पीछे यानी आखिरी पायदान पर था. इसी तरह निर्यात के लिए किसकी कितनी तैयारी है, इसे लेकर आयोग ने कुछ समय पहले जो रैकिंग जारी की थी उसमें बिहार 30वें नंबर पर रहा. यह बताता है कि बिहार में उद्योग-धंधों की हालत अब भी कितनी खराब है.
बिहार हर साल बाढ़ से हुए व्यापक नुकसान के लिए भी खबरों में रहता है. इसके अलावा यहां बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय औसत से काफी ज्यादा है. स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और शिक्षा से जुड़े मानकों पर भी वह पीछे है. कई विश्लेषकों के मुताबिक भले ही इन पर कम बात हो रही हो, लेकिन बिहार के असली मुद्दे यही हैं.
मौजूदा कोविड-19 संकट के दौरान भी बिहार गलत कारणों से चर्चा में आया. बीते जुलाई में नीति आयोग ने यह कहकर उसकी खिंचाई की थी कि बड़े राज्यों में प्रति दस लाख आबादी पर टेस्टिंग के मामले में वह सबसे फिसड्डी है. हालांकि तब से राज्य ने टेस्टिंग की संख्या काफी बढ़ा दी है, लेकिन इसके लिए वह जिस एंटीजन तरीके का इस्तेमाल कर रहा है उसकी विश्वसनीयता पर कई सवाल हैं.
लेकिन इस संकट से जुड़े जिस मसले ने बिहार को सबसे ज्यादा सुर्खियों में रखा वह था मोदी सरकार का तुरत-फुरत देशव्यापी लॉकडाउन. इसके चलते लाखों प्रवासी मजदूर देश के अलग-अलग हिस्सों से बिहार लौटने को मजबूर हो रहे थे. दूसरी तरफ, नीतीश कुमार जिस तरह के बयान दे रहे थे उनसे साफ था कि वे नहीं चाहते थे ये लोग बिहार लौटें. इस दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जहां-तहां फंसे राज्य के मजदूरों को वापस लाने की व्यवस्था कर रहे थे तो बिहार के मुख्यमंत्री इस मामले में बिल्कुल अलग ही रुख दिखा रहे थे. मसलन अपने एक बयान में उनका कहना था, ‘क्या पांच लोग सड़क पर आकर मांग करने लगेंगे तो सरकार झुक जाएगी? सरकार ऐसे काम करती है?’ इसने नीतीश कुमार की छवि पर तगड़ी चोट की.
आखिरकार चौतरफा दबाव पड़ने पर केंद्र सरकार ने प्रवासी मजदूरों के वापस अपने घर आने की व्यवस्था की. खबरें बताती हैं कि इसके बाद करीब 32 लाख लोग वापस बिहार लौटे. जल्द ही राज्य में ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत पंजीकरण में भारी बढ़ोतरी देखी गई. बहुत से विश्लेषकों के मुताबिक यही वजह थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मौजूदा रोजगार योजनाओं की रीपैकेजिंग के लॉन्च के लिए बिहार को ही चुना. इसके तहत घर लौटने वाले प्रवासी मजदूरों के लिए रोजगार का प्रावधान किया गया. यानी भाजपा ने चुनाव को देखते हुए अपनी तैयारी शुरू कर दी थी.
अब बिहार चुनाव के सबसे हैरान करने वाले पहलू की बात. राज्य में लगभग सभी कहते हैं कि जीत भाजपा-जेडीयू गठबंधन की होगी. लेकिन इसके साथ ही ज्यादातर लोग नीतीश कुमार से काफी नाखुश दिखते हैं. सी-वोटर के एक ओपिनियन पोल में 56.7 फीसदी लोगों ने कहा कि वे नीतीश कुमार सरकार से नाराज हैं और बदलाव चाहते हैं. 45.3 फीसदी लोगों ने नीतीश कुमार के प्रदर्शन को खराब बताया. इसके बावजूद पोल के नतीजे में कहा गया कि भाजपा-जेडीयू गठबंधन को आराम से 44.8 फीसदी वोट मिल जाएंगे जबकि आरजेडी-कांग्रेस के लिए यह आंकड़ा 33.4 फीसदी रहेगा.
यानी बिहार के लोगों में नीतीश कुमार से नाराजगी है, लेकिन वे नरेंद्र मोदी और भाजपा-जेडीयू से नाखुश नहीं हैं. दूसरी तरफ, आरजेडी के तेजस्वी यादव मैदान में कोई खास चुनौती पेश करते नहीं दिखते. बिहार विधानसभा चुनाव का फिलहाल यही निष्कर्ष दिखता है जिसे राज्य की राजनीति पर करीब से नजर रखने वाले कई लोग गलत नहीं मानते हैं.
लेकिन यहां पर बिहार के चुनावी दंगल से जुड़े समीकरणों का एक हिस्सा बदलता दिख रहा है. लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के संस्थापक रामविलास पासवान का बीते दिनों निधन हो गया. वे 2014 से बिहार में भाजपा के जूनियर पार्टनर रहे. लेकिन उनके बेटे और अब पार्टी के मुखिया चिराग पासवान बीते करीब एक साल से लगातार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आलोचना करते रहे हैं. यानी एनडीए के ही दो घटक आपस में टकरा रहे हैं. इसका एक कारण तो ऐतिहासिक है. नीतीश कुमार इस बार एनडीए के साथ आने से पहले कई बार एलजेपी के विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में मिला चुके हैं.
एलजेपी ने 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में सिर्फ दो सीटें जीती थीं. लेकिन भाजपा के साथ गठबंधन से उसे फायदा हुआ है. न सिर्फ चुनावी लिहाज से (बीते साल आम चुनाव में एलजेपी को छह सीटें हासिल हुई थीं और 2014 में सात) बल्कि कद से हिसाब से भी. भाजपा के साथ गठबंधन के बाद खास कर दलित समुदाय में एलजेपी की पैठ बढ़ी है. बीती चार अक्टूबर को पार्टी ने ऐलान किया कि वह एनडीए में रहते हुए ही बिहार चुनाव में जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार उतारेगी. चिराग पासवान ने कहा कि भाजपा के प्रत्याशियों को एलजेपी का समर्थन रहेगा, लेकिन 143 सीटों पर वह जेडीयू के खिलाफ लड़ेगी.
सवाल उठता है कि एलजेपी के ऐसा करने का दूसरा कारण क्या है? ऐसा कैसे है कि एक ही राज्य में भाजपा का एक गठबंधन सहयोगी उसके दूसरे सहयोगी के खिलाफ उम्मीदवार उतार रहा है? इससे किसको फायदा होगा? सवाल यह भी है कि नीतीश कुमार को लेकर इतनी नाराजगी और ऐलजेपी के उसके खिलाफ हो जाने के बावजूद ओपनियन पोल सत्ताधारी गठबंधन की जीत क्यों दिखा रहे हैं?
वरिष्ठ पत्रकार शिवम विज इस विरोधाभास को एक सहमति की उपज बताते हैं. अपने एक लेख में वे कहते हैं, ‘राजनीति को खाने, पहनने और ओढ़ने वाले बिहार में लोग तय मानकर चल रहे हैं कि चुनाव के बाद - शायद नतीजों के कुछ महीने के भीतर ही- नीतीश कुमार से मुख्यमंत्री पद छीन लिया जाएगा. इससे उन्हें इस कड़वी सच्चाई को पचाने में मदद मिल रही है कि वे एक ऐसे मुख्यमंत्री को वोट देने जा रहे हैं जिसे वे पसंद नहीं करते.’
दूसरे शब्दों में कहें तो भले ही भाजपा के नेता बार-बार कह रहे हों कि वे एलजेपी के फैसले पर नाखुश हैं, लेकिन लोगों का एक बड़ा वर्ग यही मानकर चल रहा है कि यह भाजपा का ही खेल है. जैसा कि अपने एक लेख में संकर्षण ठाकुर लिखते हैं, ‘आधिकारिक रूप से भाजपा यही कहती आ रही है कि नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री रहेंगे. उसने पार्टी के लोगों को चेतावनी भी दी है कि वे एलजेपी से दूर रहें ताकि नीतीश कुमार के उम्मीदवारों को नुकसान न हो. लेकिन इस चेतावनी में एक तरह का संदेश भी है. भाजपा के कई नेता और समर्थक पार्टी छोड़कर एलजेपी में जा चुके हैं और टिकट पा चुके हैं.’
एक समाचार वेबसाइट से बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं, ‘बिहार में एनडीए में जो हो रहा है वो चुनाव के लिए नहीं बल्कि चुनाव के बाद की सियासी पटकथा लिखी जा रही है. एलजेपी के अलग चुनाव लड़ने से निश्चित तौर पर जेडीयू को नुकसान होगा जबकि बीजेपी को चुनाव में सीधे तौर पर कोई नुकसान नहीं होगा. एलजेपी के पास दलितों के एक तबके का अच्छा खासा वोट है, जो जेडीयू के खिलाफ वोट कर सकता है. वहीं, बीजेपी बिहार में मजबूत बनकर उभरेगी तो चुनाव के बाद नीतीश कुमार ज्यादा बारगेनिंग की पोजिशन में नहीं होंगे.’
तो अगर भाजपा पर्याप्त सीटें जीत ले और वह एलजेपी के थोड़े से विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने की स्थिति में हो तो क्या पार्टी नीतीश कुमार को छोड़ देगी? या फिर वह कम से कम अपना मुख्यमंत्री रखने की जिद करेगी? क्या नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सहारे जीत की उम्मीद कर रहे नीतीश कुमार एनडीए के कुनबे के भीतर चल रहे इस जोड़-तोड़ से पार पा सकेंगे?’
अगर बिहार चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चा भाजपा के एक सहयोगी के दूसरे से टकराने की हो रही है तो इससे विपक्ष के हाल के बारे में क्या कहा जाए? सवाल यह भी है कि अगर विपक्ष ठीक-ठाक सीटें ले आता है, जिसकी कि क्षीण संभावना है, तो क्या इसके नेता सिर्फ सत्ता में आने के लिए नीतीश कुमार के साथ हाथ मिला सकते हैं? अगर वे ऐसा करने के लिए ज्यादा उत्सुक न हों तो क्या नीतीश कुमार इसके लिए उन्हें तैयार कर सकते हैं? क्या नीतीश कुमार उतनी ही आसानी से एक बार फिर से एनडीए को छोड़ सकते हैं जितनी आसानी से 2017 में उन्होंने महागठबंधन को छोड़ दिया था? क्या वे उतनी ही चतुराई से इस स्थिति से भी निपट सकते हैं जिस चतुराई से 2015 में उन जीतनराम मांझी से निपटे थे जिन्हें उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में हुई करारी हार के बाद खुद ही बिहार का मुख्यमंत्री बनाया था. वैसे जीतनराम मांझी भी इस काम में उनकी मदद कर सकते हैं. वे एक सीमा से ज्यादा दलित वोटों को एलजेपी की तरफ जाने से रोक सकते हैं. वैसे भी ‘महादलित’ यानी दलित समाज के सबसे निचले हिस्से को नीतीश कुमार का ही वोट बैंक माना जाता है.
तो कुल मिलाकर बात यह है कि बिहार चुनाव के जो समीकरण कुछ समय पहले तक सीधे और साफ लग रहे थे, उनमें अचानक नाटकीयता दाखिल हो चुकी है. यह अलग बात है कि इसका संबंध उन चुनौतियों से नहीं है जिनका सामना वह राज्य कर रहा है जो अगर भारत में न होता तो आबादी के लिहाज से दुनिया के 15 सबसे बड़े देशों में शामिल होता.